ये गाड़ियां, जो कभी शान की सवारी हुआ करती थीं, अब सड़क के किनारे ‘स्थायी निवास’ बना चुकी हैं। इनके मालिकों को शायद यह भी नहीं पता कि उनकी गाड़ी की वजह से कोई एम्बुलेंस फंसी होगी या किसी की मीटिंग छूटी होगी। लेकिन भला हो दिल्ली की पुलिस का, जो इन गाड़ियों को देखकर ऐसे आंखें मूंद लेती है, जैसे कोई योगी ध्यान में लीन हो।
सवाल यह है कि जब बैंक लोन देने से पहले आपकी जेब, नीयत और भविष्य की कमाई तक की जांच करता है, तो गाड़ी बेचने वाली एजेंसियां क्यों नहीं पूछतीं, “भाई, गाड़ी तो ले जा, पर रखेगा कहां?” क्या भारत में गाड़ी खरीदना इतना आसान हो गया है कि बस पैसे दो और सड़क को अपना गैरेज बना लो? दिल्ली की हर कॉलोनी में सड़क किनारे गाड़ियों की कतार ऐसी है, मानो कोई ऑटोमोबाइल म्यूजियम खुला हो। एमसीडी अगर इन गाड़ियों से सौ रुपये महीने का किराया भी वसूले, तो शायद दिल्ली का बजट ही बदल जाए। लेकिन फिर जाम का क्या? वह तो दिल्ली की शान है, जैसे ताजमहल आगरा की!
दिल्ली की कुछ गलियां ऐसी हैं, जहां तीन गाड़ियां आराम से निकल सकती हैं, लेकिन अवैध पार्किंग की कृपा से एक स्कूटर भी मुश्किल से गुजरता है। नतीजा? हॉर्न की सिम्फनी, गालियों की माला और जाम में फंसे लोगों का धैर्य-टेस्ट। समाधान? शायद गाड़ी बेचने वालों को पार्किंग सर्टिफिकेट मांगना चाहिए, या फिर दिल्ली में हर गाड़ी के साथ एक ‘जाम योगदान’ टैक्स लगे। आखिर, दिल्ली में जाम नहीं तो क्या, और गाड़ियां सड़क पर नहीं टिकीं तो कहां टिकेंगी?