देश में जो अभूतपूर्व घटा, उसे आम जन के लिए समझना किया है सुलभ

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आचार्य मिथिलेशनन्दिनीशरण जी

लखनऊ। काशी ने एक बार पुनः अपना वैशिष्ट्य प्रमाणित किया है। एक प्रतिभाशाली वैदिक छात्र ने शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिनीय शाखा के चालीस अध्यायों का दण्ड क्रम पारायण पूरा किया है।

यह पारायण वेद के विकृति-पाठ के अन्तर्गत किया जाता है। यहाँ यह जानने योग्य है कि वेद मन्त्र और अर्थ के विशिष्ट विज्ञान में नियोजित हैं। इस कारण वेदों को छः अंगों में प्रबन्धित किया हुआ है, वे छः अंग शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष हैं। ये अंग वेद के शुद्ध उच्चारण, उसकी लयात्मकता एवं उसमें निहित प्रयोग विधि का निर्दोष व्यवहार सुनिश्चित करते हैं। वेदार्थ के अनुसन्धान की ही भाँति वेदों का समुचित पाठ भी विशिष्ट ज्ञान द्वारा ही सम्भव होता है।

वेदपाठ की दो मुख्य पद्धतियाँ हैं, पहली पद्धति है प्रकृति और दूसरी पद्धति है विकृति। प्रकृति-पाठ के तीन भेद हैं – संहिता, पद तथा क्रम । विकृति-पाठ के आठ भेद हैं – जटा, माला, शिखा, रेखा, ध्वज, दण्ड, रथ एवं घन।

जटा माला शिखा रेखा ध्वजो दण्डो रथो घनः।

अष्टौ विकृतयः प्रोक्ताः क्रमपूर्वा महर्षिभिः॥

मन्त्रद्रष्टा ऋषियोँ की भाँति इन पाठभेदों के भी भिन्न-भिन्न ऋषि बताये गये हैं। वेदपाठ के माहात्म्य को भी इन पाठ-पद्धतियों के आधार पर निरूपित किया गया है। दण्डक्रम का परिचय देते हुए कहा गया है-

क्रममुक्ता विपर्यस्य पुनश्च क्रममुत्तमम्।
अर्द्धर्चादेव मुक्तोयं क्रमदण्डोऽभिधीयते॥

अर्थात् अनुक्रम से दो पदों के पाठ के बाद व्युत्क्रम से क्रमशः एक-एक पद का पाठ बढ़ाते हुए आधी ऋचा तक यह पाठ चलता है। क्रम के पश्चात् व्युत्क्रम, पुनः क्रम तत्पश्चात् उत्तर पद क्रम। यह आधे-आधे मन्त्र का किया जाता है । उदाहरण के लिए देखें-
ओषधयः सम्। समोषधयः।

ओषधयः सम् । सं वदन्ते । वदन्ते समोषधयः।
ओषधयः सम्। सं वदन्ते। वदन्ते सोमेन। सोमेन वदन्ते समोषधयः।
ओषधयः सम्। सं वदन्ते। वदन्ते सोमेन। सोमेन सह। सह सोमेन वदन्ते समोषधयः।
ओषधयः सम्। सं वदन्ते। वदन्ते सोमेन। सोमेन सह। सह राज्ञा। राज्ञा सह सोमेन वदन्ते समोषधयः।
ओषधयः सम्। सं वदन्ते। वदन्ते सोमेन। सोमेन सह। सह राज्ञा। राज्ञेति राज्ञा।

उत्तरपद क्रम –
यस्मै कृणोति। कृणोति यस्मै।
यस्मै कृणोति। कृणोति ब्राह्मणः। ब्राह्मणः कृणोति यस्मै।
यस्मै कृणोति। कृणोति ब्राह्मणः। ब्राह्मणस्तम्। तं ब्राह्मणः कृणोति यस्मै।
यस्मै कृणोति। कृणोति ब्राह्मणः। ब्राह्मणस्तम्। तं राजन्। राजंस्तं ब्राह्मणः कृणोति यस्मै।
यस्मै कृणोति कृणोति ब्राह्मणः। ब्राह्मणस्तम्। तं राजन्। राजन् पारयामसि। पारयामसि राजंस्तं ब्रह्मणः कृणोति यस्मै।
यस्मै कृणोति। कृणोति ब्रह्मणः। ब्राह्मणस्तम्। तं राजन्। राजन् पारयामसि। पारयामसोति पारयामसि॥
पचास दिनों में इस संहिता की 1975 कण्डिकाओं के 3988 मन्त्रों का कण्ठस्थ पाठ सम्पन्न करने वाले ब्रह्मचारी हैं श्री देवव्रत महेश रेखे। संस्कारशील वेदाध्यायी पिता के पुत्र श्री रेखे काशी में वल्लभराम शालिग्राम सांगवेद विद्यालय के छात्र हैं। उनका यह कार्य वैदिक शिक्षा एवं उसमें निहित अनुशासन का प्रमाण बना है। इस पारायण ने उन्हें प्रभूत यश दिया है। वे इसके पात्र हैं। माननीय प्रधानमन्त्री ने उनके इस कार्य की सराहना की है। मुख्यमन्त्री जी ने उन्हें सम्मानित किया है। एक अच्छे विद्यार्थी का रूप समाज के सम्मुख आया है। कुल मिलाकर यह आनन्द और आशा का संचार करने वाला प्रसंग है।

तथापि, इस अहोरूपमहोध्वनिः के बाद यह सोचना बाकी रह जाता है कि वेद क्या केवल पाठ है ? लक्षात्मक वेद के कुछ हज़ार मन्त्रों का व्यवस्थित अध्ययन हो जाने पर भी यह एक व्यक्ति की उपलब्धि से अधिक कैसे चरितार्थ होगा। हमारा संविधान, हमारी सरकारें और हमारा समाज वेद को एक कुतूहल से अधिक कितना समझ पा रहा है। जागरूक लेखक Sarvesh जी ने इस सन्दर्भ की सराहना करते हुए बड़ी सच्चाई से लिखा है कि “उन्नीस साल के उस किशोर ने क्या उपलब्धि प्राप्त की है, यह स्पष्ट नहीं समझ पाया हूँ।” धर्मप्राण भारत देश अपना मूल वेदों में कहता है – ‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्’ फिर भी यहाँ बहुसंख्य जन वेदों से अपरिचित ही हैं।

सोशल प्लेटफार्म पर इस अवसर का उत्सव दिखाई दे रहा है, bro और guys वाली लॉबी भी मगन है। यह सब प्रतीकात्मक रूप से तो अच्छा है, पर क्या हम वास्तव में किसी वैदिक युग में प्रवेश कर रहे हैं। श्रुति-स्मृति-पुराणेतिहास का अध्ययन-अध्यापन क्या हमारी सरकार अंगीकार करने जा रही है। स्वातन्त्र्य-पूर्व से कुल-परम्परा को नष्ट करने हेतु प्रतिबद्ध हमारी सामाजिक चेतना क्या गुरुकुलों को पुनर्जीवित करने को प्रस्तुत है। इस दण्डक्रम पारायण से जगे हुए उत्साह को देखकर यह झाग बैठ जाने की ओर भी ध्यान जाने लगता है।

दोयम दर्जे के नागरिक हुए संस्कृत छात्र, गाली की भाँति अपने कुलीन आस्पद ढोते ब्राह्मण, पीढ़ियों से कपट और गैरबराबरी के षडयन्त्र का अपमान सहते पण्डित क्या किसी स्वर्णयुग में प्रवेश करने जा रहे हैं। इस समय प्रचलित दावे के अनुसार जो पारायण सौ-दो सौ सालों में एक बार सम्भव हुआ है, उससे वैदिक युग पुनः आने वाला है क्या।

मुझे लगता है, यह विद्यार्थी की मेधा का उत्सव है। यह एक पुण्यशील माता-पिता की सिद्धि है। यह एक योग्य आचार्य का आशीर्वाद है। यह आश्वस्ति है कि बीज का नाश नहीं होता, पर बीज के दाने से भण्डारा नहीं होता। उसके लिये खेती और अच्छी उपज की अपेक्षा होती है और अनुकूल ऋतु की भी।
इण्टरनेट की हाइप और सोशल मीडिया अल्गोरिदम के छलावे के बाद, मुकुट और माला की चित्रावलियों के बाद इस प्रसंग की फलश्रुति क्या होगी। यह अप्रतिम छात्र जब अपने रटे हुए मन्त्रों के अर्थ समाज-जीवन में खोजने निकलेगा तो उसे क्या मिलेगा। जातीय जनगणना कराती सरकारें, जातिवाद मिटाने को संकल्पित संविधान, जन्मगत श्रेष्ठता को अमान्य करता समाजशास्त्र तथा कुल-गोत्र को निरस्त करते लोगों के बीच इस उत्साह की कोई वास्तविक भूमि भी है क्या।

सोचना चाहिए।
बधाई हो आयुष्मान् देवव्रत महेश रेखे, हमें इस पारायण में उपस्थित होने का आग्रह था, इच्छा भी थी पर सम्भव नहीं हुआ। पुनः बधाई..धर्मशील माता-पिता और यशस्वी गुरु भी वन्दनीय हैं।

इस उल्लास की अर्थवत्ता का विचार हो सके इसकी शुभकामना। प्रतीकात्मक स्वागत से आगे बढ़कर इस परम्परा की प्रतिष्ठा हो सके ऐसी आशा। (सोशल मीडिया से साभार)

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