एक निबन्धकार के रूप में दुष्यन्त

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मनोज श्रीवास्तव

एक निबंधकार के रूप में दुष्यंत को आप तभी पढ़ सकते हैं जब आप स्वयं ललित निबंधकार वाला अपना रेफरेंस फ्रेम हटा लें। वे जैसे अपनी गजलों में दो टूक खरी खरी बात कहते हैं, उसी तरह से अपने निबन्धों में भी। वे कभी भी वैचारिक रूप से छायावादी नहीं थे और सच कहें तो भारत में जो उधार का प्रगतिवाद आया, वे उसमें भी नहीं थे।

वैसे कुछ लोग उनके निबंधों को निबंध न कहकर लेख कहना पसन्द करेंगे लेकिन लेख तथ्यमूलक होता है और निबन्ध में वैयक्तिक परिप्रेक्ष्य, विश्लेषण, संश्लेषण और तर्क भी होता है। लेख में एक स्पष्ट , स्ट्रक्चर्ड फॉर्मेट होता है जबकि निबंध में एक चिंतनधारा, एक चिन्तन प्रवाह, एक रिफ्लेक्टिव फ्लो रहता है। निबंध में रचनाकार की आवाज ज्यादा सुन पड़ती है और उसमें एक अंतर्दृष्टि व अंतर्ध्वनि रहती है। इसलिए ललित निबंधकार न होकर भी दुष्यंत निबन्धकार तो हैं ही, भले ही उनका यह रूप उपेक्षा या अवहेलना का शिकार रहा हो, भले ही उनकी गजलकार के रूप में मिली सफलता ने उनकी Versatility के इस पक्ष को आवृत्त कर दिया हो, भले ही कवि के रूप में उनके यश ने उनके गद्य पर न केवल एक लंबी छाया फैला दी बल्कि पाठकों और आलोचकों को भी उनके शेरों के प्रति फिक्सेट कर दिया। वैसे भी गजलों की चुहल और शोखी के सामने निबन्धों के ज्यादा शान्त कमरों में बैठना वरीयता-विकल्प नहीं होता। हमारी आलोचना-दृष्टि कविता को ज्यादा पवित्र विधा मानती है और ललित निबन्धों को छोड़ दें तो निबन्ध लेखन को उपयोगितावादी कला मानती है। ललित निबन्ध की पावनता भी इसलिए बनी हुई है क्योंकि उस‌में कविता की रमणीयता है।

पर इसमें कोई शक नहीं कि यदि एक गजलगो के रूप में भी दुष्यन्त को समझना हो तो उनके निबन्धों को समझना चाहिए। इन निबंधों से दुष्यन्त के कवि का ईस्थेटिक फ़लसफ़ा समझा जा सकता है। इन निबंधों के विषय कितने ही वस्तुनिष्ठ हों, लेकिन उनसे दुष्यन्त के कवि की अंतश्चिन्ताएं समझने में आसानी से होती हैं और उनके विचार का विकास का क्रम भी समझा जा सकता है, बावजूद इसके कि उनके ये निबन्ध किसी भी रूप में उनके कवि का घोषणापत्र नहीं है जबकि उनका दौर तो वह था – याद कीजिये तारसप्तक कि कविता के पहले कवि का मेनीफेस्टो देने की परिपाटी ही चल निकली थी।

अब उनके निबंधों पर आएँ। 18-19 वर्ष की कच्ची आयु में लिखा गया उनका एक निबंध है: राष्ट्रोन्नति में सबसे बड़ी बाधा सिनेमा। यह निबंध 1949 में लिखा गया है। भारत अभी नया नया आजाद हुआ है। यहां दुष्यंत की चिंता जिस राष्ट्र शब्द को लेकर है, उस राष्ट्र शब्द को सुनकर ही आज के दौर में कुछ स्वनामधन्यों को जूड़ी की बुखार चढ़ आता है।मसलन अचिन विनायक कहते हैं: राष्ट्रीय स्वभाव और राष्ट्रीय हित एक बेहद दीली और बेकार अवधारणा है। यह केवल उच्च और मध्य वर्ग का स्वभाव है।”

कुछ और लोग हैं जिन्हें राष्ट्र ही नहीं दिखता भारत में। भारत राज्यों का एक संघ मात्र दिखता है। तब इस निबन्ध की याद करना जितना मार्मिक लगता है, उससे कहीं ज्यादा वह आवश्यक भी हो गया लगता है। दूसरे, आज पुराने दौर के सिनेमा को लोग लगभग नॉस्टल्जिक तरीके से देखते देखते हैं क्योंकि आज उसमें इतनी अश्लीलता, अभद्रता और बेहयाई है। उस पुराने सिनेमा पर उसके समकालीन बौद्धिक समाज की प्रतिक्रिया पढेंतो पता लगेगा कि ‘पुराणमित्येव न साधु सर्वम्’ की बात के मायने क्या थे, कि जो पुराना है, वह उसके अपने समय में पतनोन्मुख ही माना गया था। तीसरी बात जो इस निबंध को पढ़ते हुए मुझे लगी वह थी कि सिनेमा के समाज पर प्रभाव की चिन्ता। वह कोई सामाजिक क्षय या क्षरण नहीं है जो सिनेमा के कारण हुआ। अब जो उसका रूप या विद्रूप देखते हैं, वह एक सोशल प्लानिंग का हिस्सा था। यह भी ध्यान देने योग्य है कि सिनेमा से उस युवा दुष्यन्त की शिकायत उसकी हिंसा से नहीं है बल्कि उसके उन्हीं के शब्दों में कहूँ तो अस्वाभाविक और गंदे प्रेम से है और उसमें किए गए नारी चित्रण से है। वे इस निबन्ध में पूछते हैं कि “यही पुरुष वर्ग जो आज से कुछ दिनों पूर्व ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ का पाठ किया करता था, आज इतनी ओछी मनोवृत्ति का कैसे हुआ? केवल एक सिनेमा के कारण जिसने भारतीय नारी का रूप इतना बुरा बना दिया कि वह उपरोक्त दशा को पहुंच गई. ”

अब जो लोग मनुस्मृति वि. संविधान का मूर्खतापूर्ण द्वैत मचाए हुए हैं, उनके संतोष के लिए यह बता हूँ कि दुष्यन्त का यह निबंध संविधान के प्रवर्तन पूर्व लिखा गया था। इसलिए मनु की इस पंक्ति को उद्‌धृत करते समय दुष्यन्त के मन में वह कृत्रिम रूप से पैदा की गई ग्लानि या द्वैध नहीं था। संविधान प्रवृत्त भी होता तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उसका वादा मनु के उस आप्त वचन के ठीक विरोध में ही पड़ता। उसी असली आजादी के नाम पर ही सिनेमा दुष्यन्त के समय से कुछ और ज्यादा ही बेहया हो गया है। इस निबन्ध में वे फिल्म निर्माताओं की शिकायत जिस स्वर में करते हैं उससे फिर हमारे विकट वामपंथियों को चोट पहुंचेगी, वे कहते हैं: ” राष्ट्रीयता नाम से तो जैसे इन्हें चिढ़ है. वे तो केवल चाहते हैं- धनोपार्जन।” वे फिल्मों के कथाकारों और गीतकारों तक को इस निबंध में नहीं बख्शते।

उनका एक और महत्वपूर्ण निबन्ध ‘बस्तर : अविश्वास का स्रोत’ है। यह बस्तर के राजा प्रवीर भंजदेव और उनके समर्थक आदिवासियों पर राज्य द्वारा किए गए गोली-गलन के प्रसंग पर आधारित है। बस्तर हम जानते हैं कि वह जगह जहां माँ दंतेश्वरी के पवित्र उपवनों की जड़ें आदिवासियों के सपनों से जुड़ी थीं। राजा भंजदेव एक विशाल वट वृक्ष की तरह थे जिनकी शाखाएं आदिवासी आत्मा को आश्रय देती थीं। उनकी आवाज यह उम्मीद बंधाती थी कि भूमि की धड़कन को प्रगति की ठंडी मशीनरी से नहीं दबाया जाएगा। लेकिन 25 मार्च 1966 के उस दिन जो कुछ हुआ, उसने राज्य के प्रति एक स्थाई अविश्वास बस्तर के आदिवासियों के मन में भर दिया। इसलिए दुष्यंत के इस निबंध में ‘अविश्वास के स्रोत’ की बात सही ही की गई।

आधुनिक राज्य सिटीजनशिप को किनशिप से ज्यादा वरीयता देता है, प्रशासन को परंपरा से ज्यादा जबकि भंजदेव के लिए राज्य, जो अंततः मानचित्र की सीमाओं से भूक्षेत्र तय करता था, की तुलना में वह जनजातीयता वरेण्य थी जो भूमि से आध्यात्मिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध रखती थी । आधुनिक राज्य एक निवैयक्तिक मशीन है, लेकिन बरगद भंजदेव की जनजातीयता एक बरगद की तरह थी- पुराना लेकिन जीवित। तब राज्य ‘बिकमिंग’ था, बस्तर के आदिवासी स्मृति थे, बिइंग थे। वह घटना एक व्यक्ति और उसके समर्थकों की मौत नहीं थी, वह भारतीय जीवन का भ्रंश था, dislocation. एक कल्चरल डेथ। एक सांस्कृतिक अपमृत्यु।

दुष्यन्त के बहुत से निबन्ध उनके समय की साहित्यिक गुटबंदियों, साहित्य और सत्ता के अंतर्सम्बन्धों और पुरस्कार की राजनीति जैसे विषयों पर हैं। कई बार मुझे लगता है कि विलियम गोल्डिंग के लार्ड आफ द फ्लाइज़ उपन्यास के लड़कों के बीच की गुटबाजी से ये साहित्य के चार खेमे चौंसठ खूँटे वाली गुटबाजी कोई बहुत बेहतर नहीं है। जैसे वहां वह गुटबाजी केवल जीवित रहने की रणनीति नहीं है बल्कि भीतर के अंधकार की अभिव्यक्ति है, ठीक उसी तरह से साहित्य में गुटबाज़ी उज्ज्वल चेहरों के भीतर का तम या तामसिकता बताती है। होती प्रायः वह आत्म-रति ही है। फ्रायड के शब्दों में कहें तो narcissism of small differences. छोटे छोटे अंतरों की आत्मरति। सत्ता भी स्वयं के गुट बनाती हुई. नाटक और नियंत्रण, वर्चस्व और विश्वासघात के खेल। जैसे जार्ज ऑर्वेल के प्रसिद्ध उपन्यास एनिमल फार्म में जानवरों के गुट बत्ता और आदशों के पतन का रूपक रचते हैं, वैसे ही इन निबंधों में उस दौर के विघटन- या एंट्रोपी कहें-का चित्र है।

मैं नहीं कहता कि दुष्यन्त एक निबंधकार के रूप में अपनी कोई पहचान स्थापित कर पाए, पर उनके निबंध कुछ ऐसे सवाल उठाते हैं जो उनकी कविताएं और गजलें भी नहीं उठा सकीं। इन्हीं में उनका संतोष है, इन्हीं में उनकी संतृप्ति।

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