कॉन्स्टिट्यूशन क्लब की स्थापना 1947 में संविधान सभा के सदस्यों के बीच विचार-विमर्श और संवाद के लिए एक मंच के रूप में हुई थी। इसका उद्देश्य सांसदों को गैर-आधिकारिक माहौल में विचार-मंथन, जनहित और नीति निर्माण पर चर्चा, और लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देना था। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा 1965 में उद्घाटित यह संस्था संसदीय लोकतंत्र की आत्मा को संजोने का प्रतीक थी। हालांकि, अवधेश कुमार के अनुसार, पिछले दो दशकों में यह अपने मूल चरित्र से भटककर एक सामान्य व्यावसायिक क्लब में तब्दील हो गया है। लेख में वर्णित बिंदु, जैसे बियर बार, प्रेमी-प्रेमिकाओं का मिलन स्थल बनना, और पार्क में आम लोगों का प्रवेश निषिद्ध होना, इस संस्था की गरिमा के ह्रास को दर्शाते हैं। ये उदाहरण इस बात का प्रमाण हैं कि कॉन्स्टिट्यूशन क्लब अब उन बुद्धिजीवियों, एक्टिविस्टों और सांसदों के लिए उपयुक्त नहीं रहा, जिनके लिए इसे बनाया गया था।
लेख का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह कॉन्स्टिट्यूशन क्लब के वर्तमान स्वरूप को न केवल इसके मूल उद्देश्यों के खिलाफ मानता है, बल्कि इसे भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन का केंद्र भी बताता है। बियर बार, स्पा, महंगे सैलून, और प्रदर्शनियों जैसे तत्वों का समावेश, जो इसकी मूल संरचना और उद्देश्य से मेल नहीं खाते, इसकी पहचान को धूमिल करते हैं। लेख में यह भी उल्लेख किया गया है कि क्लब का परिसर अब सांसदों और कार्यकर्ताओं के लिए सस्ती और सुलभ जगह नहीं रहा। पहले जहां सांसदों की अनुशंसा पर कम किराए में कार्यक्रम आयोजित हो सकते थे, वहीं अब लाखों रुपये की लागत इसे आम कार्यकर्ताओं की पहुंच से बाहर ले जाती है। यह स्थिति लोकतांत्रिक विमर्श की संस्कृति को कमजोर करती है, जो इस संस्था का मूल आधार थी।
लेख में कॉन्स्टिट्यूशन क्लब के संचालन में पारदर्शिता की कमी और भ्रष्टाचार के आरोपों पर भी ध्यान आकर्षित किया गया है। केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा इसे पब्लिक अथॉरिटी घोषित करने के बावजूद, इसकी गतिविधियों में पारदर्शिता का अभाव है। अवधेश कुमार ने इस बार के चुनाव, जिसमें सांसद राजीव प्रताप रूडी और पूर्व केंद्रीय मंत्री संजीव कुमार बालियान के बीच मुकाबला है, को एक अवसर के रूप में देखा है, जहां इस संस्था के भविष्य पर विचार किया जा सकता है। हालांकि, लेख यह भी स्पष्ट करता है कि केवल चुनाव जीतने या हारने से समस्या का समाधान नहीं होगा। मूल मुद्दा इस संस्था को उसके गैर-लाभकारी, विचार-विमर्श केंद्रित चरित्र में वापस लाने का है।
लेख की ताकत इसकी निष्पक्ष और साहसिक प्रस्तुति में निहित है। अवधेश कुमार ने न केवल कॉन्स्टिट्यूशन क्लब के पतन को तथ्यों के साथ उजागर किया, बल्कि इसके सुधार के लिए ठोस सुझाव भी दिए। वे यह मांग करते हैं कि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री इस मामले में हस्तक्षेप करें, और क्लब की गतिविधियों, आय-व्यय, और निर्माण की बहुस्तरीय जांच हो। यह सुझाव इस संस्था को उसकी खोई हुई गरिमा वापस दिलाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।
हालांकि, लेख में कुछ कमियां भी हैं। यह भ्रष्टाचार के आरोपों को तो उठाता है, लेकिन ठोस सबूतों का अभाव इसे कमजोर करता है। साथ ही, यह स्पष्ट नहीं है कि प्रस्तावित सुधारों को लागू करने का रास्ता क्या होगा। फिर भी, लेख का प्रभाव इसकी स्पष्टता और साहस में है, जो पाठकों को इस महत्वपूर्ण संस्था के भविष्य पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है।
कुल मिलाकर, अवधेश कुमार का यह लेख कॉन्स्टिट्यूशन क्लब की वर्तमान स्थिति पर एक गंभीर और आवश्यक टिप्पणी है। यह न केवल इसके पतन को उजागर करता है, बल्कि इसे पुनर्जनन की दिशा में ले जाने की आवश्यकता पर बल देता है। इस लेख के लिए अवधेश कुमार को श्रेय देना होगा, जिन्होंने एक संवेदनशील मुद्दे को साहसपूर्वक उठाया और लोकतांत्रिक विमर्श की संस्कृति को पुनर्जनन की आवश्यकता को रेखांकित किया।