कांग्रेस की बढ़ती बेपरवाही: संविधान का मुखौटा और अराजकता की चाह

3-1-5.jpeg

दिल्ली। चुनाव दर चुनाव कांग्रेस पार्टी की बेपरवाही चरम पर पहुँचती जा रही है। लगता है पार्टी के रणनीतिकारों को किसी ने यह भ्रम दे दिया है कि लोकतंत्र को अराजकता के बल पर ही हराया जा सकता है। उनके मुँह पर संविधान की दुहाई है, लेकिन बगल में छुरी छिपी हुई है। जैसाकि फरवरी 2020 के दिल्ली दंगों का वह वीडियो है जो रिपब्लिक टीवी को मिला था, जिसमें एक शख्स एक हाथ में तिरंगा थामे दूसरे हाथ से किसी की हत्या करने पर उतारू है।

अगर वह शख्स मुस्लिम नहीं होता, तो आज वही वीडियो पवन खेड़ा, सुप्रिया श्रीनेत से लेकर कांग्रेस के आधिकारिक एक्स हैंडल तक वायरल होता। रवीश कुमार, अभिसार शर्मा, अजीत अंजुम, आरफा खानम शेरवानी और आरजे सायमा जैसे पत्रकार इसे दिन-रात की बहस का मुद्दा बनाते। लेकिन चूँकि वह व्यक्ति “मुस्लिम” था, इसलिए पूरे गठबंधन इको-सिस्टम ने सामूहिक मौन धारण कर लिया। यही दोहरा मापदंड कांग्रेस और उसके सहयोगियों की असलियत उजागर करता है।

पिछले तीन महीनों में अगर प्राइम टाइम डिबेट्स का हिसाब लगाएँ तो हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण पर सबसे ज्यादा शोर गठबंधन समर्थक चैनलों ने ही मचाया है। खासकर संदीप चौधरी जैसे एंकरों ने इसे बार-बार उछाला। दूसरी तरफ, जब बात बांग्लादेश की घटनाओं की आती है तो राहुल गांधी और उनके सलाहकार इसे “जन-क्रांति” का नाम देकर भारत में भी वैसी ही अराजकता की स्क्रिप्ट तैयार करने में जुटे दिखते हैं।

लोकसभा चुनाव से पहले यही सलाहकार-मंडली राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब दिखाती रही। इतनी शातिर है यह लेफ्ट-लिबरल गिरोह कि 2024 में महज 99 सीटें आने के बावजूद उसे “नैतिक जीत” घोषित कर दिया गया। बीजेपी के 240 के मुकाबले 99 सीटें भी क्या कम थीं? जीत का जश्न मनाया गया, हार का मातम नहीं।

ताजा उदाहरण बिहार विधानसभा चुनाव का है। बीजेपी अपनी 2020 की 53 सीटों को बढ़ाकर 89 पर ले आई, जबकि कांग्रेस 19 से खिसककर सिर्फ 6 पर सिमट गई। यानी एक दशक में सबसे बुरी हार। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व के चेहरे पर शर्म या पश्चाताप का नामोनिशान तक नहीं। न कोई समीक्षा, न कोई जिम्मेदारी। मानो हार जीत से परे कोई और खेल खेला जा रहा हो।

दरअसल कांग्रेस के नेता यह मानकर चल रहे हैं कि एक दिन राहुल गांधी का “भाग्य का छींका” टूटेगा और देश भाजपा से तंग आकर कांग्रेस को वोट दे देगा। जबकि हकीकत इसके उलट है। नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता साल दर साल बढ़ रही है और विपक्षी खेमे में खीज व गुस्सा। दशकों तक सत्ता सुख भोगने की आदत ने कांग्रेस को विपक्ष में बैठना असहज बना दिया है।

अब कुछ विश्लेषकों की नजर में कांग्रेस का व्यवहार खतरनाक मोड़ ले चुका है। जब लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता नहीं मिल रही तो “संविधान की रक्षा” के नाम पर संस्थाओं को कमजोर करने, न्यायपालिका पर दबाव बनाने और सड़क पर अराजकता फैलाने की रणनीति अपनाई जा रही है। संविधान उनके लिए ढाल भी है और हथियार भी। ढाल इसलिए कि हर आलोचना को “संविधान खतरे में” कहकर खारिज कर दो, हथियार इसलिए कि उसी संविधान के नाम पर संस्थाओं को पंगु बनाकर सत्ता का रास्ता साफ करने की कोशिश की जा रही है।

कांग्रेस यह भूल रही है कि जनता सब देख रही है। दोहरा मापदंड, लगातार हार के बावजूद अहंकार, और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति बढ़ती बेपरवाही उसे और हाशिए पर धकेल रही है। अगर यही रवैया रहा तो दिन दूर नहीं जब कांग्रेस खुद को राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक पाएगी। संविधान बचाने का नाटक बंद हो और सच्ची आत्ममंथन की शुरुआत हो, तभी पार्टी के पास वापसी का कोई रास्ता बचेगा। वरना, यह बेपरवाही उसे इतिहास के कूड़ेदान में पहुँचा देगी।

Share this post

आशीष कुमार अंशु

आशीष कुमार अंशु

आशीष कुमार अंशु एक पत्रकार, लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता हैं। आम आदमी के सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों तथा भारत के दूरदराज में बसे नागरिकों की समस्याओं पर अंशु ने लम्बे समय तक लेखन व पत्रकारिता की है। अंशु मीडिया स्कैन ट्रस्ट के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं और दस वर्षों से मानवीय विकास से जुड़े विषयों की पत्रिका सोपान स्टेप से जुड़े हुए हैं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top