दुर्गावती से युद्घ में ही मारा गया था शेरशाह सूरी

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Credit: Agnivaan

सामान्यतः हम रानी दुर्गावती को गोंडवाना की महारानी के रूप में जानते हैं । और यह भी जानते हैं कि उन्होंने अकबर के आक्रमण का पुरजोर उत्तर दिया था वे हर युद्ध जीतीं। अंततः अकबर के सेनापति आसफ खाँ की कुटिल रणनीति का शिकार बनीं थीं और बलिदान हुईं। पर यह कितने लोग जानते हैं कि आक्रांता शेरशाह सूरी की मौत कालिंजर के युद्ध में वीरांगना दुर्गावती के प्रहारों से ही हुई थी ।

कालिंजर का किला उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में स्थित है । इस किले और कालिंजर का इतिहास भारत में हर युग की घटनाओं से जुड़ा है । यदि पुराण काल में विविध नामों से कालिंजर का उल्लेख मिलता है तो मौर्य और गुप्त काल में भी कालिंजर का उल्लेख आता है । यह कालिंजर का आकर्षण ही है कि लगभग प्रत्येक आक्रांता ने यहाँ हमला बोला । लूटेरे मेहमूद गजनवी, अलाउद्दीन खिलजी, बाबर, शेरशाह अकबर, औरंगजेब आदि सबकी कुदृष्टि कालिंजर पर रही । आक्रांताओं द्वारा कालिंजर क्षेत्र लूट, हत्याओं और आतंक मचाने की घटनाओं से इतिहास भरा है । लेकिन किला अजेय रहा । किला जीतने की नियत से ही शेरशाह सूरी ने कालिंजर पर हमला बोला था । शेरशाह यूँ तो जौनपुर के एक जागीरदार का लड़का था लेकिन अपने छल कपट, हिँसा और आक्रामकता के लिए पूरे भारत में जाना जाता है । उसने उत्तर, मध्य और पश्चिमी भारत की अधिकांश रियासतों पर उसने हमला बोला और विजयी रहा । यह वही शेरशाह सूरी है जिसने 1539 में चौसा के युद्ध में हुमायूँ को हराकर मुगल सल्तनत पर कब्जा कर लिया था । इसी के भय से हुमायूँ अफगानिस्तान की ओर भाग गया था । इसी शेरशाह सूरी ने 1545 में कालिंजर पर धावा बोला ।

रानी दुर्गावती का जन्म इसी कालिंजर के किले में हुआ था । वे कालिंजर के राजा पृथ्वी देव सिंह चंदेल की पुत्री थीं उनकी माता चित्तौड़ के सुप्रसिद्ध यौद्धा राणा साँगा की बहन थीं। रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को हुआ था वह विक्रमसंवतके अनुसार नवरात्र की अष्टमी का दिन था । इसलिये उनका नाम दुर्गावती रखा गया । वह अपने पिता और प्रभावशाली साम्राज्य की एक मात्र संतान थीं । उसी अनुरूप उनका लालन पालन बहुत लाड़ के साथ हुआ । उनके पिता अपनी प्रिय पुत्री में पुत्र की छवि भी देखते थे ।

उन्हे शास्त्र और शस्त्र विद्या की शिक्षा भी दी गयी । वन विचरण, सखियों के साथ आखेट भी वे निर्भय होकर करती थीं । बचपन से उनके साथ वीरांगनाओं की एक टोली थी । कालिंजर पर अक्सर हमले होते थे इस कारण वहां के नागरिकों में भी युद्ध कला शिक्षा का चलन हो गया था । आत्मरक्षा केलिये बेटियाँ भी शस्त्र संचालन सीखतीं थीं। इसी संघर्ष मय वातावरण में दुर्गावती बड़ी हुईं । वीरांगना दुर्गावती कितनी साहसी थीं इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे कृपाण से चीते का शिकार कर लेतीं थीं । उन्होने बचपन से युद्घ देखे थे वे मात्र ढाई साल की थीं तब बाबर ने आक्रमण किया था । उनकी माता ने इतिहास और पूर्वजों की वीरोचित परंपरा की कहानियाँ सुनाकर उन्हें बड़ा किया था । जब सोलह वर्ष की हुई तो 1542 में उनका विवाह गौंडवाना के दौलत शाह से हो गया । वे अपने मायके आईं हुई थी जब 1545 में शेरशाह का कालिंजर पर आक्रमण हुआ । शेरशाह के पास एक ऐसा तोपखाना था उसका मुकाबला देशी शासक नहीं कर पाते थे । यही उसकी जीत का रहस्य था । उसने कालिंजर पर घेरा डाला, तोपखाना गरजा, रसद रोकी और समर्पण का संदेश भिजवाया । शेरशाह ने पूरे रनिवास और कौषागार के साथ समर्पण की शर्त रखी। शेरशाह सूरी ने लगभग सभी रियासतों में ऐसा ही किया था । यही शर्त उसने यहाँ रखी । राजा पृथ्वी देव सिंह चंदेल ने समझौते का संदेश तो भेजा पर समर्पण से इंकार कर दिया । घेरा लगभग एक माह पड़ा रहा । अंत में शेरशाह ने तोपों से हमला करने का आदेश दिया और राजा ने द्वार खोलकर युद्ध करने का निर्णय लिया । भीषण युद्ध हुआ । युद्ध कुछ दिन चला अंत में राजा घायल हो गये । उन्हे अचेत अवस्था में भीतर लाया गया और पुनः किले के दरवाजे बंद कर लिये गये । किले के भीतर साका करने और जौहर की तैयारियां होंने लगी । पर माँ को चिंता अपनी विवाहित बेटी दुर्गावती की थी । वे किसी प्रकार उन्हेंसुरक्षित निकालकर गौंडवाना भेजना चाहतीं थीं ।

लेकिन वीरांगना दुर्गावती संकट में अपने माता पिता को छोड़ने केलिये तैयार नहीं थीं। उन्होंने किले की वीरांगनाओं से मिलकर एक योजना बनाई और किले के बुर्जे आईं उन्होंने समझौते का संदेश दिया । उन्होंने संदेश के साथ यह कहलाया कि वे स्वयं भी समर्पण के लिये तैयार हैं लेकिन शर्त यह है कि शेरशाह उनसे विवाह कर ले । किला अजेय था । घेरा पड़े एक माह हो गया था । इसलिए शेरशाह ने संदेश स्वीकार कर लिया और तोपों की गोलाबारी रोक दी गई। वस्तुतः वीरांगना दुर्गावती चाहतीं थीं कि शेरशाह किले पर तैनात तोपों की सीमा में आ जाये । उन्होने समर्पण की तैयारी के समय के बहाने अपनी वीरांगना टोली के साथ किले की दीवारों के नीचे तैयारी आरंभ कर दी । किले में बाजे बजने लगे मानों वीरांगना दुर्गावती शेरशाह से अपना दूसरा विवाह करके विदा हो रहीं हों ।

शेरशाह भी उत्साह में आ गया । अपनी तैयारी के बाद रानी ने शेरशाह को किले में आमंत्रण भेजा । शेरशाह को विश्वास हो इसके लिए बलिदानी वीरांगनाओ की टोली भेजी गई । जैसे ही शेरशाह वीरांगनाओं की इस टोली के साथ बाहर आया, किले की तोप की सीमा में आया । किले की तोप गरज उठी । शेरशाह धोखा धोखा कह कर उल्टा भागा लेकिन बच न सका एक तोप का गोला उसे लगा और मारा गया । इस प्रकार वीरांगना दुर्गावती की रणनीति से ही क्रूर हमलावर शेरशाह सूरी मारा गया । यह घटना 22 मई 1545 की है । हालांकि कुछ इतिहास कारों ने लिखा कि शेरशाह तोप के गोले से तो मारा गया पर वह कालिंजर के किले की नहीं खुद शेरशाह की तोप के गोले से मरा । जब शेरशाह ने धोखा धोखा कह कर तोप चलाने का आदेश दिया तब उक्का नामक तोप का गोला किले की दीवार से टकराकर बिना फटे पलटकर आया और शेरशाह पर गिरा । इन इतिहास कारों से यह प्रश्न किसी ने नहीं पूछा कि तोप के गोले में क्या हवा भरी थी जो पलटकर आ गया । तोप का गोला बिना फटे हमेशा किले की दीवार के आसपास ही गिरता है । खैर जो हो यदि यह मान भी लिया जाय कि शेरशाह अपनी ही तोप के गोले के पलटने से मरा तब भी यह तो स्पष्ट ही है कि उसकी मौत वीरांगना दुर्गावती की रणनीति और उन्ही से युद्घ करते हुये ही हुई थी ।

युद्ध के बाद रानी अपनी ससुराल गौंडवाना आ गयीं । तब गौंडवाना साम्राज्य मंडला, नागपुर से लेकर नर्मदा पट्टी तक था जिसमें आज के भोपाल, रायसेन, सीहोर, भोपाल और होशंगाबाद जिले भी आते हैं ।

एक वर्ष बाद उन्हे पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम वीरनायायण रखा गया । रानी का वैवाहिक जीवन लंबा न चला चार वर्ष बाद ही उनके पति की मृत्यू हो गयी । उन्होंने अपने तीन वर्षीय पुत्र वीर नारायण को सिंहासन पर बैठाया और राज काज संभालने लगीं । वे प्रजा वत्सल वीरांगना थीं । जबलपुर का आधारताल, चेरी ताल और रानीताल उन्हीं के कार्यकाल में बने । उनपर माँडू के सुल्तान बाज बहादुर ने तीन बार आक्रमण किया वह तीनों बार पराजित होकर भागा । अक्बर सेनापति आसफ खाँ का मुख्यालय इलाहाबाद था । उसने दो बार आक्रमण किया एक बार पराजित हुआ किंतु दूसरी बार उसने कूटनीति अपनाई । नरई नाले पर समझौते के लिये आमंत्रित किया । रानी जैसै ही नरई नाले पर आई पेड़ों के ऊपर पत्तितियों में छिपकर बैठे मुगल सैनिकों ने हमला बोल दिया । रानी पीछे हटकर नाले की ओर आईं और आक्रमण तेज हो गया । यहीं युद्ध करते हुये रानी का बलिदान हुआ यह 24 जून 1564 का दिन था ।

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रमेश शर्मा

रमेश शर्मा

श्री शर्मा का पत्रकारिता अनुभव लगभग 52 वर्षों का है। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों माध्यमों में उन्होंने काम किया है। दैनिक जागरण भोपाल, राष्ट्रीय सहारा दिल्ली सहारा न्यूज चैनल एवं वाँच न्यूज मध्यप्रदेश छत्तीसगढ प्रभारी रहे। वर्तमान में समाचार पत्रों में नियमित लेखन कर रहे हैं।

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