दर्शन श्रीधर मिनी की किताब ‘रेटेड ए: सॉफ्ट-पोर्न सिनेमा एंड मीडिएशन्स ऑफ डिजायर इन इंडिया’ की समीक्षा

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कोच्चि। दर्शन श्रीधर मिनी की हालिया पुस्तक रेटेड ए: सॉफ्ट-पोर्न सिनेमा एंड मीडिएशन्स ऑफ डिजायर इन इंडिया (यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया प्रेस, 2024) भारतीय सिनेमा के एक कम चर्चित लेकिन महत्वपूर्ण पहलू—मलयालम सॉफ्ट-पोर्न सिनेमा—पर गहन शोध और विश्लेषण प्रस्तुत करती है। यह किताब 1990 के दशक में केरल में उभरे सॉफ्ट-पोर्न फिल्मों के उदय, उनके सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव, और वैश्विक संदर्भ में उनकी खपत की पड़ताल करती है। मिनी, जो विस्कॉन्सिन-मैडिसन विश्वविद्यालय में फिल्म की सहायक प्रोफेसर हैं, ने इस पुस्तक में दशक भर के शोध, अभिलेखीय सामग्री, और क्षेत्रीय अध्ययन को समेटा है।

पुस्तक का केंद्रीय विषय मलयालम सॉफ्ट-पोर्न सिनेमा है, जो 1980 और 1990 के दशक में केरल के सिनेमाई परिदृश्य में एक विशिष्ट शैली के रूप में उभरा। मिनी इस शैली को केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं रखतीं, बल्कि इसे सामाजिक, लैंगिक, और आर्थिक संदर्भों में विश्लेषित करती हैं। वह स्थानीय और वैश्विक प्रभावों—जैसे कि मलयालम पल्प फिक्शन, सचित्र कामुक कहानियां, और अमेरिकी शोषण सिनेमा—के योगदान को रेखांकित करती हैं। यह शैली मध्य पूर्व में भारतीय प्रवासियों, विशेषकर ब्लू-कॉलर श्रमिकों, के बीच पायरेटेड प्रतियों के माध्यम से व्यापक रूप से प्रचलित हुई, जिसने इसे एक क्षेत्रीय सांस्कृतिक घटना से वैश्विक स्तर पर ले गया।मिनी की लेखन शैली आकर्षक और विद्वतापूर्ण है, जो इस जटिल विषय को रोचक ढंग से प्रस्तुत करती है। वह सॉफ्ट-पोर्न उद्योग की असुरक्षित श्रम संरचना और इसमें शामिल अभिनेत्रियों व कर्मियों के सामाजिक जीवन की चुनौतियों को उजागर करती हैं। किताब यह भी दर्शाती है कि कैसे ये फिल्में लैंगिकता, सेंसरशिप, और आयात नीतियों के बीच तनावपूर्ण संवाद का हिस्सा थीं। मिनी का तर्क है कि सॉफ्ट-पोर्न केवल एक सिनेमाई शैली नहीं, बल्कि सामाजिक संबंधों और लैंगिक कल्पनाओं का एक व्यापक क्षेत्र है।

पुस्तक की ताकत इसके व्यापक शोध और विविध दृष्टिकोण में निहित है। यह न केवल फिल्म इतिहासकारों के लिए, बल्कि लैंगिकता, प्रवास, और सांस्कृतिक अध्ययन में रुचि रखने वालों के लिए भी महत्वपूर्ण है। समीक्षकों ने, जैसे कि स्क्रॉल.इन और किताब.ऑर्ग पर प्रकाशित लेखों में, इसकी गहन अंतर्दृष्टि और आकर्षक कथन की प्रशंसा की है। हालांकि, कुछ पाठक इसे अकादमिक दृष्टिकोण के कारण जटिल पा सकते हैं।

कुल मिलाकर, रेटेड ए भारतीय सिनेमा के एक अनदेखे पहलू को सामने लाती है और इसे वैश्विक संदर्भ में रखकर एक नया दृष्टिकोण प्रदान करती है। यह पुस्तक सिनेमा, लैंगिकता, और सामाजिक गतिशीलता पर विचार करने के लिए एक अनिवार्य पाठ है।

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