विधान सभा चुनाव में बिहार को कृत्रिम बुद्धिमता से समझने की हुई भारी भूल

Bihar-700x525.png.webp

विश्व गौरव

नोएडा। बिहार चुनाव के करीब 3 महीने पहले देश के एक बड़े मीडिया संस्थान में ‘बिहार हेड’ के लिए इंटरव्यू चल रहा था। फाइनल राउंड से पहले संस्थान के समूह संपादक, डिजिटल हेड और उस अखबार के संपादक के साथ बातचीत होनी थी। HR ने कहा कि बिहार के बारे में ठीक से पढ़ लीजिएगा। मैंने कहा कि बिहार में कभी काम नहीं किया है लेकिन फील्ड में रहते हुए, UP-दिल्ली-पश्चिम बंगाल में चुनावों को कवर करने के साथ कोविड की ग्राउंड रिपोर्टिंग के दौरान बहुत से बिहारियों से मिलना हुआ, उनसे बातचीत के आधार पर कह सकता हूं कि बिहार को पढ़कर नहीं समझा जा सकता। बिहारियों के लिए बिहार एक इमोशन है, उसे उनके स्तर पर जाकर ही महसूस किया जा सकता है, इसलिए जितना महसूस किया है, उसी आधार पर बात करूंगा।

खैर, इंटरव्यू हुआ। इंटरव्यू में मुझसे पूछा गया कि बिहार में अलग तरह का चुनाव होता है, वहां बाकी राज्यों की तरह चुनाव नहीं होता, आपने बिहार में कभी काम नहीं किया, मैनेज कर पाएंगे? क्या सोचते हैं बिहार के बारे में?
मैंने कहा- बिहार का चुनाव अब तक कैसा भी हुआ हो, लेकिन इस बार बिहार में ऐतिहासिक चुनाव होगा। लोग जाति से पहले भी काफी कुछ सोचेंगे।

संपादक महोदय ने बड़े हिकारत भरे भाव के साथ कहा- बिहार में जाति चलती है।
मैंने कहा- जाति बिहार में एक फैक्टर हो सकता है, लेकिन वह आगामी चुनाव में एकमात्र फैक्टर नहीं हो सकता।
उन्होंने कहा- आप प्रशांत किशोर की भाषा बोल रहे हैं, आपको बिहार की बिलकुल समझ नहीं है। आपको लगता है कि PK सरकार बना लेंगे?

मैंने कहा- PK अपनी अनार्जित वैल्यू खत्म कर रहे हैं। सोशल मीडिया मैनेजमेंट से सरकारें नहीं बनतीं, खासकर सोशल मीडिया के दौर में। अरविंद केजरीवाल को लोग देख चुके हैं, असल में बिहार वाले दिल्ली में रहकर अरविंद को झेल चुके हैं। अब इतनी जल्दी दूसरा कोई वादों के भरोसे नहीं जीत सकता। अरविंद ने लोगों के, युवाओं के सपनों के साथ खिलवाड़ किया था, उससे पूरे देश में युवा अब नए वादों पर कम से कम 50 साल भरोसा नहीं करेंगे। रही बात जातियों की तो वह इसलिए अब कोई बड़ा फैक्टर नहीं दिख रहा है, क्योंकि बिहार के लोग जब दूसरे राज्यों में जाकर नौकरी करते हैं तो उन्हें अपनी जाति विशेष का कोई लाभ नहीं मिलता। गांव में रहने वाले उनके बूढ़े माता-पिता और छोटे बच्चों को लाभ मिलता है सरकारी योजनाओं का। सोशल मीडिया के इस युग में अगर प्रदेश सरकार या केन्द्र सरकार उनके बुरे वक्त में कुछ भी सहयोग कर रही है तो वह सहयोग उनके लिए संजीवनी का काम करता है। कोई माने या ना माने, लेकिन छोटे स्तर का सरकारी काम लोगों की सोच बदल सकता है और बदल रहा है।

ये सारी बातें मैंने बिहार के लोगों से बातचीत के आधार पर मिले अनुभव को लेकर कही थीं। कोविड में पैदल सड़क के रास्ते घर जाते बिहारियों ने जब UP में प्रवेश किया तो जिस तरह से पुलिस से लेकर स्वयंसेवी संस्थाओं ने संयोजित तरीके से उनकी मदद की, उसने NDA या फिर यूं कहें कि BJP सरकार की छवि में काफी सुधार किया। इसका श्रेय सीएम योगी के भाषणों से अधिक उनके काम को दिया जाना चाहिए। लेकिन इन सबके बीच मूल बात यह है कि मठाधीशी कमरों में बैठकर हो सकती है, लेकिन चुनाव के वक्त जनता का ‘मूड’ उनके लिए किए गए काम से बनता है।

जिस संस्थान में नौकरी के लिए इंटरव्यू हो रहा था, उसके ‘बड़े’ ऑफर को ठुकराकर ‘कुछ और’ करने का निर्णय दो महीने पहले ले लिया था। 14 सालों में डिजिटल वाली लाइन में विशुद्ध पत्रकारिता करने का प्रयास किया। उस वक्त में जब डिजिटल की शुरुआत थी, तब भी ‘बड़े’ वालों को समझाया कि डिजिटल दुनिया पूरा सच नहीं है, आपको समझना पड़ेगा कि लोगों का मन आप ‘क्लिक्स’ और ‘व्यूज’ से नहीं समझ सकते। और आज भी कह रहा हूं, मन तो मन ही है और उसे ‘कृत्रिम बौद्धिकता’ से मापने की कोशिश करोगे तो मात खाओगे।

Share this post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top