संस्थागत धोखे की कला: वामपंथी इतिहासकारों का भगवाकरण का झूठा नैरेटिव

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भुवन भास्कर

दिल्ली। फ्रॉड कोई भी हो सकता है – संघी भी और वामपंथी भी. लेकिन वामपंथियों के फ्रॉड की एक विशिष्ट विशेषता है कि उनका फ्रॉड संस्थागत और सिस्टमैटिक होता है. अरुण शौरी ने अपनी पुस्तक Eminent Historians में एक घटना का जिक्र किया है, जो बहुत रोचक है. घटना इस प्रकार है.

1999 में अटल बिहारी वाजपेई की सरकार बनने के बाद वामपंथियों ने इस बात पर बहुत बवाल मचाया की RSS और सरकार इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश कर रहे हैं. इसके लिए बकौल ‘वामपंथी बुद्धिजीवी’ – सरकार ने भारतीय इतिहास शोध परिषद (ICHR) के Memorandum of Association (MoA) के मूल 1972 संस्करण में संशोधन कर RATIONAL शब्द की जगह NATIONAL शब्द डाल दिया था. द एशियन एज, इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, द हिंदू, आउटलुक जैसे कांग्रेसी–वामपंथी अखबारों से लेकर वामपंथी मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी ने पूरे देश में इतिहास और ऐतिहासिक शोध के भगवाकरण पर नाच–नाच कर डंका पीटना शुरू कर दिया था. पीपुल्स डेमोक्रेसी में इस बारे में ‘महान इतिहासकार’ KN पाणिकर ने लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने बार-बार यह आरोप दोहराया था कि RATIONAL शब्द को बदलकर NATIONAL कर दिया गया है.
अरुण शौरी लिखते हैं कि उन्होंने मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सचिव को फोन किया और उनसे इस बारे में पूछा. सचिव महोदय ने बताया की सरकार ने ऐसा कोई बदलाव नहीं किया है. शौरी ने MoA स्वयं देखने का निर्णय लिया. उसमें सचमुच नेशनल शब्द का प्रयोग था. अब सवाल यह था की क्या वाजपेई सरकार ने यह बदलाव किया था और यदि यह सही था तो क्या मंत्रालय के सचिव झूठ बोल रहे थे. यह जानने के लिए पिछले सालों का MoA देखना जरूरी था. शौरी ने जब पीछे के वर्षों का MoA देखना शुरू किया, तो पाया कि 6 अक्टूबर 1987 यानी 11 साल पहले जब इरफान हबीब को ICHR का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था तब जारी मंत्रालय के बयान में भी “‘to give a national direction to an objective and NATIONAL presentation and interpretation of history….” लिखा गया था. साल 1991 में इरफान हबीब को फिर से नियुक्त करने और 1994 में रवीन्द्र कुमार को ICHR का अध्यक्ष बनाने के समय मंत्रालय ने जो बयान जारी किए थे, उनमें भी बार–बार यही लाइन दोहराई गई थी.

शौरी के मुताबिक, तब उन्होंने मंत्रालय के सचिव से पिछले वर्षों के दस्तावेजों को खंगालने में किसी को लगाने का अनुरोध किया और यह पाया कि दरअसल 1978 में यानी 20 वर्ष पहले ही RATIONAL शब्द बदलकर नेशनल हो गया था. यह दरअसल किसी टाइपिस्ट की गलती थी जो साल दर साल दोहराई जाती रही. उस दौरान वामपंथियों द्वारा महानता के शिखर पर स्थापित किए गए तमाम इतिहासकार ICHR में सदस्य बनते रहे और अध्यक्ष बनते रहे. इंदिरा गांधी के समय गलती से हुआ यह बदलाव राजीव गांधी, वीपी सिंह, और नरसिंह राव सहित कई प्रधानमंत्रियों के काल में मानव संसाधन विकास मंत्रालय या शिक्षा मंत्रालय के बयानों में और ICHR के दस्तावेजों में इसी रूप में दर्ज होता रहा. लेकिन जब अटल बिहारी वाजपेई की सरकार बनी तब एकाएक इन फ्रॉड कांग्रेसी–वामपंथी बुद्धिजीवियों के दिमाग की बत्ती जल गई और हंगामा शुरू हुआ कि सरकार इतिहास का भगवाकरण कर रही है.

शौरी यह भी बताते हैं की जब इस तथ्य के साथ उन्होंने आउटलुक के संपादक विनोद मेहता और वामपंथी मुखपत्र के इतिहासकार KN पाणिकर से बात की, तो जहां मेहता ने तथ्यों की जांच कर वापस संपर्क करने की बात कही वहीं पाणिकर ने विक्टिम कार्ड खेलने की कोशिश करते हुए यह कहा कि मैं शौरी की तरह बीजेपी का सांसद नहीं हूं, जिसकी पहुंच पुराने दस्तावेजों तक हो. मेहता ने भी ना तो अपनी खबर का खंडन छाप और ना वापस शौरी से बात की.

ये है पढ़ने लिखने वाले वामपंथियों की सच्चाई. हर विमर्श गढ़ने में इनकी रणनीति यही होती है, जिसमें कोई एक वामपंथी किसी मनगढ़ंत कहानी का प्रायमरी सोर्स बन जाता है और फिर इनका पूरा गिरोह इस आधार पर एक दूसरे को कोट करते हुए (एक दूसरे का संदर्भ देते हुए) चारों तरफ अपना झूठा फैलाना शुरू कर देता है. संस्थानों पर दशकों के कब्जे और सत्ता के संरक्षण ने इन पोपले ज्ञानियों को इतना महान बना दिया है की फिर इनके कहे को काटने की हिम्मत किसी में रहती नहीं और इनका झूठ 100 सच पर भारी लगने लगता है.

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