~ परिचय दास
दिल्ली । धुरंधर किसी पर्दे पर चलती हुई साधारण कथा नहीं बल्कि एक ऐसी गहरी साँस है जो दर्शक के भीतर उतरकर देर तक थमती नहीं। यह फिल्म इतिहास की राख से उठती हुई चिंगारी की तरह सामने आती है, जहाँ हर दृश्य एक जले हुए स्मृति-खंड की तरह चमकता है। यह फिल्म राष्ट्रवाद का नारा नहीं बल्कि राष्ट्र की पीड़ा का मौन आख्यान बनकर उभरती है। जब परदे पर कंधार कांड और संसद पर हमले की स्मृतियाँ उभरती हैं तो वे केवल घटनाएँ नहीं रहतीं, वे एक पूरे समय की घबराई हुई धड़कनों में बदल जाती हैं। इसी भय के गर्भ से “ऑपरेशन धुरंधर” जन्म लेता है — एक ऐसा मिशन, जो बाहर से गुप्त है, पर भीतर से अत्यंत नग्न और असहाय।
इस फिल्म का नायक कोई चमकता हुआ पोस्टर नहीं, बल्कि एक चलता-फिरता घाव है। रणवीर सिंह द्वारा अभिनीत हमज़ा अली मजहरी, या उसका भारतीय नाम, जैसे उसके भीतर दो मुल्क, दो पहचानें और दो आत्माएँ लगातार टकराती रहती हैं। वह सड़क पर चलता है तो उसके कदम नहीं, उसकी शंकाएँ आगे बढ़ती हैं। उसकी आँखें किसी रोमांच की तलाश में नहीं भटकतीं, वे हमेशा एक डरे हुए पक्षी की तरह आसपास के आकाश को नापती रहती हैं। वह जब पाकिस्तान की धरती पर उतरता है तो उसका पहला संघर्ष बाहर नहीं, अपने भीतर से शुरू होता है। उसे हर पल यह याद रखना है कि उसका चेहरा नक़ाब है, उसकी सांसें उधार हैं और उसका जीवन समय-सीमा के भीतर कैद है।
कराची का ल्यारी इलाका फिल्म में केवल एक जगह नहीं बल्कि एक मनोदशा की तरह रचा गया है। गली-गली फैला अँधेरा, दीवारों पर जमी घबराहटें, और हवा में घुली हुई बारूद की गंध—ये सब मिलकर एक ऐसा वातावरण बनाते हैं जहाँ इंसान होना ही एक जोखिम लगता है। यहीं उसका सामना होता है रहमान डकैत से, जिसे अक्षय खन्ना ने असाधारण संयम और आतंरिक निर्दयता के साथ जिया है। रहमान कोई चीखता-चिल्लाता अपराधी नहीं, वह शांत, योजनाबद्ध और अपने भीतर ठंडा पड़ा हुआ ज्वालामुखी है। उसकी आँखों में क्रूरता नहीं, बल्कि एक ठहरी हुई समझदारी है—जैसे उसने हिंसा को रोमांच नहीं बल्कि रोज़मर्रा की आवश्यकता मान लिया हो। जब हमज़ा उसके बेटे की जान बचाता है, तब वह केवल एक कृपा-पात्र नहीं बनता बल्कि उस शत्रु के घर का हिस्सा बन जाता है, जिसके भीतर उसे चुपचाप विस्फोट करना है।
इस फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यहाँ दुश्मन चीखते नहीं, यहाँ दुश्मन सोचते हैं और जब दुश्मन सोचने लगते हैं तब संघर्ष केवल हथियारों से नहीं, आत्मा से लड़ा जाता है। इस धुंधले संसार में मेजर इक़बाल का प्रवेश फिल्म को एक नई सिहरन देता है। अर्जुन रामपाल द्वारा निभाया गया यह किरदार किसी साधारण खलनायक की तरह नहीं आता, बल्कि किसी ठहरे हुए तूफान की तरह धीरे-धीरे छा जाता है। उसके शब्दों में जल्दबाज़ी नहीं, उसके फैसलों में भावुकता नहीं। वह आतंक को जुनून की तरह नहीं, रणनीति की तरह जीता है। 26/11 जैसे हमलों की छाया इसी चरित्र के आसपास मंडराती रहती है और दर्शक बार-बार महसूस करता है कि वह केवल कहानी नहीं देख रहा, बल्कि इतिहास का एक जख्मी पन्ना उलट रहा है।
फिल्म में भारतीय खुफिया तंत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं अजय सान्याल, जिसे आर माधवन ने अत्यंत संयमित गंभीरता के साथ निभाया है। उनका चेहरा किसी नायक जैसा नहीं, बल्कि किसी ऐसे पिता जैसा है जो अपने ही बच्चों को युद्ध में भेजते समय मन ही मन टूटता रहता है। वे पर्दे पर कम दिखाई देते हैं, मगर उनकी उपस्थिति हर फ्रेम में महसूस होती है। उनकी आवाज़ में आदेश नहीं, जिम्मेदारी का बोझ है। वे “धुरंधर” को सिर्फ मिशन नहीं, बल्कि एक नैतिक बोझ की तरह संभालते हैं—जहाँ हर हार का अर्थ सिर्फ असफलता नहीं, बल्कि लाशों की संभावनाएँ हैं।
फिल्म का राजनीतिक पक्ष अपने भीतर कई परतें समेटे चलता है। सत्ता के गलियारों में होने वाले संवाद किसी औपचारिक बहस की तरह नहीं, बल्कि नुकीली फुसफुसाहटों की तरह हैं। यहाँ देश केवल सीमा रेखाओं से नहीं बनता, बल्कि निर्णयों से बनता है—और हर निर्णय का अर्थ किसी अनदेखे व्यक्ति की जान से जुड़ा होता है। इस धूसर राजनीति के बीच चौधरी असलम का किरदार फिल्म में एक विचित्र द्वंद्व लेकर आता है। Sanjay Dutt का यह पात्र पुलिस की वर्दी में एक ऐसा इंसान है जो कानून और इंसानियत के बीच फँस चुका है। उसका चेहरा कठोर है, पर उसकी आँखों में कहीं न कहीं थकान और पछतावे की परतें साफ दिखाई देती हैं। वह पूरी तरह खलनायक नहीं, पूरी तरह नायक भी नहीं—वह इस फिल्म का सबसे त्रासद चेहरा है, जो यह दिखाता है कि युद्ध केवल सीमाओं पर नहीं, भीतर की ज़मीन पर भी लड़ा जाता है।
फिल्म की प्रेमकथा भी किसी फूलों वाली कोमलता के साथ नहीं आती। एलीना के साथ हमज़ा का रिश्ता किसी राहत की तरह नहीं बल्कि और गहरी उलझन की तरह विकसित होता है। प्रेम यहाँ सुकून नहीं देता, बल्कि डर बढ़ा देता है, क्योंकि प्रेम का अर्थ है किसी के लिए कमजोर पड़ जाना। और कमजोर पड़ना एक जासूस के लिए मृत्यु का दूसरा नाम होता है। यह प्रेम कहानी नायक को नरम नहीं करती, बल्कि उसे और अधिक टूटने योग्य बना देती है।
“धुरंधर” की सिनेमाई भाषा बहुत आक्रामक नहीं बल्कि भीतर तक चुभने वाली है। कैमरा अक्सर चेहरों के बहुत पास जाकर रुक जाता है, मानो त्वचा से परे मन को पढ़ लेना चाहता हो। अंधेरा यहाँ केवल रोशनी का अभाव नहीं, बल्कि एक स्थायी भाव है। संगीत भी बहुत मुखर नहीं होता; वह कभी-कभी केवल एक धीमी धुन बनकर भीतर उतरता है और दर्शक के दिल की धड़कन के साथ घुल जाता है।
इस फिल्म का सबसे बड़ा साहस यह है कि यह अपने नायक को महिमामंडित नहीं करती। हमज़ा किसी आदर्श पुरुष की तरह नहीं उभरता—वह टूटता है, डरता है, घबराता है, गलतियाँ करता है। उसकी सीटियाँ नहीं बजतीं, उसके शरीर पर कभी-कभी पसीने की ठंडी बूंदें दिखती हैं। वह अपने देश के लिए लड़ता है, लेकिन वह अपने डर से भी लगातार लड़ रहा होता है। यही उसे महिमामंडित नहीं, बल्कि मानवीय बनाता है।
फिल्म के भीतर छिपा हुआ तनाव केवल बमों या गोलियों से नहीं, बल्कि पहचान के संकट से पैदा होता है। एक ऐसा व्यक्ति जो दिन भर दुश्मन की भाषा बोलता है, दुश्मन की तरह चलता है, दुश्मन की रोटी खाता है—वह कब तक अपने आपको याद रख सकता है? यह प्रश्न इस फिल्म की आत्मा है। “धुरंधर” इसी प्रश्न के इर्द-गिर्द घूमती रहती है, बिना उसका कोई आसान उत्तर दिए।
लंबाई के बावजूद फिल्म बोझिल नहीं लगती, क्योंकि हर दृश्य अपने साथ एक नया मनोभाव लेकर आता है। कहीं कोई क्षण बहुत तेज़ है, कहीं बहुत धीमा, लेकिन दोनों ही मिलकर दर्शक को बाँधे रखते हैं। यह फिल्म चीखती नहीं, धीरे-धीरे भीतर उतरती है। यह आपको झकझोरती नहीं, बल्कि आपको अकेला छोड़ देती है।
अंत की ओर आते-आते फिल्म एक खुला घाव छोड़ देने जैसा अनुभव देती है। कोई परिपूर्ण न्याय नहीं होता, कोई पूर्ण विजय नहीं आती। केवल यह एहसास बचता है कि कुछ लोग अपने जीवन की पूरी उम्र दूसरों की नींद बचाने में खर्च कर देते हैं और उनकी कोई तस्वीर दीवार पर नहीं लगाई जाती। वे केवल फाइलों की धूल में, खुफिया रिपोर्टों की स्याही में और कभी-कभी किसी फिल्म के किसी धुंधले फ्रेम में जीवित रहते हैं।
“धुरंधर” वही धुंधला फ्रेम है—पर भीतर से बहुत स्पष्ट, बहुत कठोर, बहुत सच्चा। यह फिल्म राष्ट्रभक्ति का शोर नहीं है, यह राष्ट्र के लिए चुपचाप जलने वालों की धीमी रोशनी है। इसे देखने के बाद दिल गर्व से नहीं बल्कि एक अजीब-सी नम्रता से भर जाता है। यह एहसास होता है कि बहादुरी अक्सर अनदेखी रहती है, और सबसे बड़े युद्ध अक्सर बिना तालियों के लड़े जाते हैं।
यह फिल्म इसलिए महत्वपूर्ण नहीं कि इसमें कितने धमाके हैं, बल्कि इसलिए कि इसमें कितने सवाल हैं। यह इसलिए याद नहीं रहती कि इसमें कितने खून के छींटे हैं, बल्कि इसलिए कि इसमें कितनी खामोशियाँ हैं। यह सिनेमा का वह रूप है जहाँ कहानी नहीं, विवेक बोलता है।
और जब फिल्म समाप्त होती है, तब मन एक अजीब से खालीपन से भर जाता है—ऐसा खालीपन जो भयावह नहीं, बल्कि आवश्यक है। क्योंकि कुछ फिल्में आपको भरने नहीं आतीं, वे आपको खाली करने आती हैं—ताकि आप अपने भीतर कुछ नया सोच सकें, कुछ नया महसूस कर सकें।
“धुरंधर” ऐसी ही एक फिल्म है।
वह खत्म नहीं होती।
वह भीतर शुरू होती है।
फिल्म जब पर्दे पर खुलती है, तो उसका पहला परिचय – एक अधीर धड़कन, एक गहरी साँस जैसा — आपको सीने से चिपक कर लेता है। कहानी, जासूसी, सत्ता संघर्ष, देश-विदेश के बीच छुपे षड़यंत्रों और व्यक्तिगत पहचान के द्वंद्व का मिश्रण है। पर “धुरंधर” सिर्फ थ्रिलर नहीं; वह एक आत्मीय, आध्यात्मिक, और नैतिक सवालों से भरी यात्रा है — जहाँ नायक, खलनायक, सत्ता, धर्म, देश, और पहचान — सब कुछ काल–विराम में खिसकता दिखाई देता है। इस बीच, यही भ्रम, यही असमंजस, यही धुंध ही फिल्म की असली ताकत बन जाती है।
नेतृत्व की कमान जो हैं — रणवीर सिंह — उनका किरदार सादगी या दिखावे से नहीं, बल्कि उस भीतरी उथल-पुथल, उस मानसिक सीमा पर टकराहट की माधुर्यता से जीता गया है। उनके हर इशारे, हर खामोशी, हर लड़खड़ाहट में देश, धर्म, पहचान और विश्वास के बीच उभरे द्वंद्व की गूंज सुनाई देती है। उनकी भूमिका “रोबोट-नायक” की तरह नहीं, बल्कि एक मानवीय लोकतंत्र के भीतर फटी आत्मा की तरह है। उनके अभिनय में शोर नहीं, कमल-सी सूक्ष्मता है — और हर बार जब वे स्क्रीन पर आते हैं, लगता है कि वह सिर्फ कोई मिशन पूरा नहीं कर रहे, बल्कि अपनी ही आत्मा से लड़ रहे हैं।
उनके खिलाफ — या उनके साथ — खड़े हैं अक्षय खन्ना, संजय दत्त और आर माधवन जैसे चेहरे, जो सिर्फ सहायक नहीं बल्कि स्वयं-स्वरूप धुरा-निर्माण करते हैं। खासकर अक्शय का खलनायक — विडंबना, भय और शक्ति का संगम है; उसके चेहरे पर आने वाली हल्की मुस्कान भी डराती है। वह वह है जो स्पष्ट बुराई नहीं, बल्कि उस बुराई की शुद्ध, तराश-सी निर्भीकता दिखाता है, जो सत्ता और प्रभाव की भाषा जानती है।
माधवन की भूमिका — साधारण चरित्र नहीं, बल्कि उस तर्क-धारा की मूरत है, जो जासूसी, राजनैतिक चालबाज़ी, विश्वास और धोखे के जाल में इंसान की मजबूरी को समझने की कोशिश करती है। वह सिर्फ सहयोगी नहीं, बल्कि विचारक है — जिसके प्रत्येक वाक्य में सिर्फ मिशन की नहीं, मानवीय लागत की आसुई गहराई होती है।
फिल्म का ढांचा — एक द्वि-भागी कथा, जिसकी पहली कड़ी अभी हमारी आँखों के सामने है — स्वयं में एक साहसिक प्रयत्न है। यह दर्शाने की हिम्मत कि हर गूँजी बंदूक की गोली, हर दफन सूचना, हर छल-कपट के पीछे इंसान की खामोशी, उसकी बेचैनी, उसकी अस्मिता हलचल करती है। यह केवल देश की सीमाओं, जासूसी नेटवर्क, सत्ता संघर्ष नहीं दिखाती — बल्कि उस व्यक्ति की आंतरिक लड़ाई का दर्पण खड़ा करती है, जो हर मोड़ पर अपने अस्तित्व, अपने विश्वास, अपने नैतिक चयन से जूझता है।
लेकिन “धुरंधर” की महानता में इसके दोष भी हैं — 3 घंटे 34 मिनट (214.1 मिनट) की लंबाई, जो कभी-कभी कहानी की गति को बोझिल कर देती है। कुछ दृश्य, संवाद और हिंसात्मक तरीके — बारकी सूक्ष्मता के बजाय जोर-शोर से भाव जगाते हैं, जिससे वह अधूरी संवेदनशीलता कहीं खो जाती है। यह बॉक्स-ऑफिस की थ्रिलर-मासिकता व कथानक-चाल का दबाव हो सकता है, या निर्देशक की अभिलाषा — पर इन हिस्सों में फिल्म अपना दायित्व, अपनी आत्मा खोती नज़र आती है।
इस सबके बावजूद, “धुरंधर” अपना अस्तित्व सिर्फ एक फिल्म के रूप में नहीं बल्कि एक अनुभव, एक प्रतिध्वनि के रूप में जिंदा रखती है। थ्रिलर-जगत की चमक-दमक, जासूसी की चाल, अदाकारी की तीव्रता — सब कुछ एक साथ आते हैं, पर कहीं-कहीं उनकी परतों के बीच, उस भूली हुई मानवीय खामोशी की गूँज सुनाई देती है।
और जब पर्दा गिरता है तो केवल एक कहानी समाप्त नहीं होती — आप अकेले नहीं होते। आपके भीतर एक सवाल बच जाता है: शक्ति, देश, पहचान और इंसान — किसके लिए, किस हद तक? जब धुरंधर बन जाए, तब कौन बचता है? क्या जीत की परिभाषा बदल जाती है, या हार की?
“धुरंधर” एक संकल्प है — न कि सिर्फ सरकार या राजनीति का, बल्कि उस आत्मा का जो हर दिन, हर पल, अपने विश्वास और अस्मिता की लड़ाई लड़ती है। और यह लड़ाई, दर्शकों को सामने रखकर, उन्हें प्रतिबिंब दिखाकर, उन्हें सोचने पर मजबूर करके, इस फिल्म को सिर्फ देखते समय की नहीं — बल्कि जीवन भर की याद बना देती है।
शायद यही उसकी सबसे बड़ी विजय है: वह नायक नहीं बनाती, बल्कि मानव बनाती है।
फिल्म जब शुरू होती है तो पहली ही झलक में उसकी महत्वाकांक्षा साफ दिख जाती है — राष्ट्रहित, खुफिया मिशन, आतंक-तंत्र, देश की सुरक्षा और भावनात्मक दायित्वों का संगम। निर्देशक आदित्य धर ने जिस तीव्रता से शुरुआत की है, वह वाकई दिल धड़काता है। पहले हाफ की गति — मजबूत, खतरनाक, और आशाजनक — दर्शक को बांधे रखती है।
अभिनय — “धुरंधर” की असली ताकत यहां है। रणवीर सिंह, जो लीड किरदार में हैं, उन्होंने अपने किरदार “हमज़ा” को दिखावटी हीरोइज़्म नहीं, बल्कि भीतर की बेचैनी, संदिग्ध पहचान और जासूसी के दर्द के साथ जिया है। उनके किरदार की कड़कित — हल्के डगमगाते पल, शांति और अचानक सन्नाटा — सब कुछ दिखाता है कि वह केवल एक मिशन पर नहीं, एक तंत्र में फँसे हालात के बीच ज़िंदा हैं। कई समीक्षकों ने इसे “कैल्म प्रीडेटर” वाला अवतार कहा है।
लेकिन जब स्क्रीन पर आते हैं ~अक्षय खन्ना तो ऐसा लगता है कि फिल्म ने अपना सबसे भारी दांव वहीं लगाया है। उनका किरदार — रहमान डकैत या गैंगस्टर/विलेन — चेहरा जितना शांत, वह उतना ही खतरनाक। कई लोगों ने इसे “मास्टरक्लास” परफॉर्मेंस कहा है। जब वह पर्दे पर होते हैं, कैमरा खुद उनकी ओर मुड़ जाता है, हर हल्की हरकत, हर मुस्कान, हर आँख की हल्की चमक पर निगाह टिक जाती है।
अन्य कलाकार — जैसे संजय दत्त, अर्जुन रामपाल और आर माधवन — अपने-अपने हिस्से अच्छे लगे लेकिन उन्हें उतनी जगह नहीं मिली जिससे वे पूरी तरह पंख पसार सकें। कुछ समीक्षकों का कहना है कि सपोर्टिंग कास्ट ने फिल्म को मजबूती दी है लेकिन उनका उपयोग सीमित रहा।
जहाँ “धुरंधर” सफल होती है — वह है उसका विज़ुअल और सेट-अप। कराची की सड़कों, माफिया-एंडरस्लूम इलाकों, गुप्त ऑफिस, खुफिया बैठकें — सब कुछ ऐसा दिखता है कि आप असुरक्षा, डर, और गुप्तता की हवा महसूस करने लगते हैं। एक थ्रिलर होने के नाते यह वातावरण काम करता है।
लेकिन — और यह “लेकिन” काफी बड़ा है — फिल्म की लंबाई और कथानक की चपलता उसके सबसे बड़े बोझ बन जाते हैं। लगभग 3 घंटे 34 मिनट की अवधि में, कई बार ऐसा लगता है कि कहानी खिंची जा रही है, न कि आगे बढ़ रही। कुछ दृश्यों में कार्रवाई ज़ोर-जुल्म से अधिक, दिखावे के लिए लगती है; हिंसा और खून-खराबा ऐसे फ्रेमों में इस्तेमाल हुआ है जहाँ शायद मौन और तनाव अधिक असर देते।
क्लाइमैक्स — जो कि दर्शकों को एक मजबूत अंत की उम्मीद देता है — वहीं फिल्म फिसलती है। बहुत कुछ खुला छोड़ जाता है, कई धागे केवल “To be continued…” की ओर इशारा छोड़ कर। इसकी वजह से यह महसूस होता है कि यह कहानी अभी पूरी तरह नहीं हुई; उसका असली मुकाम अगली कड़ी में है।
फिर भी, “धुरंधर” उस तरह की फिल्म नहीं है जिसे आप सिर्फ छुट्टी फिल्म की तरह देखें और भूल जाएँ। यह एक अनुभव है — एक जासूसी-थ्रिलर का जो सिर्फ एक्शन नहीं, भय, कटुता, घुसपैठ, धोखा, पहचान और आत्मनिर्णय की जमीनी सच्चाइयों को उभारने की कोशिश करता है। इसमें चमक-दमक कम है, गहराई अधिक।
फिल्म के अंत तक, आप नायक से जुड़ जाते हैं — न कि उसकी जीत या हार के कारण बल्कि उसकी यात्रा, उसकी उलझन, उसकी उत्पीड़न और उसके मन के उस भय के कारण जो आपने कभी महसूस न किया हो लेकिन अब महसूस होता है।
यदि इसे देखा जाए, तो “धुरंधर” एक ऐसा थ्रिलर है जो आपको सिर्फ मनोरंजन नहीं देता — बल्कि सवाल देता है: पहचान क्या है? मिशन क्या है? सही और गलत की रेखा कब धुंधली होती है? और उस धुंध में भी इंसान अपनी मानवता कैसे बचाए रखता है?
“धुरंधर” उन फिल्मों में से है जो दिखने से पहले सोचने पर मजबूर करती हैं। जहाँ प्रदर्शन (performance), दिशा (direction) और माहौल (ambience) — तीनों मिलाकर एक असर छोड़ते हैं लेकिन उस असर को पूरी तरह साधने के लिए थोड़ी तीव्रता, थोड़ी परिपक्वता और थोड़ी कुशलता की कमी है।
इसलिए, यह फिल्म — सभी कमज़ोरियों के साथ — एक मतिभ्रष्ट नहीं बल्कि एक बहादुर, ज़ख्मी और असंतुष्ट कोशिश है। उन्हीं धड़कनों, उल्लासों, भय और सवालों के बीच, “धुरंधर” कहीं टूटता है, कहीं जलता है — और कहीं आपके मन में रुक जाता है।
रणवीर सिंह का परफॉर्मेंस गहराई, आंतरिक तनाव और शारीरिक ट्रांसफ़ॉर्मेशन के कारण सबसे मज़बूत पक्ष है। अक्षय खन्ना का खलनायक वाला किरदार डर और ठंडेपन का गहरा असर छोड़ता है। आदित्य धर की निर्देशकीय दृष्टि भव्य, गहरी और डार्क है लेकिन अत्यधिक लंबाई और कुछ अनावश्यक दृश्य इसकी गति को धीमा कर देते हैं। कहानी का विचार मजबूत है लेकिन उपकथाएँ और विस्तार कई जगह बोझिल महसूस होते हैं। छायांकन और बैकग्राउंड म्यूज़िक फिल्म का मिज़ाज बनाए रखते हैं। एडिटिंग थोड़ी और कसी हो सकती थी।
“धुरंधर” एक गहरी, गंभीर और महत्त्वाकांक्षी स्पाई-थ्रिलर है जो पूरी तरह “हल्की” मनोरंजक फिल्म नहीं बल्कि एक भावनात्मक और राजनीतिक अनुभव देना चाहती है। इसमें कमियाँ हो सकती हैं लेकिन यह फिल्म असरदार है — और लंबे समय तक याद रहती है।
‘धुरंधर’ सिर्फ़ एक फ़िल्म नहीं रह जाती, वह समय की नसों में उतरे भय, साहस और मौन की एक लम्बी, थरथराती हुई परछाईं बन जाती है। यह उन अदृश्य चेहरों की कथा है जो राष्ट्र की नींद की रखवाली करते हैं और अपनी पहचान को खुद ही दफ़ना देते हैं। रणवीर सिंह का किरदार किसी चमकते हुए नायक की तरह नहीं, बल्कि भीतर-ही-भीतर जलते हुए मनुष्य की तरह स्मृति में ठहरता है — एक ऐसा मनुष्य जो जीतने के लिए नहीं, केवल निभाने के लिए जीता है।
फ़िल्म की सबसे बड़ी सफलता यही है कि वह शोर में भी एक सन्नाटा रच देती है और विस्फोटों के बीच भी दर्शक के मन में एक प्रश्न छोड़ जाती है — देश की सुरक्षा का मूल्य क्या केवल दुश्मन की लाशों में मापा जा सकता है, या उन अपनों की ख़ामोश कुर्बानियों में, जिनकी कोई तस्वीर नहीं होती? अपनी सीमाओं और लंबे विस्तार के बावजूद, “धुरंधर” उस अदृश्य युद्ध का एक भारी, धुएँ से भरा पर ज़रूरी दस्तावेज़ बन जाती है।
परदे पर जब अंधेरा घिरता है, कहीं बहुत भीतर एक धीमी-सी आवाज़ गूंजती है — असली धुरंधर वे नहीं होते जो दिखते हैं, बल्कि वे जो सब कुछ खोकर भी राष्ट्र की छाया बनकर चलते रहते हैं। यही इस फ़िल्म की असली अंतर्ध्वनि है और यही उसकी सबसे गहरी विजय।



