सेंसर बोर्ड: सनातन विरोधी साजिश का अड्डा या नौकरशाही की नाकामी?

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केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) एक बार फिर विवादों के घेरे में है। ताजा मामला योगी आदित्यनाथ की बायोपिक से जुड़ा है, जिसे सेंसर बोर्ड ने कथित तौर पर मंजूरी देने में आनाकानी की। यह कोई नई कहानी नहीं है। ‘कश्मीर फाइल्स’, ‘द केरल स्टोरी’, ‘उदयपुर फाइल्स’, ‘इमरजेंसी’ और ‘हिज स्टोरी ऑफ इतिहास’ जैसी फिल्में, जो सनातन धर्म और राष्ट्रीय हितों को मजबूत करने वाली कहानियां पेश करती हैं, सेंसर बोर्ड के जाल में फंसती रही हैं। दूसरी ओर, सनातन विरोधी या विवादास्पद कथानकों वाली फिल्मों को हरी झंडी मिलने में देरी नहीं होती। क्या सेंसर बोर्ड के भीतर सनातन विरोधी ताकतों का कब्जा है, या यह महज नौकरशाही की काहिली है? यह सवाल आज हर देशभक्त के मन में कौंध रहा है।
सेंसर बोर्ड का इतिहास रहा है सत्ता के इशारों पर नाचने का। लेकिन जब केंद्र में भाजपा की सरकार है, तब भी सनातन के पक्ष में बनने वाली फिल्मों को रोका जाना चौंकाने वाला है। ‘कश्मीर फाइल्स’ को सेंसर बोर्ड ने महीनों लटकाए रखा। ‘द केरल स्टोरी’ को भी तमाम आपत्तियों का सामना करना पड़ा। ‘उदयपुर फाइल्स’ और ‘इमरजेंसी’ जैसी फिल्में, जो भारत के कड़वे सच को सामने लाती हैं, सेंसर बोर्ड की कैंची से बच नहीं पाईं। अब योगी आदित्यनाथ की बायोपिक का लटकना इस बात का सबूत है कि सेंसर बोर्ड में कुछ लोग सनातन और राष्ट्रवादी नैरेटिव को दबाने की कोशिश में लगे हैं।
सवाल उठता है कि आखिर सेंसर बोर्ड में बैठे ये लोग कौन हैं? क्या ये वही पुराने सिस्टम के दलाल हैं, जो वामपंथी और सनातन विरोधी ताकतों के इशारों पर काम करते हैं? सूत्रों की मानें तो बोर्ड के कई सदस्यों का चयन अभी भी पुरानी व्यवस्था के तहत हुआ है, जहां वामपंथी विचारधारा और बॉलीवुड के कुछ खास गिरोहों का दबदबा है। यह वही गिरोह है, जो शाहरुख खान और आमिर खान जैसे सितारों को राष्ट्रीय पुरस्कार और ब्रैंड एम्बेसडर जैसे सम्मान दिलवाने में कामयाब रहा है।
भाजपा सरकार पर सवाल उठ रहे हैं कि वह सत्ता में होने के बावजूद सेंसर बोर्ड जैसे महत्वपूर्ण संस्थानों को नियंत्रित क्यों नहीं कर पा रही? क्या यह नौकरशाही की चालाकी है या सरकार की उदासीनता? केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तहत काम करने वाला सेंसर बोर्ड आज भी उन लोगों के चंगुल में है, जो सनातन संस्कृति और राष्ट्रवादी विचारधारा को कमजोर करने में जुटे हैं। यह विडंबना है कि एक तरफ सरकार ‘सनातन संस्कृति’ की बात करती है, वहीं दूसरी ओर उसका अपना तंत्र उसी संस्कृति के खिलाफ काम कर रहा है।
सेंसर बोर्ड की इस हरकत का असर केवल फिल्मों तक सीमित नहीं है। यह एक बड़े सांस्कृतिक युद्ध का हिस्सा है, जहां सनातन और राष्ट्रवादी नैरेटिव को दबाने की कोशिश हो रही है। अगर सरकार को इस साजिश को तोड़ना है, तो सेंसर बोर्ड में व्यापक सुधार की जरूरत है। इसके लिए पारदर्शी चयन प्रक्रिया, राष्ट्रवादी सोच वाले सदस्यों की नियुक्ति और सख्त निगरानी जरूरी है। अन्यथा, यह धारणा और मजबूत होगी कि भाजपा सिर्फ सरकार में है, सत्ता में नहीं।

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