-डॉ. मयंक चतुर्वेदी
कोलकाता । बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों की स्थिति को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का हालिया वक्तव्य एक बार फिर उस असहज यथार्थ की ओर ध्यान खींचता है, जिसे लंबे समय से नजरअंदाज किया जाता रहा है। यह विषय कोई भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं है, न इसे किसी एक विचारधारा या राजनीतिक बयान के रूप तक सीमित किया जा सकता है। यह एक गंभीर मानवीय और सामाजिक प्रश्न है, जिसके केंद्र में बांग्लादेश में हिंदुओं की लगातार घटती संख्या, बढ़ती असुरक्षा और निरंतर पलायन की समस्या निहित है।
आंकड़े इस सच्चाई को स्पष्ट रूप से सामने रखते हैं। 1947 में विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं की जनसंख्या लगभग 22 से 23 प्रतिशत थी। 1971 में बांग्लादेश के स्वतंत्र होने के बाद यह घटकर लगभग 13 से 14 प्रतिशत रह गई। बांग्लादेश की हालिया जनगणनाओं और अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों के अनुसार आज यह जनसंख्या घटकर लगभग सात से आठ प्रतिशत के बीच सिमट चुकी है। विभिन्न सामाजिक अध्ययनों का अनुमान है कि पिछले सात दशकों में करीब तीन करोड़ हिंदू पूर्वी पाकिस्तान और फिर बांग्लादेश से पलायन कर चुके हैं। जिसमें कि यह पलायन रोजगार या आर्थिक अवसरों की तलाश में नहीं हुआ है, इसके पीछे भय, लक्षित हिंसा, धार्मिक असहिष्णुता, संपत्ति पर कब्जे और प्रशासनिक संरक्षण की कमी जैसे अनेक अनैतिक कारण जिम्मेदार हैं।
कहना होगा कि बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार की ये तमाम घटनाएं किसी एक समय या राजनीतिक सत्ता तक सीमित नहीं रहीं है, लगता है जैसे यहां ये सतत प्रक्रिया है, जिसमें लक्षित हिंसा किसी न किसी बहाने से हिन्दुओं पर ही की जाती है। कारण कोई भी क्यों न हो, मारा हिन्दू को ही जाएगा। मंदिरों पर हमले, धार्मिक आयोजनों के दौरान हिंसा, मूर्तियों का तोड़फोड़, हिंदू महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और जबरन उनका इस्लामिकरण जैसे यहां आम बात हो चुका है। मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्टें बताती हैं कि बीते एक दशक में सैकड़ों हिंदू धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुंचाया गया और अनेक मामलों में दोषियों को सजा नहीं मिली, सिर्फ तत्काल में दाषियों को पकड़ने का नाटक कर मामले को शांत करने भर का प्रयास किया जाता रहा है।
ऐसे माहौल में डॉ. मोहन भागवत का यह कहना कि बांग्लादेश के हिंदुओं को एकजुट रहना होगा और दुनिया भर के हिंदुओं को उनकी मदद के लिए आगे आना चाहिए, वास्तव में आज भावनात्मक अपील से अधिक यह एक सामाजिक यथार्थ की ओर संकेत करता है। उनका यह कथन कि हिंदुओं का एकमात्र देश भारत है, कूटनीतिक दृष्टि से भले ही संवेदनशील प्रतीत हो, किंतु इसके पीछे छिपा आशय यह है कि भारत की इस मुद्दे पर नैतिक जिम्मेदारी बनती है। भारत स्वयं को एक राजनीतिक इकाई तक कभी सीमित नहीं कर सकता है, क्योंकि वह एक सभ्यतागत राष्ट्र है। ऐसे में पड़ोसी देश में हिंदू अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों के प्रति उदासीन रहना न तो नैतिक रूप से उचित है और न ही व्यावहारिक रूप से दूरगामी परिणामों से मुक्ति ही देनेवाला मार्ग है। हालांकि यह भी उतना ही आवश्यक है कि इस समस्या के समाधान को केवल राजनीतिक हस्तक्षेप के दायरे में न देखा जाए। क्योंकि जब तक बांग्लादेश के हिंदू स्वयं संगठित होकर अपने अधिकारों और सुरक्षा की मांग नहीं करेंगे, तब तक कोई भी बाहरी प्रयास अधूरा ही रहेगा।
डॉ. भागवत द्वारा रूस यूक्रेन युद्ध का उल्लेख भी इसी यथार्थ की ओर संकेत करता है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में नैतिकता से अधिक शक्ति और हित निर्णायक होते हैं। कमजोर देश और कमजोर समुदाय अक्सर बड़े संघर्षों के शिकार बनते हैं। यही कारण है कि आत्मनिर्भरता और सामर्थ्य पर उनका जोर सिर्फ भारत के लिए ही नहीं सामने आया है, यह समूचे हिंदू समाज के लिए प्रासंगिक है। वस्तुत: भारत और वैश्विक हिंदू समाज के लिए यह अवसर है कि वे संसाधनों, ज्ञान और शांतिपूर्ण प्रयासों के माध्यम से बांग्लादेश के हिन्दुओं को सशक्त बनाने में भूमिका निभाएं।
डॉ. मोहन भागवत का वक्तव्य इस दिशा में एक संकेत भी है और एक अवसर भी। यदि इसे भावनात्मक बहस से ऊपर उठाकर सामाजिक संगठन, संतुलित कूटनीति और जिम्मेदार वैश्विक सहयोग के आधार पर आगे बढ़ाया जाएगा तभी बांग्लादेश में हिंदुओं की दुर्दशा के अंत की दिशा में कोई ठोस पहल संभव हो सकेगी।अन्यथा बातें तो बहुत की जा सकती हैं, बात तो तब है जब इन बातों का कोई ठोस परिणाम निकले। जिसमें कि फिलहाल परिणाम देना हिन्दू समाज में किसी एक इकाई के बस की बात नजर नहीं आती है, इसके लिए सभी को एकजुट होने की जरूरत है, जिसकी ओर डॉ. मोहन भागवत आज बार-बार इशारा कर रहे हैं। आगे आप समझदार हैं, जो सही लगे वो करना ही है, अन्यथा पिटते रहिए, कुटते रहिए, रोते रहिए और अपने लोगों को दीपू चन्द्रन दास की तरह खोते रहिए!



