भारत की मूल्यहीन, अव्यवस्थित प्रगति में अनुशासनहीनता का तड़का

Flag-India.jpg.webp

भारत में अब भोर चिड़ियों की चहचहाहट से नहीं, बल्कि अव्यवस्था के बेसुरे शोर से शुरू होती है। सड़क पर भोंपुओं, का कोलाहल, दफ्तर में देर से खिसकती फाइलें, स्कूलों में गायब अध्यापक और संसद में माइक टूटने की मारकाट—हर जगह अनुशासन की कमी का भूत साया डाले खड़ा है। यह कोई बिखरे हुए दृश्य नहीं, बल्कि एक सम्पूर्ण राष्ट्रीय चरित्र बन चुका है, जहां नियम कागज पर मरते हैं और “चलता है” का मंत्र हर गली-कूचे में गूंज रहा है। सवाल है—क्या यह अराजकता भारत के सपनों को निगल जाएगी, या कभी दिशा मिलेगी?
_______________________________
क्लास शुरू हो चुकी थी, लेकिन मास्टर साहब गायब थे। आधे घंटे तक उनका इंतजार चलता रहा। फिर वही हंगामा: चॉक हवा में तीर की तरह चल रहे थे, पेपर रॉकेट दीवारों से टकरा रहे थे, लड़कियां सहमकर चीख रही थीं और लड़के पकड़े जाने पर खिलखिला रहे थे। हेड मास्टर जब डांटते हुए पहुंचे तो कुछ देर को सन्नाटा छा गया, मगर उनके जाते ही शोरगुल लौट आया। आखिर में आचार्यजी आए, हाजिरी ली और निकल लिए। यह दृश्य किसी अपवाद का नमूना नहीं, बल्कि हिंदुस्तान के सरकारी स्कूलों की रोजमर्रा की सच्चाई है।

अगर इसे बढ़ाकर सरकारी दफ्तरों तक ले जाएं, तो तस्वीर और भी स्पष्ट हो जाती है। दफ्तर भले ही दस बजे खुलते हों, काम ग्यारह बजे शुरू हो जाए तो उसे उपलब्धि माना जाता है। कर्नाटक का उदाहरण तो दिलचस्प है, जहां ग्यारह बजे ‘केला ब्रेक’ जैसी परंपरा बनी हुई है। पूरे देश का माहौल शासन और व्यवस्था के विपरीत, अव्यवस्था और ढीलेपन में सांस लेता है। जानकार साफ कहते हैं कि भारत की सबसे बड़ी समस्या गरीबी या बेरोजगारी नहीं, बल्कि अनुशासनहीनता है—जो हर क्षेत्र में जड़ तक समाई हुई है।

रिटायर्ड टीचर मीरा जी कहती हैं, “सड़कें हों, अस्पताल हों, अदालतें हों या फिर लोकतंत्र का गर्व मानी जाने वाली संसद—किसी जगह अनुशासन की झलक नहीं मिलती। कतारें टूटती हैं, नियम केवल कागज पर लिखे रहते हैं, समय की कीमत को शून्य मान लिया गया है। यह “कुछ भी चलेगा” वाला रवैया केवल आदतन आलस्य नहीं, बल्कि एक ऐसी सोच का प्रतीक है जिसमें व्यक्तिगत उल्लंघन को सामान्य बना दिया गया है। यहां शॉर्टकट की पूजा होती है और सामूहिक भलाई को हमेशा निजी लाभ के नीचे दबा दिया जाता है।”

भारत की सड़कों पर नज़र डाल लीजिए। ट्रैफिक नियम केवल साइनेज पर दर्ज रहते हैं, व्यवहार में नहीं। लेन बदलना एक सहज कला है, लाल बत्ती तोड़ना किसी खेल की तरह लिया जाता है। कुछ सेकंड बचाने के लिए ड्राइवरों की यह अव्यवस्थित भागदौड़ अक्सर जाम और हादसों में बदल जाती है। यह स्वार्थ पैदल यात्रियों तक फैला है, जो बेखौफ सड़क पार करते हैं, और उन वाहनों तक जो सिग्नल के नियमों को चुटकियों में तोड़ देते हैं। यही नहीं, रेलवे स्टेशन और सरकारी दफ्तरों पर कतारें भी हमेशा टूटती दिखाई देती हैं। लोग धक्का देकर आगे निकलते हैं, रिश्वत देकर अपना काम पहले करवाते हैं और थोड़े से अधिकार या ताकत के बल पर वीआईपी कल्चर का सहारा लेते हैं।

लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था संसद का नजारा भी अनुशासनहीनता का सबसे बड़ा प्रतीक है। वह जगह, जहां साफ-सुथरी बहस और तार्किक तर्कों से जनहित के फैसले होने चाहिए, अक्सर अखाड़े में बदल जाती है। गाली-गलौज, माइक तोड़ना, कुर्सियां खींचना और बिलों पर हाथापाई, ये सब किसी लोकतंत्र का गौरव नहीं बल्कि उसकी विडंबना बन चुके हैं, ये कहना है पब्लिक कॉमेंटेटर प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी का।

“लेट-लतीफ” का मुहावरा केवल मजाक नहीं, बल्कि भारतीय रोज़मर्रा की मानसिकता है। यहां देरी पर किसी प्रकार का अपराधबोध नहीं होता। काम समय पर न करना और वादों का पूरा न होना सार्वजनिक जीवन की पहचान बन गया है। यही ढीलापन सामूहिक समय की भारी बर्बादी का कारण है। जब इस संस्कृति पर भ्रष्टाचार का तड़का लगता है, तो स्थिति और भी बदतर हो जाती है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्टें बार-बार साबित करती हैं कि पुलिस से लेकर न्यायपालिका तक रिश्वत आम है, और शॉर्टकट को ही नियम बना लिया गया है।

कुछ वर्ष पूर्व मुझे जापान जाने का मौका मिला। स्कूल्स और दफ्तरों को विजिट करने के बाद अनुभव हुआ कि जापान अनुशासन और समर्पण का जीवंत उदाहरण है। वहां बच्चों को प्राथमिक विद्यालय से ही जिम्मेदारी और अनुशासन का महत्व सिखाया जाता है। छोटे-छोटे काम जैसे—कक्षा की सफाई, साझा कामों में सहभागिता और दूसरों की भलाई के लिए त्याग—यह सब उनकी शिक्षा का हिस्सा है। यही संस्कार “राष्ट्र पहले” की भावना पैदा करते हैं। जापानी समाज में अनुशासन केवल पालन करने का नियम नहीं, बल्कि सामूहिक जीवन का नैतिक कर्तव्य है। यही कारण है कि उनकी शिनकानसेन ट्रेनें कभी एक मिनट भी लेट नहीं होतीं। यही कारण है कि परमाणु हमले के खंडहरों से निकलकर जापान आर्थिक महाशक्ति बन सका।

भारत और जापान के बीच यह तुलना दर्दनाक है। भारत की संभावनाएं अनुशासनहीनता और अव्यवस्था से दब गई हैं जबकि जापान ने वही अनुशासन टिकाऊ विकास की इंजन बना लिया है। सवाल यह है कि क्या भारत कभी इस दिशा में गंभीरता से बढ़ेगा?

भारत के पास संसाधन हैं, प्रतिभा है और अवसरों की कमी नहीं है। कमी है तो केवल अनुशासन की। यही हमारी प्रगति की सबसे बड़ी बाधा है और सबसे बड़ा उपाय भी। अगर भारत ने जापान और सिंगापुर जैसे मॉडलों से सीखा, और नियमों को अपवाद नहीं बल्कि जीवन का हिस्सा बना लिया, तो राह बदलेगी।

Share this post

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top