-डॉ. मयंक चतुर्वेदी
दिल्ली । दुनिया एक बार फिर ऐसे प्रश्नों के सामने खड़ी है, जिनसे मुँह मोड़ना अब संभव नहीं। 14 दिसंबर को ऑस्ट्रेलिया की राजधानी सिडनी के बॉन्डी बीच पर हनुक्का उत्सव मना रहे यहूदियों पर हुआ घातक हमला सिर्फ एक आतंकी घटना नहीं कहा जा सकता है । यह तो उस वैचारिक संकट का प्रतीक है जो बीते दशकों से लगातार गहराता जा रहा है। साजिद और उसके बेटे नवीद द्वारा की गई इस अंधाधुंध गोलीबारी में 15 निर्दोष लोगों की मौत और कई के घायल होने के बाद यह सवाल फिर उभरा है कि आखिर वह कौन-सी सोच है जो धार्मिक पहचान के आधार पर हिंसा को सही ठहराती है। जिसमें कि यह घटना ऐसे देश में घटी है , जहाँ न मुसलमानों पर कोई अत्याचार हो रहा था और न ही धार्मिक स्वतंत्रता पर कोई संकट है। इसके बावजूद गैर-मुसलमानों को निशाना बनाया गया।
ऑस्ट्रेलिया की इस घटना के बाद नवीद अकरम का छह वर्ष पुराना एक वीडियो सामने आया है जो उसकी मानसिक संरचना को समझने में मदद करता है। वीडियो में वह कहता है कि “अल्लाह का कानून हर पढ़ाई और हर काम से ऊपर है और उसे हर किसी तक पहुँचाया जाना चाहिए।” यह वाक्य साधारण नहीं है। यह उस सोच का प्रतिबिंब है, जिसमें सांसारिक शिक्षा, आधुनिक कानून और नागरिक कर्तव्यों से ऊपर एक धार्मिक (मजहबी) कानून को स्थापित किया जाता है। यही वह बिंदु है, जहाँ समस्या केवल व्यक्ति की नहीं रह जाती है, वह विचारधारा की बन जाती है।
यह प्रश्न स्वाभाविक है कि “अल्लाह का कानून” आखिर है क्या। इस्लाम में इसे व्यापक रूप से शरिया के रूप में जाना जाता है। मुसलमानों के लिए यह धार्मिक आस्था से अधिक जीवन जीने की संपूर्ण पद्धति मानी जाती है। इसी क्रम में सीरा, यानी पैगंबर मुहम्मद की जीवनी को आदर्श जीवन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस्लामी ग्रंथों की कुछ व्याख्याएँ ऐसी भी हैं, जिनमें दुनिया को मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच स्पष्ट रूप से विभाजित किया गया है। गैर-मुस्लिम क्षेत्रों को ‘दारुल-हरब’ कहा गया है, यानी युद्ध का क्षेत्र। ऐसी व्याख्या में प्रमुखता से जिहाद शामिल है, जिसमें यह मान लिया गया है कि जो इस्लाम को स्वीकार नहीं करता, वह ‘शिर्क’ और ‘बुतपरस्ती’ के ज़ुल्म में लिप्त है और उस ज़ुल्म को समाप्त करना हर मुसलमान का मजहबी कर्तव्य है। इस दृष्टिकोण में हिंसा आत्मरक्षा नहीं रहती, वह आक्रामक मजहबी अभियान बन जाती है।
यही कारण है कि इतिहास से लेकर वर्तमान तक, जिहाद शब्द का प्रयोग अक्सर हथियारबंद संघर्ष के अर्थ में हुआ है। कुरान का नौवां अध्याय, जो जिहाद पर केंद्रित माना जाता है, युद्ध और संघर्ष के संदर्भों से भरा है। कुरान (9:111) में ‘अल्लाह के काम’ के लिए ‘कत्ल करना और कत्ल होना’ का उल्लेख मिलता है। इसी अध्याय की आयतें—9:5, 9:29, 9:41, 9:73, 9:123 आक्रामक संघर्ष के आह्वान के रूप में उद्धृत की जाती रही हैं। हदीस-साहित्य में भी ऐसे कथन मिलते हैं, जिनका उपयोग वर्चस्ववादी दृष्टि को पुष्ट करने में किया गया है। उदाहरण के तौर पर सहीह बुखारी (4:53:392) में उद्धृत कथन, “तुम सुरक्षित रहोगे, अगर इस्लाम कबूल कर लो। यह पूरी दुनिया अल्लाह की और मेरी है” को इतिहास में यहूदियों और अन्य गैर-मुसलमानों पर दबाव के औचित्य के रूप में पढ़ा गया है।
इसी प्रकार कुरान के दूसरे अध्याय की कुछ आयतों की व्याख्याएँ गैर-मुसलमानों को अधीन करने, धर्मांतरण या जजिया के लिए मजबूर करने के रूप में प्रस्तुत की गई हैं। यही कारण है कि सदियों के इस्लामी इतिहास में ‘हथियारबंद लड़ाई’ और ‘जिहाद’ को अक्सर समानार्थी की तरह समझा गया। इन आयतों की व्याख्या को लेकर विद्वानों में मतभेद हो सकते हैं, किंतु यह तथ्य नकारा नहीं जा सकता कि कट्टरपंथी समूह इन्हीं व्याख्याओं को आधार बनाकर हिंसा को धार्मिक वैधता प्रदान करते हैं।
इसी पृष्ठभूमि में भारत में जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी द्वारा दिए गए हालिया जिहाद संबंधी वक्तव्य को जरूर देखना चाहिए, उनका कहना है कि “जब-जब ज़ुल्म होगा, तब-तब जिहाद होगा” और यह कि जिहाद का मूल अर्थ आत्मसंघर्ष, बुराइयों से मुक्ति और अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध है। वे इसे एक पवित्र शब्द बताते हैं और यहां तक प्रस्ताव रखते हैं कि जिहाद के वास्तविक अर्थ को स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। सिद्धांत रूप में यह बात आकर्षक लग सकती है, किंतु व्यवहार की धरातल पर जो हो रहा है, वह इन दावों से मेल नहीं खाता। न भारत में और न ही ऑस्ट्रेलिया में ऐसी कोई स्थिति थी, जिसे जुल्म कहकर हिंसा को जायज ठहराया जा सके। फिर भी निर्दोष गैर-मुसलमानों की हत्या का सिलसिला पूरी दुनिया में चल रहा है!
कहना होगा कि इस वैचारिक ढांचे का परिणाम आज पूरी दुनिया झेल रही है। जम्मू-कश्मीर में लगातार हिंदू यात्रियों और सुरक्षा बलों पर हमले हों, यूरोप में चर्चों, यहूदी केंद्रों और स्कूलों को निशाना बनाया जाए, रूस के मॉस्को कॉन्सर्ट हॉल में सामूहिक हत्या हो या अफ्रीका में गैर-मुस्लिम गांवों पर धावा बोलना रहा है, हर जगह देख सकते हैं कि आतंकियों की धार्मिक (मजहबी) पहचान अक्सर एक जैसी ही रही है। यह कहना अब कठिन हो गया है कि ये सब अलग-थलग घटनाएँ हैं।
यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि इस आलोचना का उद्देश्य पूरे मुस्लिम समाज को कटघरे में खड़ा करना नहीं है। दुनिया भर में करोड़ों मुसलमान शांति से रहते हैं और हिंसा के विरोधी हैं। किंतु यह भी उतना ही सच है कि जब तक इस्लाम के भीतर मौजूद कट्टर और आक्रामक व्याख्याओं पर खुली बहस और आत्मालोचना नहीं होगी, तब तक यह समस्या समाप्त नहीं होगी। हर हिंसक घटना के बाद सिर्फ यह कह देना कि “इस्लाम शांति का धर्म (मजहब) है” अब पर्याप्त नहीं है, क्योंकि सवाल धर्म के मूल संदेश का नहीं, उसकी राजनीतिक और हिंसक व्याख्या का है। इसलिए वास्तविक संकट हथियारों से कहीं अधिक आगे उस सोच का है जो यह मानती है कि पूरी दुनिया किसी एक धार्मिक (मजहबी) पहचान के अधीन होनी चाहिए। यही सोच युवाओं को यह सिखाती है कि हिंसा पुण्य (सवाब) या अमल-ए-सालिह है और हत्या मजहबी कर्तव्य। यदि इस मानसिकता की जड़ों पर प्रहार नहीं किया गया तो कोई भी सुरक्षा तंत्र, कोई भी कानून और कोई भी सैन्य कार्रवाई स्थायी समाधान नहीं दे सकती है।
अब निर्णय दुनिया के धार्मिक नेताओं, सरकारों और बौद्धिक वर्ग को लेना है। आखिर वे क्या चाहते हैं ? क्या वे इस समस्या को कानून-व्यवस्था का मामला मानते रहेंगे या उस वैचारिक खाद को भी चिन्हित करेंगे, जिससे यह हिंसा जन्म लेती है। गैर-मुसलमानों पर हिंसा हर हाल में रुकनी चाहिए। यह किसी एक देश या एक समुदाय तक सीमित समस्या नहीं है, आज प्रश्न संपूर्ण मानवता का है। यदि आज भी इस पर गंभीर, ईमानदार और साहसी हस्तक्षेप नहीं हुआ तो तय मानिए कल इसकी कीमत और अधिक निर्दोष लोगों को जान एवं हिंसा से चुकानी पड़ेगी।



