अनुराग पुनेठा
“The problem is not that Europe is being invaded. The problem is that Europe no longer knows what it is.”
— Douglas Murray, Author of *The Strange Death of Europe*
यूरोप आज़ाद है, लेकिन थका हुआ लगता है। यह पराजित नहीं हुआ, फिर भी एक हार की गंध हर कोने में महसूस होती है। ब्रिटेन के विचारक Douglas Murray ने इस भावना को शब्दों में पिरोते हुए लिखा कि यूरोप अपने सांस्कृतिक और वैचारिक आत्मबोध से इतना कट चुका है कि वह खुद को बचाने का कारण तक भूल गया है।
जर्मनी, स्वीडन और फ्रांस जैसे देश, जो शरणार्थियों को गले लगाने की नैतिक प्रतिस्पर्धा में एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहते थे, अब सांस्कृतिक विघटन, सामाजिक तनाव और पहचान के संत्रास से जूझ रहे हैं। यह सिर्फ़ जनसंख्या का संकट नहीं—यह आत्मा का संकट है।
और यही संकट अब भारत की दहलीज़ पर दस्तक दे चुका है।
बिहार, असम और बंगाल जैसे राज्यों में हाल के वर्षों में जनसंख्या संरचना में ऐसे बदलाव देखे गए हैं, जिनकी अनदेखी केवल राजनीतिक सुविधा के कारण की जा रही है।
बिहार में, चुनाव आयोग की Special Intensive Revision (SIR) प्रक्रिया में 7.9 करोड़ मतदाताओं में से 2.9 करोड़ को पुनः सत्यापन के लिए चुना गया—एक ऐसी कवायद जिसे विपक्ष ने ‘एनआरसी की परछाईं’ कहकर खारिज कर दिया, जबकि इसका वास्तविक उद्देश्य मतदाता सूची को फर्जी नामों, मृत व्यक्तियों और अवैध प्रवासियों से मुक्त करना है।
असम में बांग्लादेशी घुसपैठ के आंकड़े वर्षों से राजनीति और सुरक्षा दोनों का हिस्सा हैं। NRC की कवायद ने 19 लाख लोगों को संदिग्ध नागरिक माना, पर आगे की कार्यवाही अधर में है।
बंगाल में सीमावर्ती जिलों में मुस्लिम जनसंख्या अनुपात 60% से ऊपर जा चुका है, और फर्जी दस्तावेज़ों के ज़रिये अवैध प्रवासियों के वोट डालने की आशंका पर बार-बार उंगली उठती रही है।
*क्या भारत यूरोप की तरह अपनी पहचान खोने की राह पर है?*
Douglas Murray बताते हैं कि यूरोप का पतन केवल बाहरी आक्रमण से नहीं हुआ, बल्कि भीतर की चुप्पी और राजनीतिक शर्मिंदगी ने उसकी आत्मा को खोखला किया। भारत में भी यही संकट आकार ले रहा है—जहाँ पहचान की रक्षा की बात करना अक्सर ‘ध्रुवीकरण’ कहकर चुप करा दिया जाता है।
जब सीमाएँ केवल भौगोलिक न रहें, और नागरिकता केवल कागजों पर रह जाए, तब लोकतंत्र गणना तो करता है, पर गिनती में विश्वास नहीं बचा पाता। मतदाता सूची का पवित्र होना किसी वर्ग को निशाना बनाने की रणनीति नहीं, बल्कि राष्ट्र को पारदर्शी और उत्तरदायी बनाने का न्यूनतम मानक है।
भारत में जनसांख्यिक परिवर्तन को लेकर चर्चा अक्सर राजनीतिक ध्रुवीकरण के डर से रोकी जाती है। लेकिन यह सवाल दलों या धर्मों का नहीं—यह न्याय, संतुलन और सामाजिक विश्वास का है।
अगर बांग्लादेशी घुसपैठ और रोहिंग्या शरणार्थी केवल मानवीय संकट हैं, तो उनसे जुड़े राजनीतिक फायदे क्यों उठाए जाते हैं?
1971 में शरण देना मानवीय था, लेकिन जब वह वोट बैंक बन जाए, तो वह राजनीति की रणनीति बन जाता है—और यही क्षण लोकतंत्र की आत्मा को मार डालता है।
भारत को Murray की चेतावनी सुननी चाहिए—सिर्फ़ इसलिए नहीं कि यूरोप की गलती दोहराने से बचा जा सके, बल्कि इसलिए कि भारत स्वयं को जान सके।
हमारी विविधता केवल सहनशीलता से नहीं, सुनियोजित संरचना और नागरिकता के स्पष्ट बोध से संभव है।
मतदाता सूची की शुद्धता पर सवाल करना लोकतंत्र को मजबूत करने का संकेत है—न कि उसे कमजोर करने का।
पहचान वह आईना है जिसमें राष्ट्र खुद को देखता है। जब आईना धुंधला हो जाए, तो चेहरा नहीं, अस्तित्व खोने लगता है।
भारत को यह चेहरा साफ़ रखना होगा—क्योंकि यही उसका भविष्य है।