गांधीदर्शन
दिल्ली । कभी अमेरिका के राष्ट्रपति रहे बराक ओबामा से पूछा गया “अगर आपको जीवन में सिर्फ एक बार किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के साथ भोजन करने का मौका मिले, तो आप किसे चुनेंगे?”और ओबामा ने जवाब दिया—“महात्मा गांधी।”
यह उत्तर चकित करता है। दुनिया की महाशक्ति का सबसे शक्तिशाली आदमी आखिर एक ऐसे बूढ़े व्यक्ति जिसे दुनिया से गए इतने साल हो गए उनके साथ बैठकर क्यों लंच करना चाहता है?
शायद इसलिए कि गांधी की शक्ति उन चीज़ों में थी, जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं, हम ग्लैमर, पैसा, ताकत और बाहरी दिखावे से प्रभावित होते हैं जबकि ओबामा के पास सब कुछ था इसके बावजूद वे गांधी के नैतिक साहस, संवेदना और मनुष्य की आत्मा तक पहुँचने की क्षमता से प्रभावित हुए।
गांधी की प्रासंगिकता किसी पद या पदक की देन नहीं; उनकी आवश्यकता इसलिए महसूस की जाती है क्योंकि समय बार-बार उसी मोड़ पर लौट आता है जहाँ मनुष्य खुद से पूछता है “हम किस दिशा में जा रहे हैं?”
आज दुनिया के डेढ़ सौ देशों में लगी उनकी मूर्तियाँ केवल इतिहास की निशानी नहीं हैं; वे चेतावनी की घंटियाँ हैं कि समाज जब हिंसा, भय और विभाजन में उलझने लगता है, तो कोई एक धीमी सी आवाज़ फिर से पुकारती है और कहती है कि “सत्य और अहिंसा सिर्फ आदर्श नहीं, हमारे अस्तित्व का आधार हैं।”
दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला ने 28 साल जेल में बिताए। बाहर निकलकर उन्होंने अपने ही अत्याचारी राष्ट्रपति डी क्लार्क जिसने मंडेला को जेल भेजा था को ही दक्षिण अफ्रीका का उपराष्ट्रपति बनने का निमंत्रण दे दिया और डी क्लार्क ने स्वीकार भी कर लिया। यह कोई राजनीतिक रणनीति नहीं थी—यह गांधी की उस सीख का प्रभाव था जिसमें क्षमा शक्ति बनती है, और संवाद टूटे हुए समाज का पुनर्निर्माण करता है। इस बात को शायद हम भारत के लोग भूल गए हैं। हम यह भी भूल गए हैं कि नेल्सन मंडेला ने कहा था कि आपने हमें मोहनदास दिया था हमने उस मोहनदास को महात्मा गांधी बनाया।
अमेरिका में कुछ साल पहले एक स्कूल में हुई भयावह गोलीबारी में कई मासूम बच्चों की मौत ने पूरे विश्व को हिला दिया था। उस घटना के बाद जब राष्ट्रपति बराक ओबामा टीवी पर राष्ट्र को संबोधित करने आए, तो वे शुरुआती दो मिनट तक एक शब्द भी नहीं बोल पाए—केवल आँसू थे और गहरा मौन। बाद में उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा कि उस घड़ी उन्हें बार-बार महात्मा गांधी की छवि याद आ रही थी, जैसे गांधी उनसे पूछ रहे हों—“अंधाधुंध भौतिक दौड़ में तुमने अपने ही देश का क्या रूप बना दिया है?”
ओबामा लिखते हैं कि तब उन्हें पहली बार महसूस हुआ कि दुनिया की महाशक्ति का राष्ट्रपति होने के बावजूद वे उस सामाजिक सच के सामने बिल्कुल एक साधारण इंसान की तरह खड़े थे—बेबस, दुखी और स्तब्ध।
उन्होंने स्वीकार किया कि यह हिंसा किसी बाहरी दुश्मन की उपज नहीं, बल्कि अपने ही समाज में पैदा हुए उस खालीपन का परिणाम है जहाँ युवाओं के जीवन से मूल्य और संवेदनाएँ धीरे-धीरे मिटते जा रहे हैं। गांधी जैसे कह रहे थे—“ये लड़के आतंकवादी नहीं हैं, यह तुम्हारे समाज के भीतर का ख़ालीपन है जो उन्हें हिंसा की ओर धकेल रहा है।”
अक्सर हम पश्चिम को असंवेदनशील कहकर एक आसान स्पष्टीकरण चुन लेते हैं, जबकि हिरोशिमा पर बम गिराने वाला अमेरिकी पायलट अपराध-बोध से टूटकर खुद आत्महत्या करके समाप्त हो गया। यह भी गांधीवादी प्रभाव है जो यह कहता है कि तुम कब तक अपने दिल पर नफरत और हिंसा का बोझ लादे रहोगे?
संवेदनहीनता किसी भूगोल की नहीं होती;
वह मनुष्य की आत्मा से दूरी बढ़ने का परिणाम है।
गांधी का लम्बा जीवन पश्चिम में बीता, पर वे किसी एक सभ्यता के प्रतिनिधि नहीं बने।
वे उस मानवीय विवेक के दूत बने, जो हर महाद्वीप में समान रूप से जरूरी है। इसीलिए गांधी “मरकर भी नहीं मरते।” जैसे जैसे समाज में कठोरता भरती है,हिंसा बढ़ने लगती है,समय कठिन होने लगता है—गांधी फिर लौट आते हैं।
उनकी छाया का साया और अधिक लंबा हो जाता है।
हम गांधीजी को चाहें या न चाहें, उनकी सजीव उपस्थिति हमें खुद से यह पूछने पर मजबूर करती है कि “सत्ता की दौड़ में हम क्या खो रहे हैं? प्रगति के शोर में हम कौन-सी संवेदनाएँ पीछे छोड़ रहे हैं?”
गांधी इसलिए प्रासंगिक हैं क्योंकि मनुष्य आज भी वही है।उसकी आवश्यकताएं, जीवनमूल्य वही हैं। मनुष्य चाहे जैसा हो वह अपने जीवन के अर्थ की तलाश में रहता है। और जब दुनिया के कोलाहल में कोई आवाज़ कहती है “अहिंसा कमजोरी नहीं, मनुष्य की सबसे बड़ी ताकत है,”तो हम समझ जाते हैं कि गांधी किसी देश की संपत्ति नहीं, समय की जरूरत हैं।



