अभिनव आलोक
सरकार नहीं चाहती कि कोई भी कुछ बोले, कम से कम सेंसिबल बात तो नहीं ही बोले। कोई भी सत्ता अभिव्यक्ति के खिलाफ ही होती है। यह सत्ता के इंटरनल मेकअप के सर्वथा अनुकूल है। संभव है जस्टिस चंद्रचूड़ के बोलने के कंटेंट से भले ही सत्ता पक्ष को कोई एतराज न हो, मगर टाइमिंग से एतराज झलक रहा है। सीधे तौर पर तो ये लोग भले ही चंद्रचूड़ की आलोचना न करें, अंदरखाने बहुत दुखी हैं, वैसे ये भी हो सकता है कि जानबूझ कर दुखी होने का दिखावा कर रहे हों, संभावनाओं का कोई अंत नहीं। मनोज नरवणे की किताब को अभी तक स्क्रूटनी के नाम पर इसी लिए फंसाए हुए हैं। सत्ता लोगों के बोलने से डरती है, झूठ बोलने से खुश होती है, वास्तविकता के किसी भी पक्ष को सही-सही बयान करने वालों से सत्ताधारियों को तकलीफ होती है, देह में आग लग जाती है। मीडिया, यूट्यूब, नेताओं, उनके प्रवक्ताओं के माध्यम से चौबीसों घंटे अनाप-शनाप, बेमतलब की फालतू बातें की जा रही हैं — यह सब सत्ता के मनोनुकूल है।
एक रिटायर्ड जज को अपने फैसले के बारे में बाद में टिप्पणी करनी चाहिए या नहीं, इस पर कोई कानून नहीं है। सच तो यह है कि न्यायाधीशों से अपेक्षा की जाती है कि वे अकादमिक तौर पर अपने फैसलों के बारे में गंभीरता से सेमिनारों, लॉ कॉलेजों में बोलें, आर्टिकल लिखें। किसी भी न्यायधीश को अपने फैसलों के बारे में सेवा-समाप्ति उपरांत गंभीर बात करने से नहीं रोका जा सकता।
चंद्रचूड़ के बोलने और उससे ज्यादा उनके बोलने के टाइम और जिस प्लेटफॉर्म को उन्होंने चुना, उससे सत्ताधारी नाखुश हो सकते हैं। उन्हें और ज्यादा नाखुश करने की ज़रूरत है। देश की सेवा में उच्चतर स्तर पर काम किए लोगों को अपनी बात खुलकर रखनी चाहिए। इसमें मेरा भी फायदा है, देश का भी फायदा है। जब भी ऊंचे पदों से रिटायर्ड लोग बात करते हैं, तो हम जैसे जानने-समझने वालों का फायदा होता है। हमें चीज़ों को देखने का वो पर्सपेक्टिव मिलता है, जिसे हम किताबों और अखबारों से नहीं जान सकते।
बड़े पदों पर पहुंचे लोगों को ज्यादा से ज्यादा बोलना और लिखना चाहिए। इन पदों पर पहुंचे कुछ लोग मार्कण्डेय काटजू की तरह सत्ता के कृपापात्र और अपने पद की गरिमा के सर्वथा प्रतिकूल व्यवहार करने वाले भी हो सकते हैं। ऐसे लोगों को भी बोलना-लिखना चाहिए ताकि हम जैसे लोग समझ सकें कि ऊंचे पदों पर पहुंचे लोगों के चुनाव में सत्ताधारी किस प्रकार का भ्रष्टाचार करते हैं। अगर काटजू मुंह नहीं खोलते, चुप रहते तो उनकी मूर्खता का पता भी नहीं चलता।
किसी भी परिस्थिति में बड़े पदों पर पहुंचे लोगों का बोलना जनहित में है। पूर्व आर एंड ए डब्ल्यू चीफ अमरजीत सिंह दुलत कांग्रेस के करीबी है, हर व्यक्ति की अपनी राजनीतिक समझ और झुकाव होता है, दुलत साहब की किताबें चाहे कश्मीर के बारे में हो या राजनेताओं के साथ उनके संबंधों पर आधारित संस्मरण हो, पाठकों को संवर्धित ही किया है। उनकी पॉलिसी गलत थी, ओल्ड फैशन्ड थी, ज्यादा नरम थी, जो भी थी वो अपने समय की पैदाइश थी। दुलत साहब ने सरकारी सेवा में रहते जो भी किया हो, अपनी किताबों के लिए वो हमेशा जाने जाते रहेंगे।
चंद्रचूड़ ने कोई गलती नहीं की है। हम चाहेंगे कि उनके जैसे लोग ज्यादा से ज्यादा सामने आएं और साफ तरीके से अपनी बात करें। यह जनहित में है, देशहित में है, मेरे व्यक्तिगत हित में है। अभिव्यक्ति की आज़ादी का यही उद्देश्य है। टीवी एंकरों, उनके द्वारा इकट्ठा किए गए फर्जी विश्लेषकों, राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं और सुबह से शाम तक बकलोली करने वाले राजनेताओं की बकचोदी को एम्प्लीफाई करने के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं है। मेरा बस चले तो इनकी बकचोदी करने की आज़ादी को चुटकियों में मसल दूं। मगर अभिव्यक्ति के नाम पर बकचोदी करने का भी अधिकार है। वे करें, उनको धीरे-धीरे इग्नोर करना हम सीख लेंगे। ये सबसे खराब और कंटेंट-विहीन वक्ता लोग हैं। सत्ताधारी ऐसे ही कंटेंट-विहीन, उथली बातों को बढ़ावा देकर असली अभिव्यक्ति को कुंद करते हैं।
बोलो चंद्रचूड़ साहब, बोलो। सत्ताधारियों के चमचों की परवाह किए बिना बोलो। बोलो कि लब आज़ाद हैं तेरे। तुम्हें मालूम है कि कब, कितना और कैसे बोलना है।
और हां, जो भी सुन रहा हो कान खोलकर सुन लो — मसले कोर्ट के माध्यम से ही तय होंगे। तीन या तेरह नहीं, जितने भी मसले हैं उनके लिए कोर्ट के दरवाजे खुलने ही होंगे। संसद और सरकार जनता और न्यायालय के बीच दीवार नहीं खड़ी कर सकती। यह पूरा सिस्टम आवाम के साथ न्याय करने के वादे के ऊपर ही बनाया गया है। कोर्ट नेहरूजी को भी पसंद न था, नवी अनुसूची ले के आ गए, मोदी जी को भी पसंद नहीं होगा। मगर संविधान ने शक्तियों का बंटवारा किया हुआ है, जब तक संसद है, कोर्ट भी रहेंगे, इनके बीच खींच तान भी रहेगा, इनके शक्तियों का बैलेंस ठीक माध्य और माध्यिका के आसपास बना रहना चाहिए। यही शुभ और बेहतर स्थिति है वर्तमान लोकतांत्रिक मॉडल के लिए। चीन को देखकर हाह मारने से कुछ नहीं होगा, चीन का मॉडल अलग है, उसके तरीके और नतीजे अलग होंगे।
सिविल सोसाइटी को अपना वॉल्यूम और पीच दोनों बढ़ा देना चाहिए, यह सही समय है। और हां, बात सेंसिबल कीजिए, प्रोपेगेंडा को न्यूनतम रखिए, सच बोलिए। यही रास्ता है। झूठ और प्रोपेगेंडा फैलाने वालों को बीच बीच में रेलना भी जरूरी है क्योंकि ये अंततः सबका नुकसान करते हैं। कविता, कहानी, सिनेमा प्रोपेगेंडा का माध्यम है, उसको सिर्फ मजा लेने के लिए देखे पढ़े।
(अभिनव आलोक के सोशल मीडिया दीवार से)