चारों ओर हंसी-खुशी बिखेरते कौशलजी चले गए

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राकेश उपाध्याय

उन्होंने सदैव निज का दर्द बाद में जाना, पहले दूसरे के चेहरे पर मुस्कान पैदा की। विद्वान थे, प्रोफेसर आचार्य थे, बहुत सुन्दर व्यक्तित्व था। मित्र और सह्रदय थे। ऐसे जीवंत मनुष्यों के कारण ही भूमि रसवंत कही जाती है।

वह वाराणसी, काशी के चिर बनारसीपन के चिर ध्वनि वाहक थे। सदा आनंदमग्न रहते हुए सबके होकर दिखाई पड़ना उनका स्वभाव था। सभी वादों-प्रतिवादों के ऐसे पंचमाक्षर संगम थे कि मानो सब कुछ उनका अनुस्वार था, उन्हीं के अनुसार था। बिल्कुल बेजोड़। का गुरू हां गुरू की परम्परा में जो भी उनके सान्निध्य में रहा वो भी गुरू ही हो गया। कलिकाल के कठिन समय में उनसे मिलना द्वापर हो जाना था कि निराशा हटा देते और आशा बंधा देते। बिल्कुल देसी बिंदास।

विद्या में महारथी कि ज्ञान गुण के आगार, लेकिन बनारसी पन में इतने भरे अलमस्त कि कभी किसी को मालूम नहीं होने देते कि वो ज्ञानियों में महाज्ञानी हैं। संगोष्ठियों में उन्हें सुनता था तो लगता था कि प्रज्ञा साक्षात कौशल और क्रिया रूप में प्रकट है। रस रूप ऐसे थे कि हास्य के बड़े विद्वान भी उन्हें सुनकर अपनी शब्दावली रचते, और बड़े बड़े धीर गंभीर रौद्र रूपी भी उनका संग पाकर मुदित हो उठते। उनका विराट कुल था जिसके वह अद्भुत मार्गदर्शक कुलपति थे, जो उनसे मिला उसे मिला और जिसे उन्होंने त्यागा तो मानो उसकी किस्मत ही रूठ गई।

काशी की वह धड़कती आत्मा थे। ठेठ बनारसीपन क्या होता है, उन्हें देखकर, मिलकर, बतियाकर आप सहज अंदाजा लगा सकते थे।

उनसे मिलना अपने आत्मरस और आत्मभाव से मिलना था। अब वो नहीं मिलेंगे, सोचकर मन बिलखता है।
महादेव उन्हें सद्गति प्रदान करें, यही प्रार्थना है। यही श्रद्धांजलि है।

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