भारतीय राजनीति में कुछ ऐसे मनीषी हुये जो अपने जीवन में बहुत शांत और सरल लेकिन अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे। श्री गुलजारी लाल नंदा ऐसे विलक्षण राजनेता थे, जो तीन बार देश के ग्रहमंत्री और दो बार कार्यकारी प्रधानमंत्री रहे फिर भी अपना निजी मकान नहीं बना पाये और न उन्होंने अपने किसी परिवारिक सदस्य को राजनीति में बढ़ावा दिया ।
श्री गुलजारी लाल नंदा का पूरा जीवन शांत, सात्विक और संकल्पनिष्ट रहा है । भारतीय राजनीति में वे ऐसे विरले राजनेता थे जो सत्ता की भव्यता और उच्चतम अधिकार प्राप्त करके भी साधारण रहे । उनकी सादगी और सिद्धांत के प्रति दृढ़ रहने के प्रसंग समय समय पर अनेक लेखकों और पत्रकारों ने लिखे हैं। वे शांत रहते थे, कम बोलते थे और सुनते अधिक थे । मतभेद होने पर विवाद नहीं करते थे, अपना मार्ग बदल लेते थे । राजनीति से मार्ग बदलने का भी यही कारण था । प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाधीँ से उनके मतभेद हुये । वे शांत रहे । 1971 के लोकसभा चुनाव में प्रचार भी किया और परिणाम के तुरन्त बाद राजनीति से संयास लेने की घोषणा कर दी । वे अपने राजनैतिक और सार्वजनिक जीवन में कितने सरल और ईमानदार थे इसका वर्णन एक पुस्तक “भारत के प्रधानमंत्री” में है । इस पुस्तक के लेखक अपने समय के वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई हैं। उन्होंने लिखा है कि जब नंदाजी ने राजनीति छोड़ी तो उनके पास आजीविका का कोई साधन नहीं था । आर्थिक कठिनाई के बीच वे अक्सर दिल्ली के कनॉट प्लेस में बस स्टॉप पर बस का इंतजार करते दिख जाते थे। सामान्य और सरल जीवन शैली का उनके जीवन का एक प्रसंग अपने समय बहुत चर्चित रहा है । राजनीति से संन्यास लेकर वे नई दिल्ली की फ्रेंड्स कॉलोनी में किराये का घर लेकर रहने लगे थे । लेकिन कुछ स्थिति ऐसी बनी कि किराया न दे पा रहे थे, किराया चढ़ा तो मकान मालिक मकान खाली कराने के लिये झगड़ा करने लगा । मोहल्ले के लोग एकट्ठे हो गये । उनमें एक पत्रकार भी थे । अगले दिन यह समाचार प्रमुखता से छपा तो अधिकारी और राजनेता उनके निवास पर पहुँचे। सबने उनसे शासकीय आवास में आने को कहा । पर उन्होंने इंकार कर दिया । उन दिनों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को पाँच सौ रुपये प्रतिमाह सम्मान निधि दी जाती थी । नंदाजी इस निधि को यह कहकर अस्वीकार कर दिया था कि उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में किसी सम्मान निधि केलिये भाग नहीं लिया था । लेकिन इस घटना के बाद उन्होंने यह निधि स्वीकार की । और इसी निधि में वे अपना खर्च चलाते थे । नंदाजी श्रीमद्भगवत गीता का नियमित पाठ करते थे, भगवान श्रीकृष्ण उनके ईष्ट थे । समय के साथ कुरुक्षेत्र आ गये । कुरुक्षेत्र वहीं स्थान जहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवत गीता का उपदेश दिया था । नंदा जी ने स्वयं को कुरुक्षेत्र के विकास के लिये समर्पित कर दिया । उन्होंने कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड का गठन करके कार्य आरंभ किया । आज कुरुक्षेत्र का जो व्यवस्थित स्वरूप हम देखते हैं । यह नंदाजी के कारण ही विकसित हुआ। उनके प्रयासों से कुरुक्षेत्र आज विश्व के प्रमुख पर्यटक और पुरातात्विक महत्व के स्थलों के रूप में जाना गया । उन्होंने लगभग बाईस वर्ष तक कुरूक्षेत्र की सेवा की । वृद्धावस्था और स्वास्थ्य की गिरावट के बाद भी वे कुरुक्षेत्र विकास के लिये समर्पित रहे । उन्होंने “नवजीवन संघ”और “मानव धर्म मिशन” जैसी संस्थाओं की नींव रखी ।
राजनेता के साथ नंदाजी की पहचान एक लेखक के रूप में भी रही । उनकी मुख्य पुस्तक रचनाओं में “आस्पेक्ट्स ऑफ खादी”, “अप्रोच टू द सेकंड फ़ाइव इयर प्लान”, “गुरु तेगबहादुर”, “संत एंड सेवियर”, “हिस्ट्री ऑफ़ एडजस्टमेंट इन द अहमदाबाद टेक्सटाल्स” और “फॉर ए मौरल रिवोल्युशन तथा सम बेसिक कंसीड्रेशन” हैं। भारत सरकार ने 1997 में उन्हें सर्वोच्च सम्मान “भारत रत्न” से सम्मानित किया ।
संक्षिप्त जीवन परिचय
ऐसी विलक्षण प्रतिभा के धनी श्री गुलजारीलाल नंदा का जन्म 4 जुलाई 1898 को सियालकोट में हुआ था । अब यह क्षेत्र पाकिस्तान में है। पिता बुलाकी राम नंदा शिक्षक थे और माता श्रीमती ईश्वर देवी भारतीय परंपराओं के प्रति समर्पित ग्रहणी थीं। गुलजारी लाल जी की प्राथमिक शिक्षा सियालकोट में हुई । इंटर की पढ़ाई लाहौर के ‘फोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज’ में तथा आगे कला संकाय में स्नातकोत्तर एवं क़ानून की पढ़ाई इलाहाबाद से की । पढ़ाई के बीच में ही अठारह वर्ष की आयु में इनका विवाह लक्ष्मी देवी के साथ हुआ । समय के साथ दो पुत्र और एक पुत्री के पिता बने ।
जब वे इलाहाबाद में अपनी वकालत की पढ़ाई के साथ ही स्वाधीनता आँदोलन से जुड़ गये थे। पढ़ाई पूरी करके मुम्बई आये । यहाँ नेशनल कॉलेज में व्याख्याता हो गये । लेकिन यहाँ अधिक न रुक सके । वहाँ से अहमदाबाद आये । अहमदाबाद में टेक्सटाइल्स इंडस्ट्री लेबर एसोसिएशन के सचिव के रूप में जुड़ गये । इस संस्था के सचिव के रूप में वे श्रमिक वर्ग के समीप आये, उनकी व्यवसायिक और व्यक्तिगत समस्याओं से जुड़े और इस वर्ग के प्रति सदैव संवेदनशील रहा । समय के साथ गाँधी जी के निकट आये । वे गाँधी जी के चिंतन और सादगी से बहुत प्रभावित हुये और अपने सार्वजनिक जीवन में गाँधीजी को ही अपना आदर्श मानते थे । नंदाजी ने गाँधी के आव्हान पर प्रत्येक आँदोलन में हिस्सा लिया । इनमें 1921 के असहयोग आँदोलन के साथ 1932 में सत्याग्रह और 1942 का अँग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन भी था । वे तीनों आँदोलन जेल भी गये । अंग्रेजी काल में हुये आंतरिक विधानसभा चुनावों में वे
नंदा बॉम्बे विधानसभा क्षेत्र से 1937 से 1939 तक और 1947 से 1950 तक विधायक रहे। इस दौरान उन्होंने मुम्बई सरकार में श्रम एवं आवास मंत्रालय का कार्यभार भी संभाला। 1947 में काँग्रेस की श्रमिक इकाई ‘इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ की स्थापना नंदा जी पहल पर हुई थी।
स्वतंत्रता के बाद जब वे 1951 में राष्ट्रीय योजना समिति के सदस्य बने । योजना समिति और आयोग में अशासकीय संस्थाएँ भी सहभागी बने, इसके लिये नंदाजी ने अशासकीय व्यक्तियों का एक नेटवर्क तैयार किया । जो आगे चलकर भारत सेवक समाज के रूप में उभरा । भारत सेवक समाज के गठन के बाद भारत साधु समाज की नीव भी नंदाजी ने रखी । इसके अतिरिक्त मानव धर्म मिशन, श्री सनातन महावीर दल, रास्ट्रीय लोक सेना, कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड, भारतीय संस्कृति रक्षा संस्थान,नव जीवन संघ ,भारतीय जाग्रत समाज,श्री कृष्ण आयुर्वेदिक फार्मेसी, मानव धर्म सम्मेलन जैसी लगभग दो दर्जन संस्थाओं के गठन का श्रेय भी नंदा जी को जाता है । नंदा जी चाहते थे कि शासकीय योजनाओं, नीति निर्माण और उनके क्रियान्वयन में जन भागीदारी हो । इसके लिये लगभग दो दर्जन संस्थाओं का गठन कर समाज के विभिन्न वर्ग समूहों के अशासकीय व्यक्तियों को जोड़ा । योजना आयोग के साथ वे केन्द्रीय मंत्री भी बने । केन्द्रीय मंत्री रहते हुये भी योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे । भारत की आरंभिक पंचवर्षीय योजना बनाने का श्रेय भी नंदा जी को जाता है । 1957 से 1967 तक सिंचाई, रोजगार, योजना आदि विभिन्न विभागों के केंद्रीय मंत्री रहे । 1963 में केन्द्रीय ग्रहमंत्री मंत्री का प्रभार भी उनके पास रहा । नंदाजी की छवि एक ईमानदार, कर्त्तव्यनिष्ट एवं अपने कार्य के प्रति समर्पित राजनेता के रूप में रही । वे मिलावट और भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ थे । उन्होंने अपने मंत्रालयों में कई ऐसी नीतियां दी जो विभागों प्ररेणा बनीं। वे भारत के तीनों आरंभिक प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और श्रीमती इंदिरा गांधी के मंत्रीमंडल में रहे और दो बार कार्यकारी प्रधानमंत्री बने । दोनों बार उनके कार्यकारी प्रधानमंत्री रहने की अवधि तेरह तेरह दिन रही । पहली बार 1964 में पं जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद और दूसरी बार 1966 श्री लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने। 1971 में उन्होंने राजनीति से संयास लिया और समाज सेवा में जुट गये । जीवन के अंतिम समय में वे अपनी बेटी के पास अहमदाबाद चले गये थे । अंत में सौ वर्ष की आयु में 15 जनवरी 1998 को उन्होंने संसार से विदा ली । उनके द्वारा संस्थापित कुछ संस्थाएँ आज भी समाज सेवा में सक्रिय हैं।