चितपावन ब्राह्मणों पर अत्याचार और प्रेस की चुप्पी: इतिहास के अनकहे पन्ने

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दिल्ली। भारत का राजनीतिक इतिहास हिंसक घटनाओं और उनके बाद की सामाजिक प्रतिक्रियाओं से भरा पड़ा है। 1948 में नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। गोडसे, जो एक चितपावन ब्राह्मण था, को न्यायालय ने फांसी की सजा दी, लेकिन इस घटना के बाद पूरे चितपावन ब्राह्मण समुदाय को निशाना बनाया गया। महाराष्ट्र और अन्य क्षेत्रों में इस समुदाय के खिलाफ हिंसा भड़की, उनके घर जलाए गए, और परिवारों पर क्रूर हमले हुए। सवाल उठता है कि एक व्यक्ति के अपराध के लिए पूरे समुदाय को क्यों सजा दी गई? इस नरसंहार की कोई विश्वसनीय और विस्तृत रिपोर्ट आज तक सामने नहीं आई। उस समय की कांग्रेस सरकार और उसके समर्थक प्रेस ने इस हिंसा पर चुप्पी क्यों साधी?

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख समुदाय के खिलाफ भयावह हिंसा देखी गई। हजारों सिखों का नरसंहार हुआ, और इस हिंसा को कथित तौर पर कांग्रेस के कुछ नेताओं का समर्थन प्राप्त था। लेकिन 1991 में राजीव गांधी की हत्या, जिसे तमिल महिला धानू ने अंजाम दिया, के बाद तमिल समुदाय के खिलाफ ऐसी हिंसा नहीं हुई। धानू के साथियों को सजा मिली, लेकिन बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया, जिसमें राहुल गांधी के परिवार की भूमिका रही। यह दया थी, या राजनीतिक हितों का हिस्सा? कांग्रेस का इतिहास हत्यारों के समुदायों को निशाना बनाने का रहा है, फिर तमिल समुदाय के प्रति यह नरमी क्यों? क्या यह केवल संयोग था, या इसके पीछे गहरे राजनीतिक समीकरण काम कर रहे थे?

उस दौर में भी प्रेस की भूमिका सवालों के घेरे में थी। चितपावन ब्राह्मणों पर हुए अत्याचारों की कोई गंभीर पत्रकारीय जांच नहीं हुई। उस समय के पत्रकारिता संस्थान कांग्रेस के इकोसिस्टम का हिस्सा बन गए थे, सरकार का खौफ इतना था कि इन घटनाओं पर खामोशी बरती गई। आज उसी कांग्रेस इको सिस्टम से निकले पत्रकार, ‘गोदी मीडिया’ और प्रेस की स्वतंत्रता का राग अलापते हैं। लेकिन जब चितपावन ब्राह्मणों के घर जल रहे थे, तब इन पत्रकारों ने कितनी खबरें छापीं?

हाल फिलहाल में एनडीटीवी कांग्रेस के आईटी सेल की तरह व्यवहार करता था और न्यूज 24 कांग्रेस का माउथपीस बना हुआ था। अब सबसे अधिक प्रेस को सरकार का आलोचक होना चाहिए का शोर, इन्हीं संस्थानों से निकले राजदीप, रवीश, अभिसार, संदीप, अजीत अंजुम जैसे पत्रकार मचाते हैं।

इसी तरह प्रेस क्लब ऑफ इंडिया और एडिटर्स गिल्ड जैसे मंचों पर भी स्वतंत्रता की बातें होती हैं, लेकिन इन संस्थानों के लिए भी प्रेस की स्वतंत्रता का मतलब अक्सर कांग्रेस की विचारधारा के समर्थक पत्रकारों का समर्थन करना ही रहा है।

मोदी सरकार के दौर में पत्रकारों को पहले से कहीं अधिक स्वतंत्रता मिली है, फिर भी ‘प्रेस की आजादी’ का शोर मचाने वाले वही लोग हैं, जो कभी कांग्रेस के इशारों पर चलते थे। चितपावन ब्राह्मणों पर हुए अत्याचारों की अनकही कहानी और उस पर प्रेस की चुप्पी भारतीय पत्रकारिता के इतिहास पर एक काला धब्बा है। यह सवाल आज भी अनुत्तरित है कि आखिर सत्ता और प्रेस ने मिलकर इस समुदाय के दर्द को क्यों दबाया? क्या यह एक सोची-समझी रणनीति थी, या महज लापरवाही? इतिहास के इन पन्नों को खोलने की जरूरत है, ताकि सच सामने आ सके।

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