शृंखला आलेख – 12: कम्युनिष्टों वे बच्चे हैं, दिखता नहीं?

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माओवादियों ने अनेक तरह के संगठन बनाए हुए हैं, कई तो स्कूलों के भीतर से संचालित होते हैं। बाल-यूनियन बना कर वस्तुत: अधपके छात्रों से ही कथित क्रांति का रस टपका लेने के लिए माओवादी आतुर हैं। माओवादियों के प्रकट और गुप्त दो तरह के संगठन हैं और वे योजनानुसार व कार्यशैली के अनुरूप उत्पादक बने हुए है, कैडर का रिक्रूटमेंट करने की पहली सीढ़ी यही है।

आज केवल बाल-संघम की चर्चा करते हैं चूंकि शहरी नक्सली जब भी किसी तरह का नैरेटिव गढ़ते हैं बच्चे उसका केंद्रविंदु होते हैं। दिमाग पर जोर दीजिए, बस्तर परिक्षेत्र में चार दशक से फैले-फले नक्सलवाद के अतीत में कभी किसी कम्युनिष्ट कथा-कहानी में, कविता में, यहाँ तक कि रिपोर्ताज में भी बालसंघम के माध्यम से माओवादी किस तरह अञ्चल के बचपन का शोषण कर रहे हैं, इसका उल्लेख हुआ है? यदि हुआ है तो बहुत ही रूमानियत के साथ। नक्सल समर्थन के लिए कुख्यात लेखिका अरुंधती रॉय का माओवाद पर केंद्रित चर्चित आलेख दी गार्डियन में “गांधी, बट विथ गन्स” और आउटलुक में “वाकिंग विथ द कॉमरेड्स” शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। आलेख के आरंभ में लेखिका बताती है कि वह कैसे दंतेवाड़ा पहुंची और वहाँ उसे नक्सलियों से मिलवाने के लिए जिसे भेजा गया वह मासूम बच्चा था। शब्दश: अरुंधती लिखती है – “मुझे आश्चर्य हुआ कि क्या कोई मुझे देख रहा है और हंस रहा है। कुछ ही मिनटों में एक छोटा लड़का मेरे पास आया। उसके पास एक टोपी और एक बैकपैक स्कूल बैग था। उसके नाखूनों पर लाल रंग की नेल-पॉलिश लगी हुई थी। ‘क्या तुम ही अंदर जा रहे हो?’ उसने मुझसे पूछा।“ इस तरह के विवरण वाले बच्चे से आपको या इस देश को क्या अपेक्षा होनी चाहिए? ऐसे बच्चे माओवादियों के टूल हैं, उनके संदेशवाहक हैं, उनके मुखबिर हैं यहाँ तक कि उनके लिए मालवाहक भी हैं। नक्सल संगठन में बाल संघम का यही कार्य है जिसके लिए नाबालिक बच्चे उपयोग में लाए जाते हैं। कम्युनिष्टों वे बच्चे हैं, दिखता नहीं?

यह एक विदित तथ्य है कि माओवादी प्रत्येक घर से एक सदस्य चाहते हैं और एक बच्चे को तो ये लाल-कमबख्त अपनी बपौती समझते हैं। इसके अतिरिक्त संगठन ऐसे बच्चों की तलाश में भी रहता है जिनके माता-पिता इस दुनिया में नहीं हैं याकि परिवार आर्थिक रूप से कमजोर है और बच्चों का लालन-पालन करने में कठिनाई का अनुभव कर रहा है। ये बच्चे माओवादी टूल हैं जिन्हें बाल संघम का सदस्य बना लिया जाता है और फिर उनसे सुरक्षाबलों के मूवमेंट की जानकारी लेने जैसे खतरनाक काम में लगा दिया जाता है। प्राय: सुरक्षा बाल छोटे बच्चों पर संदेह नहीं करते और यही बात माओवादियों के लिए ताकतवर सूचनातंत्र बन जाती है। अनेक स्थानों से एकत्र जानकारी के अनुसार माओवादी इन बच्चों को बंदूक चलाने, स्पाईक होल तैयार करने, आईईडी को एक जगह से दूसरी जगह लेकर जाने जैसे कार्य भी लेते हैं। बाल संघम में कार्य कर रहे बच्चे घरों में रहते हैं, अपने स्कूल भी जाते हैं। समय पर्यंत इन बच्चों द्वारा की जाने वाली हरकतों और अपराधों की सूचना पुलिस तक भी पहुँचती है। इसी बात का भय दिखा कर माओवादी अब बच्चों को जंगल के भीतर आने के लिए बाध्य कर देते है और पार्टी से जोड़ लेते हैं। बाल संघम वस्तुत: बच्चों के मनोविज्ञान से खेलने का तंत्र है और उन्हें आतंकवादी बनाने के लिए धीमा वैचारिक जहर दिए जाने जैसी प्रक्रिया। कितना आश्चर्य है कि देश भर में जोर जोर से बजने वाली बाल अधिकार और मानव अधिकार की तूतियाँ नक्सल क्षेत्रों में खामोश रहती हैं, क्या कोई एजेंडा है?

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राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन एक पुरस्कार विजेता लेखक और पर्यावरणविद् हैं। जिन्हें यथार्थवादी मुद्दों पर लिखना पसंद है। कविता, कहानी, निबंध, आलोचना के अलावा उन्होंने मशहूर नाटकों का निर्देशन भी किया है।

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