साइकिल के बिना शहर: मोटर वाहनों की अंधी दौड़ में दम तोड़ती आगरा की सांस

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आगरा जब दुनिया भर में 3 जून को वर्ल्ड बाइसिकल डे मनाया गया, तो तमाम देशों में साइकिल रैलियों, जागरूकता अभियानों और इंफ्रास्ट्रक्चर सुधारों की गूंज सुनाई दी। वहीं, आगरा में यह दिन किसी सामान्य दिन की तरह चुपचाप गुजर गया — न कोई आयोजन, न कोई सार्वजनिक संदेश। शहर की सड़कों पर हावी कारें और धुएँ का गुबार साफ बताते हैं कि आगरा में साइकिल की कोई जगह नहीं बची।

एक समय था जब आगरा को सस्टेनेबल ट्रांसपोर्ट के लिए एक आदर्श माना जाता था। लेकिन अब साइकिल चलाना यहाँ एक जोखिम भरा काम बन चुका है। न कोई साइकिल लेन है, न ही कोई संरक्षित स्पेस। पर्यावरणविद् देवाशीष भट्टाचार्य का कहना है, “शहर की योजना पूरी तरह कारों और भारी वाहनों के लिए बनाई गई है। साइकिल सवारों और पैदल यात्रियों को योजना में कहीं जगह नहीं मिली।”

शहर की भीड़भाड़ वाली सड़कों पर ट्रैफिक इतना हावी है कि पैदल चलना भी मुश्किल हो गया है। साइकिल चलाना अब एक साहसिक खेल जैसा लगने लगा है। इसके बावजूद हजारों छात्र, किसान और मजदूर आज भी साइकिल पर निर्भर हैं — क्योंकि उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। लेकिन इनकी सुरक्षा और सुविधा को लेकर प्रशासन उदासीन है।

हर साल आगरा की सड़कों पर सैकड़ों लोग साइकिल या पैदल यात्रा करते समय दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं। बावजूद इसके, शहरी योजना केवल चौड़ी और तेज रफ्तार वाली सड़कों के इर्द-गिर्द घूमती है — जो निजी कारों और टूरिस्ट बसों के लिए आदर्श हैं, आम नागरिकों के लिए नहीं।

यह विरोधाभास खासतौर पर वर्ल्ड बाइसिकल डे पर खटकता है। जबकि विशेषज्ञ बताते हैं कि साइकिलिंग से हृदय रोग, तनाव, ट्रैफिक और प्रदूषण — चारों से राहत मिलती है, आगरा में इन सबकी भरमार है। यहाँ साइकिल सवारों को सड़क के कोने में धकेल दिया जाता है या फिर खुले नालों और गड्ढों से भरे रास्तों पर चलने को मजबूर किया जाता है।

कुछ साल पहले आगरा के पास उम्मीद की एक किरण दिखी थी — जब यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 207 किलोमीटर लंबा ग्रीन साइकिल कॉरिडोर (इटावा से आगरा) बनवाया था। इस पर 133 करोड़ रुपये खर्च हुए थे, जिसका मकसद था पर्यावरण को बचाना और एक स्वस्थ जीवनशैली को बढ़ावा देना।

लेकिन आज उस साइकिल ट्रैक का नामो-निशान मिट गया है। गाँवों में वह रास्ता गोबर सुखाने, वाहन खड़े करने और रोज़मर्रा के घरेलू कामों के लिए इस्तेमाल होता है। वहीं शहर में, फतेहाबाद रोड पर एयरपोर्ट से ताजमहल तक की सड़क चौड़ी करने के लिए उस ग्रीन ट्रैक को ही मिटा दिया गया। जिस हरित मार्ग पर सस्टेनेबिलिटी की उम्मीद थी, वह कारों की स्पीड और पर्यटन की सुविधा की बलि चढ़ गया।

साइकिल, जो कभी आम आदमी की जान थी, अब एक ‘लाइफस्टाइल एक्सेसरी’ बन चुकी है। सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर कहती हैं, “साइकिल अब रोज़मर्रा का साधन नहीं रही। सिर्फ कुछ मध्यम आयु वर्ग के लोग फिटनेस के लिए पार्कों में चलाते हैं।” छात्र अब मोटरसाइकिलों और स्कूटरों को प्राथमिकता देते हैं, जबकि किसान लोडिंग वाहनों की ओर बढ़े हैं।

एक ऐसे शहर में जहाँ प्रदूषण के चलते सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा — ताजमहल को बचाने के लिए — वहाँ पर्यावरण-मित्र साइकिल को हाशिये पर डाल देना समझ से परे है।

आगरा की शहरी योजना निजी वाहनों को प्राथमिकता देती है। प्रमुख सड़कों पर साइकिल लेन नहीं हैं, फुटपाथों पर अतिक्रमण है या वे गड्ढों से भरे हैं। ज़ेब्रा क्रॉसिंग और ट्रैफिक सिग्नलों की हालत भी दयनीय है। ऐसे में साइकिल सवारों और पैदल यात्रियों को अपनी सुरक्षा खुद करनी पड़ती है।
इस लापरवाही का नतीजा है – हर साल साइकिल चालकों और पैदल यात्रियों से जुड़ी दुर्घटनाओं में बढ़ोतरी। लेकिन प्रशासन इन्हें “अलग-अलग घटनाएँ” मानता है, कोई बड़ी समस्या नहीं। रोड सेफ्टी अभियानों में हेलमेट की बात होती है, लेकिन समग्र इंफ्रास्ट्रक्चर की बात कोई नहीं करता।

यह कोई धन की कमी की कहानी नहीं है। अगर एक्सप्रेसवे, फ्लाईओवर और पार्किंग प्रोजेक्ट्स पर खर्च होने वाले बजट का थोड़ा-सा हिस्सा साइकिल लेन, सुरक्षित फुटपाथ और बेहतर सिग्नेज पर लगाया जाए, तो आगरा फिर से एक मॉडल सिटी बन सकता है।
लेकिन दुर्भाग्य से, शहर अभी भी “पर्यटन केंद्रित विकास” के जाल में फँसा है। यहाँ स्थानीय नागरिकों की जरूरतें पीछे छूट गई हैं। 133 करोड़ की एक महत्वाकांक्षी परियोजना के बर्बाद हो जाने पर कोई चर्चा तक नहीं होती — यही बताता है कि शहर के नियोजकों की प्राथमिकताएँ कितनी विकृत हैं।

हमें यह समझना होगा कि साइकिल कोई पुरानी चीज़ नहीं, बल्कि वर्तमान की जरूरत है — खासतौर पर शहरी गरीबों के लिए। यह जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध सबसे सरल समाधान है, एक स्वस्थ जीवन की दिशा है, और ट्रैफिक समस्या की सशक्त दवा भी।
आगरा को अगर साफ हवा, सुरक्षित सड़कें और खुशहाल नागरिक चाहिए, तो उसे साइकिल के लिए जगह बनानी ही होगी। जब तक साइकिल को मुख्यधारा में नहीं लाया जाता, तब तक यह शहर मशीनों का रहेगा — इंसानों का नहीं।

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Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

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