बिहार की असली पहचान: लालू के छद्म से दिनकर की ज्योति तक

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पटना। बिहार! यह शब्द सुनते ही मन में क्या उभरता है? चारा घोटाला, लाठी की चमक, भूराबाल साफ करने की वीरता, या लौंडा नाच की ठिठोली? अफसोस, पिछले तीन दशकों से बिहार की छवि एक ऐसे कार्टून में कैद हो गई है, जिसे लालू प्रसाद यादव ने अपनी ठठ्ठी हंसी और राजनीतिक करतबों से गढ़ा। लेकिन सच यह है कि हम वो बिहारी नहीं हैं, जो लालू बताते रहे हैं आपको। हम वो बिहारी हैं, जैसा रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी कविताओं में उकेरा, नागार्जुन ने जन-संघर्षों में जीया, और विद्यापति ने मैथिली की मधुर वाणी में गाया। सच कह रहा हूं भाई, हमारी मुस्कान बुद्ध की शांत मुस्कान है, न कि लालू की ठठाते हुए हंसी की।

लालू ने बिहार को एक स्टिरियोटाइप में बदल दिया। उनकी लाठी, जो कभी चुनावी रैलियों में चमकती थी, कभी हमारी पहचान नहीं रही। हमारी लाठी तो वो थी, जिसे थामकर मोहनदास करमचंद गांधी महात्मा बने। गांधीजी ने अहिंसा की लाठी से साम्राज्य हिला दिया, जबकि लालू की लाठी केवल सत्ता की रक्षा करती रही। हमारी वीरता ‘भूराबाल’ साफ करने में नहीं, बल्कि ‘महावीर’ बनने में है। महावीर स्वामी की जैन परंपरा बिहार की मिट्टी से जुड़ी है, जहां अहिंसा और त्याग की शिक्षा दी जाती है। माटी की कसम खाकर कहता हूं साहब, हम ‘बिहारी टाइप’ भाषा नहीं बोलते। हम मैथिली, भोजपुरी, मगही, अंगिका बोलते हैं – ये हमारी मातृभाषाएं हैं। ‘बिहारी’ भाषा तो बस लालूनुमा लोग गढ़ते हैं, जो हिंदी की विकृत छवि पेश करते हैं।

हम चारा नहीं खाते, गाय-भैंस पालते हैं। ग्रामीण बिहार की अर्थव्यवस्था पशुपालन पर टिकी है, जहां दूध, खेती और परिश्रम जीवन का आधार हैं। लालू के जमाने में चारा घोटाला सुर्खियां बना, लेकिन हम तो सोहर, समदाउन और बटगमनी गाते हैं – ये लोकगीत हैं जो जन्म, विवाह और फसल की खुशी मनाते हैं। हम लौंडा नाच नहीं कराते, जो व्यावसायिक मनोरंजन का रूप है। हम घर नहीं जलाते चाचा, बल्कि सामा-चकेवा और पावनि जैसे त्योहारों में चुगले (बुराइयों) को जलाते हैं। ये रीतियां हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं, जो सदियों से चली आ रही हैं।

लालू हमारे लिए मात्र ‘कंस’ नहीं, जो पशुओं का चारा खा गए। वे बख्तियार खिलजी जैसे हैं, जिन्होंने नालंदा और विक्रमशिला की पुस्तकें जलाईं, ज्ञान की ज्योति बुझाई। लालू ने हमारी पहचान को खा डाला – सभ्यता, संस्कृति, रीति-नीति सबको एक झटके में ‘लालूनुमा’ बना डाला। बिहार प्राचीन काल से ज्ञान का केंद्र रहा। नालंदा विश्वविद्यालय ने विश्व को बौद्ध दर्शन सिखाया, वैशाली गणतंत्र की जन्मस्थली थी। लेकिन लालू के शासन में ‘बथानीटोला’ जैसे नरसंहार हुए, जहां खून की नदियां बहीं। हमारा बिहार तो दिनकर वाला सिमरिया है, जहां गंगा किनारे विद्यापति गाते थे: “बर सुखसार पाओल तुअ तीरे…”। नयन में नीर भरकर हम उसी बिहार को उगना की तरह तलाशते हैं – “उगना रे मोर कतय गेलाह”। उगना, हमारी लोककथा का प्रतीक, जो खोई हुई सभ्यता की खोज है।

आज बिहार फिर उभर रहा है। नीतीश कुमार के नेतृत्व में सड़कें बनीं, शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार हुआ। लेकिन लालू का जिन्न फिर बोतल से बाहर आ गया है। उनकी पार्टी फिर सत्ता की दौड़ में है, पुरानी यादें ताजा कर रही हैं। ठीक है, चारा वापस नहीं आएगा, हम जैसे लोग ‘बेचारा’ ही बने रहेंगे। भविष्य लौटकर नहीं आएगा। लेकिन प्लीज सर, हमारी पहचान लौटा दीजिए! ‘भौंडे बिहारीपना’ की बनाई गई छवि को सदा के लिए बिरसा मुंडा जेल में बंद कर दीजिए। बिरसा मुंडा, आदिवासी क्रांति के नायक, जो अन्याय के खिलाफ लड़े। लालू नामक जिन्न को उसके चारागाह से निकालकर पड़ोसी राज्य के कारागार में भेज दीजिए। त्राहिमाम!

बिहार उसी भारत का हिस्सा है, जहां गंगा बहती है – पवित्रता, ज्ञान और संघर्ष की प्रतीक। दिनकर की ‘रश्मिरथी’ में कर्ण की तरह हम भी योद्धा हैं, नागार्जुन की कविताओं में किसान की तरह संघर्षशील। विद्यापति की प्रेम रसधार हमें मानवीय बनाती है। लालू की विरासत से मुक्त होकर हम नया बिहार गढ़ रहे हैं – आईआईटी, आईआईएम और स्टार्टअप्स का बिहार। लेकिन पहचान की लड़ाई अभी बाकी है। भारतवासियों, तय मानिए, हम वो बिहारी हैं जो विश्व को बुद्ध, अशोक और चंद्रगुप्त दे चुके हैं। लालू का बिहार अतीत है, दिनकर का बिहार भविष्य। आइए, इस पहचान को पुनर्जीवित करें। जय बिहार! जय भारत!

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आशीष कुमार अंशु

आशीष कुमार अंशु

आशीष कुमार अंशु एक पत्रकार, लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता हैं। आम आदमी के सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों तथा भारत के दूरदराज में बसे नागरिकों की समस्याओं पर अंशु ने लम्बे समय तक लेखन व पत्रकारिता की है। अंशु मीडिया स्कैन ट्रस्ट के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं और दस वर्षों से मानवीय विकास से जुड़े विषयों की पत्रिका सोपान स्टेप से जुड़े हुए हैं

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