एक की बदकिस्मती, दूसरे का बोनस और सब की सांसों का बिल!

images-5.jpeg

पटना । सुबह अगर आंख खुलते ही जलन हो, जैसे किसी ने मिर्ची का स्प्रे मार दिया हो, गले में खराश चिपक जाए मानो कोई पुराना कर्ज़ वसूल करने आ गया हो, और फेफड़े ऐसे खांसें जैसे ईएमआई की आखिरी किस्त पर डिफॉल्ट हो गया हो, तो घबराइए मत! बधाई हो, आप “विकास-प्रदत्त ऑक्सीजन” का मजा ले रहे हैं। गहरी सांस लीजिए, ये बदबू नहीं, बल्कि “सक्सेस की सिग्नेचर फ्रेग्रेंस” है। मुफ्त की हवा है जी, और मुफ्त में जो मिले, वो सबसे प्रीमियम क्वालिटी का होता है, बस एक्सपायरी डेट चेक मत करना!

ईश्वर का लाख-लाख शुक्र कि वो “ओवर-प्योरिटी” का पिछड़ा जमाना खत्म हुआ, जहां हवा साफ होती थी और लोग बिना मास्क के घूमते थे। हमने सालों की मेहनत से ये ज्ञान अर्जित किया है कि प्रदूषण कोई समस्या नहीं, बल्कि “इम्युनिटी बूस्टर” है, जैसे वो महंगे सप्लीमेंट्स, बस ये फ्री में मिलता है। जो ज्यादा खांस रहा है, वही ज्यादा आगे बढ़ रहा है; जो सांस रोककर जी रहा है, वही असली योगी है। कोरोना तो बस ट्रेलर था, असली फिल्म तो ये रोज़ाना का स्मॉग-शो है!

स्मॉग? वो ग्रे चादर है जो हमें नीले आसमान की “टॉक्सिक पॉजिटिविटी” से बचाती है। नीला आसमान? उफ्फ! उससे विटामिन-D की ओवरडोज हो जाती थी, और ज्यादा सेहत तो किसी ग्लोबल साजिश से कम नहीं। स्मॉग हमें असली बराबरी सिखाता है: अमीर-गरीब सबकी आंखें जलेंगी, सांसें अटकेंगी, ये है असली “सबका साथ, सबका सफरिंग”! दिल्ली-NCR में तो स्मॉग इतना घना है कि लोग एक-दूसरे को देखकर कहते हैं, “भाई, तू तो फोटोशॉप्ड लग रहा है!” और वो AQI? 300, 400, 500 ? वो तो हमारा नेशनल प्राइड स्कोर है, जितना हाई, उतना हाई-क्लास!

हमारी नदियां भी अब शर्मीली पारदर्शिता छोड़कर “मल्टी-कलर थेरपी” में लग गई हैं। रंग-बिरंगी, झागदार, हैवी मेटल्स से लबालब, पूरी बॉडी डिटॉक्स पैकेज! एंड होली रिवर्स? वो अब “इंडस्ट्रियल स्पा” बन गई हैं, जहां फैक्टरियां अपना “वेस्ट” डंप करती हैं और हम “पवित्र स्नान” कहते हैं। साफ पानी? सिर्फ पूंजीवादी वहम था, असली पानी वही जो डॉक्टरों को अमीर बनाए, हॉस्पिटल्स को फुल रखे। यमुना पर फोम पार्टी? फ्री की है, बस स्विमिंग सूट की जगह PPE सूट पहनना!

जंगलों को हमने “आजादी” दी है, पेड़ों की बेड़ियां काटकर उन्हें “फ्रीडम फाइटर” बना दिया। वृक्ष तो प्रगति के रोडब्लॉकर थे, चिड़ियों की चहचहाहट ऑफिस प्रोडक्टिविटी में डिस्टर्बेंस। छाया? वो आलस्य फैलाती थी, अब सूरज की धूप में हम “नेचुरल टैनिंग” लेते हैं। पहाड़ों को नंगा करके हमने उनका असली मकसद उजागर किया: खनन, पूजन, बेचन, फिर डेवलपमेंट! भूस्खलन? यानी ग्रैविटी के चंगुल से मुक्ति । बाढ़? प्रकृति की “फ्लैशबैक” जहां पानी अपनी पुरानी यादें ताजा करने आता है, और हमारे घरों को फ्री वॉटर पार्क बना देता है। केदारनाथ, चमोली, ये तो बस ट्रेलर हैं, असली फिल्म तो हिमालय के माइनिंग प्रोजेक्ट्स में है!

हमारे प्रबुद्ध गुरु, जो मोटिवेशनल लेक्चर देते हैं, समझाते हैं कि बीमारी दुख नहीं, “ओपॉर्चुनिटी” है। वायरस? मेडिकल इंडस्ट्री के “एंजेल इन्वेस्टर”! जितनी महामारी, उतनी रिसर्च ग्रांट्स; जितनी खांसी, उतने फार्मा शेयर्स। अस्पतालों के गलियारे गुलजार, स्टॉक्स स्काईरॉकेट, बरकत हो तो ऐसी! कोविड ने हमें मास्क की “एकजुटता” सिखाई, अब स्मॉग ने N95 को नेशनल यूनिफॉर्म बना दिया। थोड़ा “मैनेज्ड पैनिक” जरूरी है, वरना नागरिक सवाल पूछने लगेंगे, like “ये फैक्टरियां क्यों नहीं बंद?” और सवाल? वो विकास के सबसे बड़े दुश्मन हैं, जीडीपी गिरा देते हैं!

गरीबी को हमने “रिब्रैंड” किया है, अब वो शर्म नहीं, “लाइफस्टाइल ब्रांड” है। ऑस्कर-विनिंग फिल्में बनती हैं, TED टॉक्स चमकते हैं। “मिनिमलिज्म” अनिवार्य: कम सामान, कम चिंता, टपकती छत “माइंडफुलनेस” सिखाती है, भूख “इंटरमिटेंट फास्टिंग”। क्या शानदार “सेल्फ-हेल्प” प्रोग्राम! उधर हमारे दूरदर्शी नेता “आकांक्षी प्रचुरता” का अभ्यास करते हैं, प्राइवेट जेट्स से उड़ते हुए, ट्रैफिक के ऊपर से। वे हमें बताते हैं कि ऊंचाई पर नैतिकता के नियम अलग: “नीचे वाले सांस लें या न लें, हम तो क्लीन एयर जोन में हैं!” शोर? वो परेशानी नहीं, “लाइफ का साउंडट्रैक”, हॉर्न, ड्रिल, बीप, सब कहते हैं, “सिस्टम जिंदा है!” शांति में तो “खतरनाक विचार” पैदा होते हैं, जैसे “पर्यावरण कानून लागू क्यों नहीं?”

इतिहास ने सिखाया: युद्ध ही शांति है (आर्म्स इंडस्ट्री चलती है), अज्ञानता ही ताकत (ज्ञान आज्ञाकारिता बिगाड़ देता है), और विनाश ही विकास (फोटोज अच्छी आती हैं, फंडिंग मिलती है)। फिर भी, खांसी, बाढ़ और सायरन के बीच एक मनहूस सवाल कौंधता है: क्या हमें ऐसी हवा की जरूरत नहीं जो आंखें न जलाए?

और हां, हमारे प्लास्टिक महासागर! वाह! समुद्र तटों की “मॉडर्न आर्ट” सजावट, मछलियों की “प्लास्टिक डाइट”, जो उन्हें “इवॉल्व” करा रही है। पक्षियों के रंगीन खिलौने, जो सदियों तक अमर रहेंगे, हमारी “उन्नति का इटरनल लोगो”। ट्रैफिक जाम? वो तो “सोशल नेटवर्किंग इवेंट”, घंटों कार में बैठकर फैमिली बॉन्डिंग, पड़ोसी से गपशप, हॉर्न की “सिम्फनी” में मेडिटेशन। तेज रफ्तार दुर्घटनाएं लाती थी, अब धीमी गति में “लाइफ का रस” घोलिए, और अगर स्टक हो गए, तो ऑनलाइन शॉपिंग कर लीजिए!

जलवायु परिवर्तन? प्रकृति का “सरप्राइज गिफ्ट बॉक्स”! लंबी गर्मियां, AC और स्विमिंग पूल बिकेंगे। बाढ़ का मतलब नए “एडवेंचर टूरिज्म” स्पॉट्स। सूखा यानी पानी की “ट्रू वैल्यू” समझ आएगी। बर्फ पिघले? बढ़िया! आर्कटिक में “लक्जरी रिसॉर्ट्स” खुलेंगे, इंडियन टूरिस्ट्स के लिए स्पेशल “मेल्टिंग आइस” पैकेज। कॉर्पोरेट देवता कहते हैं, प्रदूषण “आर्थिक विकास का मीठा फल” है, अस्पताल, दवाइयां, एयर प्यूरीफायर, मास्क, सबका बूमिंग बिजनेस! गरीबों को “फ्री स्मॉग”, अमीरों को “प्राइवेट जेट की शुद्ध हवा”, ये है असली “इनक्लूसिव ग्रोथ”! ये सड़न भी एक “फफूंद वाली दवा” है। हम सब इसके आदी हो चुके हैं, क्योंकि प्रगति का ये “हेल्दी पॉटलक” कभी खत्म नहीं होता, बस स्वाद बदलता रहता है: आज स्मॉग, कल प्लास्टिक, परसों… कौन जाने? चीयर्स टू मोर डेवलपमेंट! बस, सांस लेते रहिए, जब तक ले सकें!

Share this post

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top