पटना। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की सरगर्मी में, सियासी दलों ने मतदाताओं को लुभाने के लिए हर हथकंडा अपनाना शुरू कर दिया है। पांच सितारा कॉनक्लेव, चकाचौंध भरे इंटरव्यू, पॉडकास्ट की बाढ़, और युवा संवाद के नाम पर भीड़ जुटाने की होड़—ये सब वोटरों के मन को मोहने की रणनीति का हिस्सा हैं। यू ट्यूबरों और सोशल मीडिय एंफ्लूएंसर्स की आड़ में प्रचार-प्रसार, नकदी बांटने के वायरल वीडियो, और हर चौक-चौराहे पर “समाजसेवी” बैनरों का जाल, यह सब सियासत का पुराना खेल है। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये चोंचले वाकई मतदाताओं को प्रभावित करते हैं?
ये तमाम आयोजन अल्पकालिक लालच और भावनात्मक उभार पैदा करने में सक्षम हो सकते हैं, मगर बिहारी मतदाता अब पहले से कहीं अधिक जागरूक है। नकदी और दिखावटी सेवा का प्रभाव सीमित होता है, क्योंकि रोजगार, शिक्षा, और बुनियादी सुविधाओं की मांग अब प्राथमिकता है। ऐसे में ये खर्चीले तमाशे अक्सर उल्टा पड़ सकते हैं, खासकर जब सोशल मीडिया पर इनकी सच्चाई उजागर होती है।
चुनाव आयोग की नजर इन खर्चों पर है, मगर इसका हिसाब-किताब कितना पारदर्शी है, यह संदेहास्पद है। आधिकारिक तौर पर दलों को खर्च की सीमा का पालन करना होता है, लेकिन कॉनक्लेव और यू ट्यूबर्स—सोशल मीडिया एंफ्लूएंसर्स पर होने वाले अप्रत्यक्ष खर्चों का हिसाब रखना मुश्किल है। यह पैसा, चाहे प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, अंततः जनता के विकास फंड से ही कटता है—या तो सरकारी योजनाओं के दुरुपयोग से या भ्रष्टाचार के जरिए।
बिहार के मतदाताओं को चाहिए कि वे इस तमाशे का बहिष्कार करें और अपने वोट की ताकत को पहचानें। विकास, रोजगार, और जवाबदेही पर वोट देना ही सही मायने में लोकतंत्र को मजबूत करेगा। लुभावने वादों और नकदी के जाल में फंसने के बजाय, बिहार की जनता को अपने भविष्य के लिए सोच-समझकर फैसला लेना चाहिए।