भाषा नीति पर राज्यों के मुख्यमंत्रियों में मतभेद

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रुसेन कुमार

रायपुर: हमारे देश में भाषाई विविधता है। 1,600 से अधिक भाषाएँ और बोलियाँ प्रचलित हैं। भाषाई बहुलता शिक्षा नीति को जटिल और संवेदनशील बना रही है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) में शामिल किया गया तीन-भाषा फार्मूला विद्यार्थियों को तीन भाषाएं सीखने का अवसर देता है, जिनमें कम से कम दो भारतीय भाषाएँ होती हैं —एक क्षेत्रीय भाषा, फिर हिंदी और अंग्रेज़ी।

यह फार्मूला एक बार और राजनीतिक विवाद का केंद्र बन गया है। हाल के दिनों में विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इस पर अलग-अलग रुख अपनाए हैं। भाषाएँ सांस्कृतिक गर्व और राजनीतिक समीकरणों में शामिल हो गई हैं । यह बहस राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय पहचान के बीच टकराव बनती नजर आ रही हैं, क्योंकि कुछ राज्य इसका सीधा विरोध कर रहे हैं, जबकि कुछ बहुभाषिक शिक्षा को बढ़ावा दे रहे हैं।

दक्षिणी राज्यों का विरोध: तमिलनाडु की दो-भाषा नीति

तमिलनाडु इस फार्मूले का प्रखर विरोधी रहा है। राज्य 1968 से दो-भाषा नीति (तमिल और अंग्रेज़ी) का पालन कर रहा है और केंद्र सरकार के इस प्रयास को अपनी भाषाई पहचान पर खतरा मानता है। मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने एनईपी के भाषा प्रावधान को लागू नहीं करने की बात कही है और इसे सांस्कृतिक अस्तित्व और राज्य अधिकार का मामला बताया है। उन्होंने विधानसभा में कहा, “ये दो भाषाएँ ही पर्याप्त हैं… हम किसी भी प्रभुत्वशाली भाषा को तमिल को नष्ट करने की अनुमति नहीं देंगे।”

21 अप्रैल को स्टालिन ने एक्स पर लिखा: “हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में थोपने पर जबरदस्त विरोध के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस अब कह रहे हैं कि राज्य में केवल मराठी अनिवार्य है। यह गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपने के खिलाफ जनता की व्यापक निंदा से उनकी घबराहट को दर्शाता है।”

कर्नाटक में भी नेताओं ने हिंदी थोपने की आलोचना की है, भले ही वहाँ अभी तक तीन-भाषा प्रणाली लागू है। दक्षिण भारत में तमिलनाडु की खुली अस्वीकृति से लेकर कर्नाटक में बढ़ते विरोध तक, यह रुख क्षेत्रीय गौरव और सांस्कृतिक सरोकारों से प्रेरित दिखाई पड़ रहे है।

बहुभाषिकता का समर्थन: हिंदी भाषी और अन्य राज्य

वहीं दूसरी ओर, कई हिंदीभाषी और भाजपा शासित राज्य इस फार्मूले का समर्थन करते दिखाई दे रहे हैं। वे इसे सभी भाषाओं का सम्मान करने वाली एकीकृत नीति मानते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस पक्ष के प्रमुख चेहरा हैं। वे कहते हैं, “यूपी में हम तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, बंगाली और मराठी पढ़ा रहे हैं – क्या इससे यूपी छोटा हो गया है?” वे कहते हैं कि विभिन्न भाषाओं को अपनाने से राज्य में नए अवसर पैदा हुए हैं और आलोचकों पर “संकीर्ण राजनीति” करने का आरोप लगाते हैं।

महाराष्ट्र में हिंदी थोपने की कोशिश पर यू-टर्न

दबाव में घिरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस ने 17 अप्रैल  को हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य बनाने का फैसला वापस ले लिया। महाराष्ट्र के स्कूल शिक्षा मंत्री दादाजी भूसे ने कैबिनेट बैठक के बाद घोषणा की, “अनिवार्य शब्द को हटाया जाएगा… तीन-भाषा फार्मूला बरकरार रहेगा, लेकिन यदि किसी कक्षा में पर्याप्त छात्र कोई अन्य भाषा चाहते हैं, तो स्कूल को वह विकल्प देना होगा।” सरकार के 16 अप्रैल के आदेश के तुरंत बाद राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हलकों से भारी विरोध हुआ। यह निर्णय ऐसे समय में आया जब तमिलनाडु पहले ही इसी विषय पर विरोध कर रहा था, जिससे महाराष्ट्र सरकार की स्थिति और कठिन हो गई।

विविध रास्ते और जन प्रतिक्रिया

इन दो ध्रुवों के बीच कुछ राज्य अपना स्वतंत्र रास्ता चुन रहे हैं। पश्चिम बंगाल ने तीन-भाषा फार्मूला को लचीलापन देते हुए लागू किया है, जिससे उसे राजनीतिक समर्थन भी मिला है। तृणमूल कांग्रेस के एक विधायक ने कहा, “यह फार्मूला छात्रों को क्षेत्रीय और राष्ट्रीय भाषाएँ सीखने में सक्षम बनाता है,” और हर भाषा को उचित सम्मान देता है। इस नीति के स्थानीयकरण के कारण राज्य में गंभीर भाषा विवाद नहीं हुआ, और बहुभाषिक शिक्षा को लेकर आम जनता का दृष्टिकोण सकारात्मक है, जब तक बंगाली भाषा को प्रमुखता दी जाती है।
कुल मिलाकर, नीति का कार्यान्वयन राज्यों के हाथों में है, और वे इसे अपनी भाषाई संवेदनशीलता के अनुरूप अपनाने की राह तलाश रहे हैं।

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रुसेन कुमार

रुसेन कुमार

रुसेन कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं। मोटिवेशनल स्पीकर हैं। इन दिनों कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी पर देश भर में कार्यक्रम कर रहे हैं

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