महाराजा छत्रसाल का पूरा जीवन स्वाभिमान रक्षा के संघर्ष में बीता। जब केवल बारह वर्ष के थे तब माता पिता का बलिदान हो गया। कभी मामा के यहाँ रहे कभी जंगल में भटके लेकिन अपनी मातृभूमि का मान बचाने का संकल्प कभी न डिगा। और अंत में औरंगजेब जैसे क्रूर आक्रमणकारी को पीछे धकेलकर बुंदेलखंड राज्य की स्थापना की।
ऐसे इतिहास प्रसिद्ध महाराजा छत्रसाल का जन्म 17 जून 1648 को विन्ध्य पर्वत क्षेत्र में बसे ग्राम मोर पहाड़ी चंदेरा में हुआ था। अब यह गांव टीकमगढ़ जिले के अंतर्गत आता है। महाराजा छत्रसाल के पूर्वज ओरछा के शासक रहे हैं लेकिन दिल्ली सल्तनत के लगातार आक्रमणों से जूझते हुये पिता चंपतराय वनों में रहकर अपने स्वाभिमान और राज्य रक्षा केलिये निरंतर संघर्ष कर रहे थे। संघर्ष के इन्हीं दिनों में महाराजा छत्रसाल का जन्म हुआ। जब वे बारह वर्ष के थे तो औरंगजेब की सेना से युद्ध करते हुये माता पिता दोनों का बलिदान हो गया। युद्ध में पति को घायल देखकर महारानी लालकुंवरि ने बड़ी कठिनाई से बालक छत्रसाल को सुरक्षित निकाला और दोनों ने प्राण त्याग दिये।
कोई कल्पना कर सकता है बारह वर्ष के उस बालक की जो मरणासन्न माता पिता की अवस्था में माता के आदेश पर जंगल में निकल गया हो। यहाँ उन सेवाभावी सैनिकों की प्रसंशा भी करनी होगी जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर ब्रह्म वर्षीय बालक छत्रसाल को उनके मामा साहेबसिंह जू देव धंधेरे के पास देलवाड़ा तक सुरक्षित पहुँचाया फिर वे देवगढ़ गये। यहाँ अपने बड़े भाई अंगद जू देव बुन्देला के साथ रहे। उनका विवाह परमार वंश की कन्या महारानी देवकुंअरि जू देव से विवाह किया। यह विवाह पिता ने अपने जीवन काल में ही निश्चित कर दिया था। और महाराज छत्रसाल ने पिता के वचन का पालन किया। पिता के वचन के अनुसार विवाह करके युवा छत्रसाल ने पिता के सम्मान और राज्य रक्षा की ओर कदम बढ़ाया। इसके लिये आवश्यक कुशल सैन्य प्रशिक्षण और संगठित सेना की आवश्यकता थी। इसके लिये वे जयपुर गये और अपने बड़े भाई के साथ राजा जयसिंह से मिले। राजा जयसिंह उन दिनों मुगल बादशाह औरंगजेब के सेनानायक थे। राजा जयसिंह ने दोनों भाइयों को अपनी सेना से जोड़ लिया एक एक छोटी टुकड़ी का प्रभारी बना दिया। युवा छत्रसाल को यहाँ दो अवसर मिले। एक तो सैन्य प्रशिक्षण और दूसरा औरंगजेब से सुरक्षा। सैन्य प्रशिक्षण लेना प्रारंभ कर दिया। इसी बीच ने औरंगजेब ने राजा जयसिंह को दक्षिण के अभियान पर भेजा। छत्रसाल भी उनके साथ इस अभियान पर गये। मई 1665 में बीजापुर युद्ध में महाराज छत्रसाल जू देव ने असाधारण वीरता दिखायी। वे जिस ओर गये वहाँ सेना को विजय मिली। वस्तुतः यह उनके जीवन का एक प्रशिक्षण और अपने पैर मजबूत करने का समय था। वे मुगलों की कुटिलता और क्रूरता दोनों से परिचित थे। इसलिये सैनिकों के बीच उन्होंने एक ऐसा समूह तैयार कर लिया था जो उनके साथ बुन्देलखण्ड चल सके।
अपनी दक्षिण यात्रा के दौरान 1668 में महाराज छत्रसाल की शिवाजी महाराज से भेंट हुई। इस भेंट का विवरण इतिहास में तो नहीं मिलता लेकिन इसके बाद घटे घटनाक्रम से स्पष्ट है कि इस भेंट में मंत्रणा क्या हुई होगी। वर्ष 1670 में महाराज छत्रसाल जू देव बुन्देला अपनी जन्मभूमि लौट आये। उन्होंने बुंदेलखंड भूमि की स्थिति भिन्न देखी। संपूर्ण क्षेत्र में विध्वंस की स्थिति थी। उनके लौटते ही समूचे जन सामान्य ने उनकी ओर से आशा भरी दृष्टि से देखा और संघर्ष करने का आव्हान किया। जन सामान्य में एक गीत बड़ा प्रसिद्ध है-
करो देस के राज छतारे
हम तुम तें कबहूं नहिं न्यारे।
दौर देस मुगलन को मारो
दपटि दिली के दल संहारो।
तुम हो महावीर मरदाने
करिहो भूमि भोग हम जाने।
जो इतही तुमको हम राखें
तो सब सुयस हमारे भाषें।
जन भावनाओं के अनुरूप उन्होंने संघर्ष केलिये अपने रिश्तेदारों से संपर्क किया। लेकिन अधिकांश रिश्तेदारों ने मुगलों के आधीनता स्वीकार कर ली थी। महाराज छत्रसाल ने सबसे मिलकर संगठित संघर्ष का प्रस्ताव रखा पर कोई मुगल सल्तनत से भिड़ने को तैयार न हुआ। फिर उन्होंने दतिया नरेश शुभकरणजी और ओरछा नरेश सुजान सिंह जूदेव से संपर्क किया। लेकिन एकजुट होकर संघर्ष के लिये तैयार न हुये। तब महाराज छत्रसाल ने अपने बड़े भाई के साथ जन सामान्य को एकजुट करके स्वयं संघर्ष करने का संकल्प लिया। उन्होंने सबसे पहले 5 घुड़सवारों और 25 पैदल सैनिकों की एक छोटी सैन्य टुकड़ी तैयार की और ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की पंचमी दिन रविवार को अपने संघर्ष का उद्घोष कर दिया।
यहीं से आरंभ होता है उनका स्वाभिमान संघर्ष। कभी आगे बढ़े कभी रणनीति के तहत पीछे हटकर कुछ समझौते भी किये। लेकिन समर्पण नहीं किया और अंत में औरंगजेब को पीछे हटना पड़ा। महाराज छत्रसाल ने अपनी जन्मभूमि को सुरक्षित कर लिया था। गर्भकाल से लेकर बाल्यकाल तक उन्होंने स्वाभिमान का बड़ा संघर्ष देखा था। यही भाव उनके उनकी प्रत्येक श्वाँस में था। इसकी झलक उनके पूरे जीवन में। निरंतर संघर्ष से ही उन्होंने अपना साम्राज्य स्थापित किया था। उनके साम्राज्य की सीमा और उनके शौर्य के बारे में एक दोहा प्रसिद्ध है-
“इत यमुना, उत नर्मदा,
इत चम्बल, उत टोंस।
छत्रसाल सों लरन की,
रही न काहू हौंस।।”
अर्थात यमुना, नर्मदा, चंबल और टोंस नदियों के बीच के क्षेत्र में महाराज छत्रसाल का राज्य स्थापित था और उनसे युद्ध करने का साहस मुगलों में बचा ही नहीं था।
महाराज छत्रसाल योद्धा होने के साथ एक कुशल प्रशासक भी थे। प्रजा की सुरक्षा सम्मान और हित उनकी प्राथमिकता में थे। वे समाज जीवन में शस्त्र और शास्त्र दोनों को आवश्यक मानते थे। उनके दरबार में विद्वानों और कवियों का आदर होता था। महाकवि भूषण द्वारा रचित ‘छत्रसाल-दशक’ उनकी वीरता का साहित्यिक प्रमाण है।
समय अपनी गति से आगे बढ़ा। बुंदेलखंड एक सशक्त राज्य के रूप में स्थापित हुआ। उन्होंने ही छतरपुर नगर की स्थापना की। महोबा को राजधानी बनाया। उनका पूरा जीवन धर्म की स्थापना और संस्कृति एवं स्वाभिमान की रक्षा में बीता। 20 दिसंबर 1731 को 83 वर्ष की आयु में उन्होंने जीवन की अंतिम श्वाँस ली। उनकी गणना महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज परंपरा में की जाती है। वे ऐसे इतिहासपुरुष थे जिन्होंने विषम परिस्थिति में जीवन संघर्ष आरंभ किया और अपने स्वाभिमान का राज्य स्थापित किया। पुण्यतिथि पर उनका स्मरण साहस, स्वाभिमान, संघर्ष कर्तव्यबोध का आत्मचिंतन करना और भविष्य की यात्रा आरंभ करना है।



