मुम्बई। हाल के वर्षों में भारत में फिल्मों को लेकर कानूनी विवादों में तेजी आई है। जॉली एलएलबी, बंगाल फाइल्स, और उदयपुर फाइल्स जैसी फिल्में न केवल चर्चा का विषय बनीं, बल्कि इन्हें कोर्ट तक ले जाया गया। ये प्रवृत्ति नई नहीं है, लेकिन इसका बढ़ता दायरा चिंता का विषय बन रहा है। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी), जिसे आमतौर पर सेंसर बोर्ड के नाम से जाना जाता है, के पास फिल्मों को प्रमाणित करने की जिम्मेदारी है, लेकिन इसके निर्णयों को बार-बार अदालतों में चुनौती दी जा रही है।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सेंसर बोर्ड को और अधिक अधिकार दिए जाने चाहिए ताकि वह फिल्मों से संबंधित शिकायतों का निपटारा कर सके, और अदालतों पर बढ़ते बोझ को कम किया जा सके? या सेंसर बोर्ड अपना काम ठीक से नहीं कर पा रही। जिसकी वजह से बार बार कोर्ट को उसके निर्णय में हस्तक्षेप करना पड़ता है तो सेंसर बोर्ड को ही खत्म कर दिया जाना चाहिए?
उदयपुर फाइल्स के मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने हाल ही में फिल्म की रिलीज पर रोक लगाई थी, जब जमीअत उलेमा-ए-हिंद और अन्य याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि यह फिल्म सांप्रदायिक तनाव भड़का सकती है। कोर्ट ने केंद्र सरकार को सिनेमैटोग्राफ एक्ट की धारा 6 के तहत फिल्म की प्रमाणन प्रक्रिया की समीक्षा करने का निर्देश दिया। इसी तरह, बंगाल फाइल्स और अन्य फिल्मों पर भी सामाजिक और धार्मिक समूहों ने आपत्ति जताई, जिसके चलते मामला अदालतों तक पहुंचा। ये विवाद न केवल फिल्म निर्माताओं के लिए चुनौती बन रहे हैं, बल्कि अदालतों पर भी अतिरिक्त दबाव डाल रहे हैं, जहां पहले से ही लाखों मामले लंबित हैं।
सेंसर बोर्ड की भूमिका को लेकर विशेषज्ञों का कहना है कि सीबीएफसी को केवल फिल्मों को प्रमाणित करने का अधिकार है, लेकिन इसके पास शिकायतों के निपटारे के लिए कोई मजबूत तंत्र नहीं है। सिनेमैटोग्राफ एक्ट, 1952 के तहत, बोर्ड फिल्मों को ‘यू’, ‘यू/ए’, ‘ए’ जैसे प्रमाणपत्र देता है और आपत्तिजनक सामग्री को हटाने के लिए कट्स सुझा सकता है। हालांकि, बोर्ड के फैसलों को अक्सर हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाती है, क्योंकि याचिकाकर्ता मानते हैं कि बोर्ड ने सामाजिक संवेदनशीलता को नजरअंदाज किया। उदाहरण के लिए, उदयपुर फाइल्स के मामले में, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि फिल्म निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार को प्रभावित कर सकती है।
अदालतों पर बढ़ते दबाव को देखते हुए, कई विशेषज्ञ और फिल्म निर्माता मांग कर रहे हैं कि सेंसर बोर्ड को एक स्वतंत्र और मजबूत शिकायत निवारण तंत्र के साथ सशक्त किया जाए। इससे न केवल कोर्ट केस कम होंगे, बल्कि फिल्म निर्माताओं को भी स्पष्टता मिलेगी। हालांकि, कुछ का मानना है कि बोर्ड को असीमित अधिकार देना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी उदयपुर फाइल्स के मामले में टिप्पणी की थी कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार में संतुलन जरूरी है।
फिल्म प्रमाणन अपीलीय ट्रिब्यूनल (एफसीएटी) के 2021 में खत्म होने के बाद, फिल्म निर्माताओं को सीधे हाई कोर्ट का रुख करना पड़ता है, जो समय और धन दोनों के लिहाज से महंगा है। विशेषज्ञों का सुझाव है कि एक विशेष ट्रिब्यूनल की स्थापना या सेंसर बोर्ड के भीतर एक स्वतंत्र अपीलीय इकाई बनाई जाए, जो शिकायतों का त्वरित निपटारा कर सके।
फिल्मों से जुड़े विवादों का कोर्ट तक पहुंचना न केवल न्यायिक प्रणाली पर बोझ डाल रहा है, बल्कि रचनात्मक स्वतंत्रता और सामाजिक संवेदनशीलता के बीच तनाव को भी उजागर कर रहा है। सेंसर बोर्ड को सशक्त करने से अदालतों का बोझ कम हो सकता है, लेकिन इसके लिए एक संतुलित और पारदर्शी तंत्र की जरूरत है।