दिल्ली: भारत में भूजल प्रदूषण एक गंभीर पर्यावरणीय और स्वास्थ्य संकट बन चुका है, जो लाखों लोगों के जीवन को प्रभावित कर रहा है। के अनुसार, देश में 85% ग्रामीण पेयजल और 65% सिंचाई जल भूजल पर निर्भर है, लेकिन यह संसाधन अब जहरीले रसायनों और भारी धातुओं जैसे आर्सेनिक, फ्लोराइड, नाइट्रेट, और यूरेनियम से दूषित हो रहा है। यह प्रदूषण औद्योगिक अपशिष्ट, कृषि रसायनों, और अपर्याप्त सीवेज प्रबंधन के कारण बढ़ रहा है।भूजल में नाइट्रेट की मात्रा 2017 से 2023 तक 359 से 440 जिलों में बढ़ी है, जो 56% जिलों को प्रभावित कर रही है। आर्सेनिक और फ्लोराइड का उच्च स्तर राजस्थान, हरियाणा, और बिहार जैसे राज्यों में स्वास्थ्य जोखिम पैदा कर रहा है। इससे कैंसर, किडनी रोग, और बच्चों में ‘ब्लू बेबी सिंड्रोम’ जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं।
उदाहरण के लिए, कानपुर और वापी में बच्चों में रक्त में सीसे की उच्च मात्रा पाई गई है।नियामक व्यवस्था की कमजोरी, जैसे जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 की अपर्याप्तता, और केंद्रीय भूजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) की सीमित शक्तियां, इस संकट को और गहरा रही हैं। समाधान के लिए सामुदायिक स्तर पर आर्सेनिक और फ्लोराइड हटाने की प्रणालियां, शून्य तरल निर्वहन (जेडएलडी) नीतियां, और जैविक खेती को बढ़ावा देना आवश्यक है। साथ ही, पंचायतों और जल उपयोगकर्ता समूहों की भागीदारी से नागरिक-केंद्रित जल प्रबंधन को मजबूत करना होगा। यह संकट केवल पर्यावरणीय नहीं, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल है, जिसके लिए तत्काल और समन्वित कार्रवाई की जरूरत है।