गुवाहाटी । जब दक्षिण एशिया की सियासी ज़मीन डोनाल्ड ट्रम्प की बेतुकी और खुदगर्ज़ नीतियों से हिल रही है—कभी कश्मीर पर मध्यस्थता के झूठे दावे, तो कभी युद्धविराम की आड़ में हथियारों की बिक्री का सौदा—तो भारत और चीन को अब आपसी तनातनी छोड़कर साझा डिप्लोमेसी यानी सहयोग आधारित कूटनीति की राह पर बढ़ना चाहिए।
ट्रम्प का लेन-देन पर आधारित (transactional) रवैया, जिसमें टैरिफ और संरक्षणवादी मांगें शामिल हैं, दक्षिण एशिया को फायदे के लिए जंग का मैदान बना सकता है। पाकिस्तान और चीन पर उनकी लगातार बदलती बयानबाज़ी ने पहले ही तनाव की आग को हवा दी है।
नई दिल्ली और बीजिंग को चाहिए कि वे $135 बिलियन डॉलर के व्यापारिक रिश्तों और इलाके में अमन व स्थिरता की साझा दिलचस्पी को मज़बूत बनाकर बाहरी ताकतों की दखलअंदाज़ी को रोकें। आतंकवाद के खिलाफ साझा कार्यनीति, इंफ्रास्ट्रक्चर विकास, और व्यापार में सहयोग जैसे कदम अमेरिकी दखल और फूट डालो, राज करो की साजिश को बेअसर कर सकते हैं।
पब्लिक टिप्पणीकार प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी कहते हैं, “भारत-चीन के बीच सीमा विवाद, खासकर LAC (Line of Actual Control) पर, आज भी आपसी संबंधों में एक सीरियस जख्म की तरह मौजूद है। 1962, 1967, डोकलाम और 2020 के गलवान संघर्ष जैसी घटनाएं बताती हैं कि लंबे समय तक टकराव किसी के हक़ में नहीं है। सीमा विवाद का शांति पूर्ण समाधान ही इलाके में पायदार अमन और बाहरी हस्तक्षेप से आज़ादी की राह खोल सकता है—खासकर अमेरिका जैसी ताक़तों से, जो क्षेत्रीय अस्थिरता से अपने फायदे के रास्ते तलाशती हैं।”
सेना के पूर्व अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल (डॉ.) राजेश चौहान, जो कई सैन्य अभियानों में अहम भूमिका निभा चुके हैं, कहते हैं, “भारत और चीन के बीच पूर्ण युद्ध दोनों मुल्कों के लिए तबाही का पैग़ाम होगा। भारत जो वैश्विक शक्ति बनने की राह पर है, वो रास्ता पटरी से उतर जाएगा। चीन, जिसकी आर्थिक और सैन्य ताकत मज़बूत है, वह भी ताइवान जैसे मुद्दों और पड़ोसी मुल्कों से टकरावों के चलते खुद मुश्किल में है। जंग सिर्फ इंसानी जानें ही नहीं लेगी, बल्कि मुल्कों की तरक्की को दशकों पीछे धकेल देगी।”
राजनीतिक विश्लेषक वेंक सुब्रमण्यम चेताते हैं, “यूक्रेन-रूस युद्ध से सबक लेना चाहिए। पश्चिमी वादों के भरोसे यूक्रेन ने अपने हाथ जलाए और आज बर्बादी के अंधेरे में है। अगर भारत को भी बाहरी ताकतें चीन से टकराने को उकसाएं, तो क्या होगा—दो एशियाई ताक़तें एक-दूसरे को तबाह करती रहेंगी, और अमेरिका अपनी हथियार इंडस्ट्री के मुनाफे गिनता रहेगा।”
एक इंटरव्यू में डॉ. चौहान ने कहा, “अमेरिका को चीन के उदय से खतरा है, खासकर इंडो-पैसिफिक में जहां दक्षिण चीन सागर और ताइवान का मुद्दा बेहद संवेदनशील है। भारत को चीन के खिलाफ भड़काकर अमेरिका प्रॉक्सी वॉर की पटकथा लिख सकता है, जैसा उसने यूक्रेन में किया। अमेरिका हथियार देगा, जानकारी बांटेगा, लेकिन सीधे युद्ध में नहीं उतरेगा। नतीजा? भारत पर युद्ध का पूरा बोझ।”
हाल ही में चीन की यात्रा पर गए भारत के रक्षा मंत्री राज नाथ सिंह ने भी माना कि LAC का निर्धारण वक्त की ज़रूरत है। यही सीमा विवाद भारत-चीन रिश्तों की सबसे बड़ी रुकावट है।
भारत ने 1967, डोकलाम और गलवान जैसी झड़पों में साहस दिखाया है, लेकिन स्थायी समाधान ही दीर्घकालिक हितों की रक्षा करेगा। एक मजबूत भारत-चीन रिश्ता अमेरिकी प्रभाव को संतुलित कर सकता है और एशिया को बहुध्रुवीय शक्ति संतुलन (multipolarity) की दिशा में ले जा सकता है।
चीन की सीमांकन पर अनिच्छा हैरान करती है। अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो, तो यह मसला कुछ घंटों में बातचीत से सुलझाया जा सकता है। देरी से सिर्फ अविश्वास बढ़ता है और बाहरी ताक़तों को खेलने का मौका मिलता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के पास एक ऐतिहासिक मौका है—बाहरी उकसावे से ऊपर उठकर अमन का रास्ता चुनने का। सीमा विवाद का शांतिपूर्ण समाधान अब सिर्फ एक विकल्प नहीं, बल्कि रणनीतिक ज़रूरत बन चुका है, ताकि अमेरिका जैसी बाहरी शक्तियों को दूर रखा जा सके और दोनों मुल्कों के लिए एक उज्जवल भविष्य सुनिश्चित किया जा सके।