आम चुनाव 2024 और बस्तर [आलेख – 3]

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राजीव रंजन प्रसाद
आरंभिक चुनावों के समयों में बस्तर व्यवस्था परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था जहाँ ब्रिटिश शासन प्रणाली के अवशेष थे, राजा का दबदबा था और धीरे धीरे कॉंग्रेस भी अपना प्रभाव बढ़ाने का प्रयास कर रही थी। महाराज प्रवीरचंद्र भंजदेव से सीधे संघर्ष की स्थिति ठान लेने के कारण पहले ही लोकसभा चुनाव में कॉंग्रेस की करारी हार हुई। यह हार ऐसी थी कि तत्कालीन भारत का सबसे बड़ा राजनैतिक दल, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन में भी भूमिका निर्वाहित की थी, वह चारों खाने चित नजर आया। पहले चुनाव में दो तरफा मुकाबला था, केवल दो ही उम्मीदवार थे। एक ओर थे कॉंग्रेस के प्रत्याशी सुरती क्रिसटैय्या और दूसरी ओर महाराज समर्थित प्रत्याशी मुचाकी कोसा। बस्तर में लोकसभा चुनावों के इतिहास में ऐसा दो बार हुआ है, अर्थात वर्ष 1952 और वर्ष 1957 के चुनावों में, जब केवल दो प्रत्याशियों के मध्य सीधा मुकाबला हुआ था। दोनों ही बार यह आमना सामना निर्दलीय प्रत्याशी बनाम कॉंग्रेस के प्रत्याशी के बीच ही हुआ है।
आरंभिक दो चुनावों का तुलनात्मक अध्ययन इस दृष्टि से महत्व का है कि यह संकर काल में सत्ता की उस उठापटक को बताता है जिस दौरान लोकतंत्र की हांडी चूल्हे पर अभी अभी चढ़ी और वह क्या और कैसा आकार लेने वाली है, कहा नहीं जा सकता था। एक ओर जहाँ पहले लोकसभा चुनाव में पूरी तरह से महाराजा समर्थित उम्मीदवार का जोर देखने को मिला, पाँच साल बाद हुए चुनावों में स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा था कि कॉंग्रेस ने बस्तर में अपनी जमीन बना ली है। वर्ष 1957 में विधानसभा चुनाव भी हुए थे, अत: दोनों ही के परिणामों पर दृष्टि डालने पर समग्र रूप से राजनैतिक परिस्थिति सामने आ पाती है। वर्ष 1952 को हुए पहले आम चुनावों में जहाँ महाराजा समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार मुचाकी कोसा को 83.05 प्रतिशत (कुल 1,77,588 मत) वोट प्राप्त हुए जबकि कॉंग्रेस के प्रत्याशी सुरती क्रिसटैय्या को मात्र 16.95 प्रतिशत (कुल 36,257 मत) वोटों से संतोष करना पड़ा था। यह स्थिति उलट जाती है वर्ष 1957 में जबकि दूसरे आमचुनावों के परिणाम आये। उस बार मुचाकी कोसा प्रत्याशी नहीं थे बल्कि उनसे स्थान पर निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में बोधा दादा चुनाव लड़ रहे थे। कॉंग्रेस ने एक बार फिर सुरती क्रिसटैय्या पर अपना दांव लगाया था। सुरती क्रिस्टैया, बस्तर के प्रभावशाली कुटरू जमींदार परिवार से आते थे। इन चुनावों मे निर्दलीय बोधा दादा को 22.82 प्रतिशत (कुल 41684 मत) प्राप्त हुए जबकि कोंग्रेस प्रत्याशी सुरती क्रिसटैय्या 77.28 प्रतिशत (कुल 140961 मत) प्राप्त कर विजयी रहे।
वर्ष 1957 के चुनावों में मिली सुरती क्रिसटैय्या (77.28%) की जीत बड़ी थी, लेकिन वे उस मील के पत्थर को नहीं छू सके जो पहले चुनावों (वर्ष 1952) में मुचाकी कोसा (83.05%) स्थापित कर गए थे। दोनों के बीच का यह अंतर 5.77% का है। मुचाकी कोसा द्वारा स्थापित रिकॉर्ड बड़ा है, और शायद आगे भी कभी तोड़ा नहीं जा सकेगा। ठीक इसी वर्ष हुए विधान सभा चुनावों मे जबकि वृहद बस्तर जिला के अंतर्गत सात सीटें आती थी केवल दो (जगदलपुर तथा बीजापुर) में ही निर्दलीय प्रत्याशी जीत सके शेष पाँच स्थानों (कांकेर, केशकाल, नारायणपुर, चित्रकोट तथा दंतेवाड़ा) पर से कॉंग्रेस के प्रत्याशी विधानसभा पहुंचे थे। इस वर्ष के विधासभा चुनावों की एक विशेषता यह भी थी कि महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव ने स्वयं निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा था और कॉंग्रेस के प्रत्याशी दुरहा प्रसाद को भारी मतों से पराजित किया था।
क्या दो चुनावों के परिणाम यह बताते हैं कि महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव का बस्तर परिक्षेत्र पर दबदबा कम होने लगा था जिससे कि सुरती क्रिसटैय्या भारी मतों सए अपनी जीत दर्ज करा सके? विधानसभा के चुनावों में भी महाराजा अपनी सीट तो जीत गए लेकिन शेष बस्तर में अधिकांश सीटें कॉंग्रेस के खाते में चली गयीं।  यहाँ जो प्रश्न खड़े होते हैं, उनके उत्तर हमें आगामी चुनावों में मिलते हैं। अगली कड़ियों में उनपर हम चर्चा करेंगे।
(लेखक बस्तर और नक्सल विषयों के जानकार हैं। इनकी किताब आमचो बस्तर, विषय की प्रामाणिक पुस्तक मानी जाती है। जो बेस्ट सेलर किताबों में शामिल है)

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