पटना। बिहार, एक ऐसा राज्य जो अपनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक समृद्धि के लिए जाना जाता है, आज कई विरोधाभासों का केंद्र बना हुआ है। यह आश्चर्यजनक है कि बिहार के जिला मुख्यालयों में जमीन की कीमतें देश के बड़े शहरों और महानगरों के समकक्ष हैं, जबकि वहां बुनियादी सुविधाएं जैसे अच्छे अस्पताल या ठहरने के लिए उचित होटल तक उपलब्ध नहीं हैं। यह स्थिति बिहार के विकास के असंतुलन को दर्शाती है, जहां आर्थिक असमानता और संसाधनों का अभाव स्पष्ट है।
प्रदेश की सामाजिक और आर्थिक विसंगतियां भी चिंताजनक हैं। एक ओर जहां सरकारी अधिकारियों का मासिक वेतन लाख रुपये से कम है, वहीं उनके बच्चे सवा लाख रुपये मासिक फीस वाले स्कूलों में पढ़ रहे हैं। यह विरोधाभास भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन की गहरी जड़ों की ओर इशारा करता है। बिहार की जनता इन मुद्दों से भली-भांति परिचित है, लेकिन बार-बार ठगे जाने के कारण उनका विश्वास टूट चुका है। लोग इतने निराश हो चुके हैं कि वे अब किसी बड़े परिवर्तन की उम्मीद छोड़ चुके हैं और वर्तमान स्थिति को अपनी नियति मान चुके हैं।
इस बीच, प्रशांत किशोर जैसे प्रवासी बिहारी के प्रयासों ने राज्य की राजनीति में हलचल मचा दी है। उनके अभियान और सुधारवादी दृष्टिकोण ने लोगों में चर्चा तो पैदा की है, लेकिन दीर्घकालिक बदलाव का भरोसा अभी भी कमजोर है। बिहार के लोगों की उम्मीदें अब मुख्य रूप से प्रवासी बिहारियों पर टिकी हैं, जो बाहर से नई सोच और ऊर्जा ला सकते हैं। प्रशांत जैसे व्यक्तियों के प्रयास भले ही शुरुआती हों, लेकिन वे बिहार के भविष्य के लिए एक नई दिशा की संभावना को दर्शाते हैं। फिर भी, इस विश्वास को पुनर्जनन करने और ठोस परिवर्तन लाने के लिए लंबा रास्ता तय करना बाकी है।