दिल्ली। देश की राजनीतिक इतिहास में 1946 का कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव एक ऐसी घटना है, जिसे अक्सर “पहली वोट चोरी” के रूप में याद किया जाता है। इस चुनाव में सरदार वल्लभभाई पटेल को 15 में से 12 प्रादेशिक कांग्रेस समितियों (पीसीसी) का समर्थन मिला, जो उन्हें स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित करने के लिए पर्याप्त था। हालांकि, महात्मा गांधी के हस्तक्षेप के बाद जवाहरलाल नेहरू को इस पद पर बिठाया गया, जिसे कई इतिहासकार और राजनीतिक विश्लेषक एक तरह की “वोट चोरी” के रूप में देखते हैं।
ऐतिहासिक साक्ष्य
1946 का कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव: कांग्रेस पार्टी के दस्तावेजों से पता चलता है कि despite गांधीजी के नेहरू के पक्ष में खुले तौर पर समर्थन के बावजूद, 12 पीसीसी ने पटेल को नामांकित किया। बाकी तीन ने नामांकन प्रक्रिया से परहेज किया। नेहरू को किसी भी पीसीसी द्वारा नामांकित नहीं किया गया था।
गांधी का हस्तक्षेप: 20 अप्रैल 1946 को, गांधीजी ने नेहरू के पक्ष में अपना विकल्प स्पष्ट किया, और इसके बाद पटेल से अपनी उम्मीदवारी वापस लेने को कहा गया, जिसे उन्होंने तुरंत मान लिया।
जनमत का नजरिया: प्रख्यात इतिहासकार राजमोहन गांधी, जो पटेल की सबसे प्रामाणिक जीवनी के लेखक हैं, ने कहा कि पार्टी के भीतर पटेल का समर्थन स्पष्ट था।
समकालीन समानता
आज, नेहरू-गांधी परिवार की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर फिर से सवाल उठ रहे हैं। 1946 की घटना को दोहराते हुए, यह आरोप लगाया जा रहा है कि परिवार बिना किसी योग्यता के एक बार फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी हासिल करना चाहता है, जिसे नेहरू की तरह “वोट चोरी” के रूप में देखा जा रहा है।
राहुल गांधी की महत्वाकांक्षा: हाल के समय में, कांग्रेस पार्टी के भीतर और बाहर से यह धारणा बन रही है कि राहुल गांधी, नेहरू के वंशज होने के नाते, प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखते हैं, भले ही जनता का समर्थन उनके पक्ष में न हो।
पार्टी का प्रभाव: नेहरू-गांधी परिवार का कांग्रेस पार्टी पर लंबे समय से प्रभाव रहा है, और यह प्रभाव आज भी जारी है, जिसे कई लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर करने के रूप में देखते हैं।
1946 की घटना में, पटेल को पार्टी के भीतर व्यापक समर्थन मिला, लेकिन गांधी के हस्तक्षेप ने नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया, जिसे “वोट चोरी” के रूप में देखा जाता है। आज, नेहरू-गांधी परिवार की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं फिर से सवालों के घेरे में हैं, और 1946 की घटना को दोहराने का डर व्यक्त किया जा रहा है। यह देश के लोकतांत्रिक मूल्यों और नेतृत्व चयन की प्रक्रिया पर गंभीर सवाल खड़े करता है।