धीप्रज्ञ द्विवेदी
दिल्ली । भारतीय ज्ञान परंपरा भारत की प्राचीन ज्ञान और शिक्षा की एक विविध प्रणाली है, जिसमें विज्ञान, कला, दर्शन, गणित, खगोलशास्त्र, चिकित्सा और व्याकरण जैसे कई क्षेत्र शामिल हैं।यह वेदों, उपनिषदों और पुराणों से प्रारम्भ होकर संतों और विभिन्न शास्त्रों के माध्यम से विकसित हुई है। यह भारत की हजारों वर्षों में विकसित हुयी बहुआयामी बौद्धिक विरासत है। इस परंपरा का विकास वेद, उपनिषद, पुराण, धर्मशास्त्र तथा संत साहित्य के माध्यम से हुआ, और इसका उद्देश्य केवल बौद्धिक उन्नयन ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आत्मिक जागरण रहा है। हम कह सकते हैं कि भारतीय ज्ञान परंपरा केवल शिक्षा की प्रणाली नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन पर आधारित एक व्यापक ज्ञान-संहिता है। इसकी जड़ें वेद, उपनिषद, दर्शन, आयुर्वेद, खगोल विज्ञान, गणित, नाट्यशास्त्र, और कला-विज्ञान तक फैली हैं। यह परंपरा ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जैसे सार्वभौमिक सिद्धांतों पर आधारित है। इसका लक्ष्य ज्ञान को केवल रोजगार का साधन नहीं, बल्कि आत्मबोध, सामाजिक समरसता, और विश्वकल्याण का माध्यम बनाना है। इस प्राचीन सांस्कृतिक और बौद्धिक धरोहर का संरक्षण और पुनर्जीवन आवश्यक है। समकालीन समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं उसके साथ जुडेंशिक्षा संगठनों ने इस परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए संगठित प्रयास किए हैं, और इन प्रयासों के परिणाम भारत सरकार की नई शिक्षा नीति में भी परिलक्षित हो रही हैं। आज से कुछ वर्ष पहले तक अकादमिया में भारतीय ज्ञान परम्परा पर चर्चा होना एक प्रकार से असम्भव था और इसे पिछडेपन का प्रतीक माना जाता था। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवम अन्य समान विचार वाले संगठनों के लगातार समंवित प्रयासों से सम्भव हो पाया है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण और योगदान
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ) भारतीय संस्कृति और मूल्यों के पुनरुद्धार का एक वैचारिक आंदोलन है। संघ का मूल उद्देश्य है— राष्ट्र जीवन का पुनर्निर्माण भारतीय मूल्यों की नींव पर। अतः भारतीय ज्ञान परंपरा इसके वैचारिक केंद्र में है।
वैचारिक दृष्टिकोण: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य केवल रोज़गार नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चरित्र निर्माण और सांस्कृतिक चेतना का जागरण है। इसके लिए “स्व” यानी आत्मनिर्भर भारत और पंचमुखी विकास—शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, आत्मिक, चारित्रिक—की संकल्पना पर बल दिया जाता है।
इसके लिये विविध शैक्षिक संस्थाएँ स्थापित की गयी और पाठ्यक्रम निर्धारित किये गये। ‘विद्या भारती’, ‘भारतीय शिक्षण मंडल’ आदि की स्थापना कर भारतीय परंपराओं को पाठ्यक्रमों में शामिल किया गया है। इन पाठ्यक्रमों में योग, आयुर्वेद, भारतीय गणित, भारतीय विज्ञान, सांस्कृतिक मूल्यों, और लोक साहित्य को स्थान दिया गया।
नई शिक्षा नीति (NEP 2020): नीति निर्माताओं पर प्रभाव डालकर भारतीय ज्ञान प्रणाली (Indian Knowledge System, IKS) की साझेदारी को बढ़ाया गया है। अब शोध, प्रशिक्षण, और पाठ्यक्रम में भारतीय दृष्टिकोण प्रमुख हो रहा है।
सांस्कृतिक पुनरुद्धार: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्थानीय भाषाओं, परंपराओं, धार्मिक अनुष्ठानों, और सामुदायिक संगठनों के माध्यम से सांस्कृतिक एकता व राष्ट्रीय गौरव का प्रचार कर रहा है। इसके अतिरिक्त अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सेवा भारती इंटरनेशनल तथा ‘अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद्’ जैसी संस्थाओं के माध्यम से यह कार्य किया जा रहा है।
पंचमुखी विकास की अवधारणा एवं “स्व” बोध: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शैक्षिक दृष्टिकोण का विस्तार
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ) के शिक्षा-विंग, विशेषकर विद्या भारती, भारतीय ज्ञान परंपरा के संदर्भ में ‘पंचमुखी विकास’ की अवधारणा को प्रमुखता देता है। यह मॉडल संपूर्ण व्यक्ति-विकास का लक्ष्य रखता है, जो पश्चिमी/आधुनिक शिक्षा के केवल उपयोगितावादी दृष्टिकोण से अलग है।
पंचमुखी विकास की संकल्पना
‘पंचमुखी विकास’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा स्वीकृत एक समग्र शैक्षिक दृष्टिकोण जो अपने मूल स्वरूप में भारतीय ज्ञान परम्परा से ही मिली है, जिसमें पाँच प्रमुख आयाम शामिल हैं:
शारीरिक विकास: स्वास्थ्य, शक्ति और अनुशासन का निर्माण। योग, प्राणायाम तथा पारंपरिक आर्य व्यायाम इसका आधार हैं। विद्यार्थी में ऊर्जा, संयम और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता लाने पर बल।
बौद्धिक विकास: आलोचनात्मक सोच और रचनात्मकता का विकास—परंतु भारतीय सांस्कृतिक नींव पर आधारित। ‘ज्ञान का स्वदेशीकरण’ यानी विचारों में आत्मनिर्भरता और संस्कृति-सम्मिलन।
सामाजिक विकास: समाज के प्रति जिम्मेदारी, सेवा-भाव और सामुदायिक एकता। ‘सेवा’ जैसे कार्यक्रम छात्रों में समाजोत्थान, सहयोग व सामाजिक समरसता के भाव उत्पन्न करते हैं।
आत्मिक विकास: आंतरिक शांति, नैतिकता और अपने वास्तविक स्वरूप की अनुभूति। यह स्व-बोध और चरित्र निर्माण का आधार है—राष्ट्रीय, धार्मिक और मानवीय मूल्यों के साथ।
चारित्रिक विकास: सत्यनिष्ठा, साहस, ईमानदारी, जिम्मेदारी और दृढ़ता जैसे गुणों का निर्माण—यही शिक्षा का परम लक्ष्य माना जाता है। विद्यार्थी में सतत नैतिकता और नेतृत्व क्षमता विकसित करना।
केस स्टडी: विद्या विकास परियोजना
विद्या विकास परियोजना उत्तर कर्नाटक के पिछड़े क्षेत्रों में शिक्षा एवं संस्कृति से वंचित बच्चों के लिए सेवा भारती ट्रस्ट द्वारा संचालित किया गया है।
इसमें बच्चों को विद्यालय योग्य बनाना, उनकी पढ़ाई के साथ स्वच्छता एवं स्वास्थ्य का प्रशिक्षण दिया जाता है, नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थियों का चारित्रिक निर्माण।
यह परियोजना न केवल शैक्षिक विकास पर बल देती है बल्कि उनकी छिपी प्रतिभाओं और कौशलों की पहचान कर उन्हें निखारने का काम भी करती है साथ ही ड्रॉपआउट कम करना और समुदाय के साथ जुड़ाव कायम करने की भी गतिविधियां चलाती है। इसके अतिरिक्त शिक्षकों के प्रशिक्षण और महिला सशक्तिकरण पर भी बल दिया जाता है।
परिणाम:
सैकड़ों केंद्रों में बच्चों की शिक्षा, प्रतिभा-निखार और समाजसेवा के कार्य सफल रहे।
अनेक छात्र CBSE व राज्य बोर्ड परीक्षाओं में अव्वल आए, और UPSC जैसी प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में भी सफल हुए।
विद्या भारती के पूर्व छात्र समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सेवा कर रहे हैं।
यह केस स्टडी पंचमुखी विकास के हर पक्ष जैसे शारीरिक (स्वास्थ्य/व्यायाम), बौद्धिक (ज्ञान-संकलन), सामाजिक (सेवा/समुदाय), आत्मिक (नैतिकता/ध्यान) और चारित्रिक (नेतृत्व/ईमानदारी) के समग्र विकास को रेखांकित करती है।
“स्व” बोध: आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक जड़ें
पंचमुखी विकास के केंद्र में ‘स्व’ (Self) या ‘आत्म’ का बोध है।
“स्व” का तात्पर्य: एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का निर्माण, जो बौद्धिक रूप से स्वतंत्र, विचारों में आत्मनिर्भर, और सांस्कृतिक रूप से अपनी जड़ों से जुड़ी हो। परिणामत: विद्यार्थियों में आत्मबोध, आत्मविश्वास और देश के प्रति जिम्मेदारी का भाव विकसित होता है, जिससे वे “आत्मनिर्भर भारत” के रचनाकार बनें।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘पंच परिवर्तन’ जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से स्वदेशी सोच, समाज लाभ, पर्यावरण सरंक्षण, कुटुंब प्रबोधन और नागरिक कर्तव्य को आत्मनिर्भर भारत के निर्माण की दिशा में प्राथमिकता दी है।
शैक्षिक दृष्टिकोण और वर्तमान महत्व
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पश्चिमी शिक्षा प्रणाली को एक ऐसी प्रणाली के रूप में देखता है जो मनुष्य को मानव नहीं बल्कि भावना शुन्य मशीन बना देती है, क्योंकि वह व्यक्ति को केवल उपार्जन और उपयोगिता तक सीमित करती है; जबकि पंचमुखी विकास का उद्देश्य संपूर्ण मानवाधिकार, चरित्र, और समाजोत्थान है।
विद्या भारती एवं अन्य शिक्षा-संगठनों में इस मॉडल का पाठ्यक्रमों, दैनिक गतिविधियों और सामाजिक सेवा में स्पष्ट प्रयोग है। विद्यार्थियों में यह दृष्टिकोण सामर्थ्य, संस्कृति-संबद्धता, एवं समाज-सेवा के भाव पैदा करता है। चरित्र, सेवा, और आत्मनिर्भरता आधुनिक भारत की पहचान बनती है।
पंचपदी शिक्षण पद्धति
विद्या भारती के विद्यालयों में पंचपदी शिक्षण पद्धति को अपनाया गया है, जो भारतीय मनोविज्ञान और मनुष्य के भीतर स्थित ज्ञान को जाग्रत करने वाली प्रक्रिया है. यह प्रणाली पूर्ण रूप से भारतीय ज्ञान परमपरा पर आधारित है।
पंचपदी पद्धति के पाँच चरण:
अधीति (Adhiti): विषय का अधिग्रहण—सुनना, देखना, पढ़ना, अनुभव करना।
बोध (Bodh): विषय की गहराईयों को समझना, आत्मसात करना, विश्लेषण और संश्लेषण करना।
अभ्यास (Abhyas): सीखी गई बातें बार-बार दोहराकर अपने व्यवहार में लाना।
प्रयोग (Prayog): सीख को जीवन में या समस्या के समाधान में व्यावहारिक प्रयोग करना।
प्रसार (Prasar): अर्जित ज्ञान का विस्तार करना, समाज में साझा करना, दूसरों को प्रेरित करना।
यह विधि ज्ञानार्जन को केवल सूचना स्मृति तक सीमित नहीं रखती, बल्कि व्यवहार, तर्क, अनुभव और समाज तक ले जाती है—जिससे शिक्षा जीवन का अभिन्न अंग बनती है।
अत: हम कह सकते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय ज्ञान परम्परा के पुनरूथान के लिये प्रतिबद्ध है।
(लेखक पर्यावरण विज्ञान में स्नात्कोत्तर हैं, प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिये पर्यावरण विज्ञान पढाते हैं और विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में पर्यावरण और स्वास्थ्य सम्बंधी आलेख प्रकाशित होते रहे हैं। लेखक शोध पत्रिका “सभ्यता सम्वाद के कार्यकारी सम्पादक हैं, तथा स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था स्वस्थ भारत के संस्थापक न्यासी हैं।)



