बिहार की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने पिछले कुछ दशकों में अपनी स्थिति को मजबूत करने में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। 1980 में स्थापना के बाद से, यह पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के वैचारिक समर्थन और रणनीतिक गठबंधनों के बल पर बिहार में एक प्रमुख शक्ति बनकर उभरी है। 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 74 सीटें जीतकर बिहार विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में अपनी स्थिति पक्की की, जबकि उसका सहयोगी दल जनता दल (यूनाइटेड) (जदयू) 43 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर रहा। फिर भी, 2024 के लोकसभा चुनाव और हाल के उपचुनावों ने यह संकेत दिया है कि भाजपा की स्थिति मजबूत होने के बावजूद, नेतृत्व और रणनीति के मोर्चे पर कई चुनौतियां सामने आ रही हैं। इस लेख में हम बिहार में भाजपा की मौजूदा स्थिति, सुशील मोदी जैसे कद्दावर नेता की अनुपस्थिति, नित्यानंद राय की भूमिका और संघ-पार्टी तालमेल का विश्लेषण करेंगे।
भाजपा की मौजूदा स्थिति: ताकत और चुनौतियां
बिहार में भाजपा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें जदयू, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम), और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) जैसे सहयोगी शामिल हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए ने बिहार की 40 में से 30 सीटें जीतीं, जिसमें भाजपा ने 17 सीटों पर चुनाव लड़ा और 12 पर जीत हासिल की। यह प्रदर्शन दर्शाता है कि भाजपा का जनाधार, खासकर शहरी और उच्च जाति के मतदाताओं में, मजबूत बना हुआ है। हाल के उपचुनावों में भी, जैसे कि तरारी, इमामगंज, बेलागंज, और रामगढ़ में, भाजपा ने तीन सीटें जीतकर अपनी स्थिति को और सुदृढ़ किया।
हालांकि, यह तस्वीर पूरी तरह रंगीन नहीं है। बिहार में गठबंधन की राजनीति में नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जदयू का दबदबा बना हुआ है। 2020 के विधानसभा चुनाव में भले ही भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाया गया। यह निर्णय भाजपा की रणनीति का हिस्सा था, ताकि 2025 के विधानसभा चुनाव और 2029 के लोकसभा चुनाव में वह बिहार में अपनी स्थिति को और मजबूत कर सके। लेकिन यह भी सवाल उठाता है कि क्या भाजपा बिहार में स्वतंत्र रूप से एक प्रभावी नेतृत्व स्थापित कर पाएगी, या वह गठबंधन की मजबूरियों में बंधी रहेगी?
सुशील मोदी: एक युग का अंत और नेतृत्व का शून्य
सुशील कुमार मोदी बिहार में भाजपा का एक ऐसा चेहरा थे, जिन्होंने संगठन और सरकार दोनों में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज की। 2005 से 2013 और फिर 2017 से 2020 तक उपमुख्यमंत्री के रूप में उनकी भूमिका ने उन्हें बिहार की राजनीति में एक केंद्रीय शख्सियत बनाया। उनकी रणनीतिक कुशलता, आरएसएस के साथ गहरा जुड़ाव, और नीतीश कुमार के साथ तालमेल ने भाजपा को बिहार में स्थिरता प्रदान की। लेकिन 2024 में कैंसर के कारण उनके निधन ने पार्टी में एक बड़ा शून्य छोड़ दिया।
सुशील मोदी की तरह कोई एकल नेता अभी बिहार भाजपा में उभरकर सामने नहीं आया है। सम्राट चौधरी, वर्तमान में उपमुख्यमंत्री और बिहार भाजपा के अध्यक्ष, एक उभरता हुआ चेहरा हैं, लेकिन उनकी स्वीकार्यता और प्रभाव सुशील मोदी के स्तर तक नहीं पहुंचा है। सुशील मोदी की संगठनात्मक क्षमता और वैचारिक स्पष्टता ने उन्हें उच्च और पिछड़ी जातियों दोनों में स्वीकार्य बनाया था। वर्तमान में, भाजपा में नेतृत्व का यह शून्य गठबंधन की राजनीति में नीतीश कुमार के दबदबे को और बढ़ाता है।
नित्यानंद राय: उभरता चेहरा या सीमित प्रभाव?
केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय बिहार में भाजपा के प्रमुख नेताओं में से एक हैं। हाजीपुर से सांसद और यादव समुदाय से आने वाले राय को पार्टी ने पिछड़ी जातियों के बीच अपनी पैठ बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण चेहरा बनाया है। उनकी संगठनात्मक पृष्ठभूमि, खासकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) और आरएसएस के साथ उनका जुड़ाव, उन्हें पार्टी के लिए महत्वपूर्ण बनाता है। लेकिन क्या वह सुशील मोदी की तरह बिहार भाजपा का चेहरा बन सकते हैं? यह सवाल अभी अनुत्तरित है।
राय की छवि एक मेहनती और जमीनी नेता की है, लेकिन उनकी राजनीतिक स्वीकार्यता अभी तक पूरे बिहार में एकसमान नहीं है। उनकी यादव जाति की पृष्ठभूमि उन्हें राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के परंपरागत वोट बैंक में सेंध लगाने का अवसर देती है, लेकिन राजद का यादव-मुस्लिम गठजोड़ अभी भी मजबूत है। इसके अलावा, राय की केंद्रीय भूमिका और दिल्ली-केंद्रित राजनीति ने उन्हें बिहार में स्थानीय स्तर पर उतना प्रभावी नहीं बनाया, जितना एक मुख्यमंत्री पद का दावेदार होना चाहिए। उनकी छवि अभी भी एक सहायक नेता की है, न कि एक केंद्रीय नेतृत्व की।
संघ और पार्टी का तालमेल: वैचारिक रीढ़ और रणनीतिक गठजोड़
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) बिहार में भाजपा की वैचारिक और संगठनात्मक रीढ़ रहा है। संघ का प्रभाव न केवल नीतियों में, बल्कि उम्मीदवारों के चयन और जमीनी कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण में भी दिखता है। हाल ही में, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के 75 वर्ष से अधिक उम्र के नेताओं को टिकट न देने के बयान ने बिहार में चर्चा छेड़ दी। इस बयान के बाद, राधा मोहन सिंह और गिरिराज सिंह जैसे नेताओं को टिकट मिला, जबकि अश्विनी चौबे और रमा देवी जैसे नेताओं का टिकट कट गया। यह दर्शाता है कि संघ का प्रभाव उम्मीदवार चयन में महत्वपूर्ण है, लेकिन लोकप्रियता और स्थानीय समीकरण भी फैसले को प्रभावित करते हैं।
संघ और भाजपा का तालमेल बिहार में हिंदुत्व की विचारधारा को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण रहा है। 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस में संघ और भाजपा कार्यकर्ताओं की भूमिका ने बिहार में पार्टी को हिंदू मतदाताओं के बीच मजबूत आधार दिया। लेकिन, बिहार की जटिल जातिगत समीकरणों के कारण, भाजपा को हिंदुत्व के साथ-साथ सामाजिक समावेश की रणनीति अपनानी पड़ी है। नीतीश कुमार के साथ गठबंधन और पिछड़ी जातियों के नेताओं को बढ़ावा देना इसका उदाहरण है।
आगे की राह: चुनौतियां और संभावनाएं
2025 का बिहार विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ होगा। नीतीश कुमार की उम्र और उनकी पार्टी की कमजोर होती स्थिति को देखते हुए, भाजपा के पास बिहार में अपनी स्वतंत्र पहचान स्थापित करने का अवसर है। लेकिन इसके लिए एक मजबूत स्थानीय नेतृत्व और स्पष्ट रणनीति की जरूरत होगी। सुशील मोदी जैसे नेतृत्व की अनुपस्थिति और नीतीश कुमार के दबदबे ने भाजपा को गठबंधन की मजबूरियों में बांध रखा है। नित्यानंद राय जैसे नेताओं को यदि बड़ा चेहरा बनाना है, तो उन्हें स्थानीय स्तर पर अपनी स्वीकार्यता बढ़ानी होगी।
संघ का समर्थन भाजपा के लिए ताकत है, लेकिन बिहार जैसे जाति-केंद्रित राज्य में केवल हिंदुत्व की राजनीति पर्याप्त नहीं होगी। पार्टी को सामाजिक समावेश, आर्थिक विकास, और युवा मतदाताओं को आकर्षित करने वाली नीतियों पर ध्यान देना होगा। अगर भाजपा 2025 में नीतीश कुमार को हटाकर अपना मुख्यमंत्री स्थापित कर पाती है, तो यह बिहार में उसके लिए एक ऐतिहासिक उपलब्धि होगी। लेकिन इसके लिए उसे गठबंधन की राजनीति, आंतरिक नेतृत्व संकट, और विपक्षी दलों, खासकर राजद, की चुनौतियों से पार पाना होगा।
बिहार में भाजपा की स्थिति मजबूत होने के बावजूद, नेतृत्व का शून्य और गठबंधन की मजबूरियां उसकी राह में चुनौतियां हैं। सुशील मोदी की अनुपस्थिति ने एक बड़े चेहरे की कमी को उजागर किया है, और नित्यानंद राय जैसे नेता अभी उस स्तर तक नहीं पहुंचे हैं। संघ और पार्टी का तालमेल बिहार में भाजपा की रीढ़ है, लेकिन जातिगत समीकरणों और विकास के मुद्दों को संतुलित करना उसकी सबसे बड़ी चुनौती है। 2025 का चुनाव इस बात का फैसला करेगा कि क्या भाजपा बिहार में केवल एक सहयोगी दल बनकर रह जाएगी, या एक स्वतंत्र और प्रभावी शक्ति के रूप में उभरेगी।