मंजीत ठाकुर
सिंघम अगेन और भूलभुलैया-3 जैसी हिंदी फिल्में ऊब पैदा करती हैं. हाल में रिलीज कथित बड़ी हिंदी फिल्मों में नौ लेखक, कई सितारे और धूम-धड़ाका तो था, पर कहानी नहीं थी. ऐसी स्थिति में, कई दक्षिण भारतीय फिल्में हैं जो आपको पुरसुकून अंदाज में पूरे सिनेमाई व्याकरण के साथ किस्सागोई का मजा देती हैं.
कुछ वक्त पहले मैंने तमिल फिल्म कदैसी विवासायी के बारे में लिखा था (इस फिल्म ने झकझोर दिया था) और मलयालम फिल्म भ्रमयुगम ने अपने बेहतरीन ट्रीटमेंट से दिल छू लिया था. इसमें मम्मूटी अपने सधे अभिनय से दिल जीत ले गए. वैसे भी मलयालम में अडूर गोपालकृष्णन की फिल्मों ने मेरे मन में अलग ही छाप छोड़ रखी है.
बहरहाल, कुछ वक्त हुआ जब मैंने एक और तमिल फिल्म देखी. नाम है मेयाझागन (या मेझियागन?).
सिनेमा के मामले में अधिकांश फिल्मकार बड़े परदे के अनुभव की कहावत को सिद्ध करने के वास्ते कहानी के बड़े पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं. लेकिन मेझियागन फिल्म के निर्देशक सी प्रेम कुमार ने बारीक बातों और सूक्ष्म पलों को पकड़ा है. इस फिल्म ने जीवन के अंतरंग (ऊंह, वो वाला ‘अंतरंग’ नहीं) पल परदे पर उकेर दिए हैं. प्रेम कुमार पहले सिनेमैटोग्राफर थे और शायद इसी वजह से उनकी फिल्म के दृश्य एनिमेटेड स्टिल फोटोग्राफ्स की तरह दिखते हैं.
मेइयाझागन में निर्देशक ने कई ऐसे सवाल उठाए हैं जिनके जवाब आपको लगता है कि सदियों पहले मिल चुके हैं. मसलन, क्या आपने कभी सोचा है कि आपके जन्मस्थान को आपका गृहनगर क्यों कहा जाता है? मेइयाझागन की शुरुआत 1996 से होती है (ध्यान रहे, निर्देशक प्रेम कुमार की पहली फिल्म का नाम 96 था) जब एक युवा अरुणमोझी वर्मन उर्फ अरुल को एक ऐसे दर्द से गुजरना पड़ता है जिसे शायद ही कभी सेल्युलाइड पर कैद किया है. हिंदी तो छोड़ दीजिए, अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों में भी यह दर्द नहीं दिखेगा.
फिल्म के नायक अरुल की पैतृक संपत्ति पर धोखे से किया उनके कुछ रिश्तेदारों के कब्जे की बैक स्टोरी है जिसकी वजह से अरुल का परिवार शहर में रहने लगा है और वह भूले से भी अपने गांव का रुख नहीं करते. 1996 में उनके साथ यह घटना होती है और 2018 में जाकर अरुल को अपनी ममेरी बहन की शादी में गांव जाना होता है. वह इस यात्रा को संक्षिप्त रखना चाहते हैं विवाह में बहन को आशीर्वाद देकर रात को लौट आना चाहते हैं. लेकिन, शादी की रात को उनका परिचय एक युवा रिश्तेदार से होता है, जो अपना नाम नहीं बताता और अरुल उसका नाम याद नहीं कर पाते. बहरहाल, एक शहरी आदमी गांव जाकर अपनी जड़ो की तलाश करे यह प्लॉट निर्देशक के लिए लुभावना हो सकता था, इसकी बजाए अरुल वहां दिलचस्पी नहीं दिखाता.
कहानी की शुरुआत में, कुछ ऐसे सूत्र छोड़े गए हैं जो बाद में आकर अपनी अहमियत साबित करते हैं. मसलन, अरुल गांव छोड़ते वक्त एक साइकिल छोड़ आते हैं, और कहते हैं कि कोई इसका इस्तेमाल कर लेगा. वह साइकिल वाकई एक जिंदगी को सिरे से बदल देता है.
निर्देशक ने फिल्म के सेकेंड लीड को कई दफा फ्रेम पर कब्जा करने की छूट दी है. फिल्म में अरुल बने अरविंद स्वानी और कार्ति के अलावा अन्य किरदार गौण ही हैं. लेकिन लेखक ने बाकी किरदार भी ऐसे रचे हैं कि उन पर लंबी चर्चा हो सकती है. इन किरदारों के संवाद ऐसे हैं कि सहज लगते हैं. चाहे वह शादी के दौरान मिली एक महिला, जो कहती है कि अगर उसकी अरुल के शादी होती तो उसकी जिंदगी अलग होती. ऐसे बहुत सारे किरदार हैं, जो अपनी अलग छाप लेकर चलते हैं. छोटे दृश्य हैं जो किरदारों को उभारते हैं.
मेझियागन में कई दफा बैल और सांप के सहज इस्तेमाल से लगता है कि कहीं निर्देशक शिव की तरफ तो इशारा नहीं कर रहे!
पर असल चीज है कि फिल्म में मानवीय संबंध उकेरे गए हैं. हर फिल्म में रोमांस ही हो यह जरूरी तो नहीं. इस फिल्म में दो दूर के रिश्ते के भाइयों के बीच के प्रेम को सहजता से उकेरा गया है.
अरविंद स्वामी और कार्ति के किरदारों के बीच के रिश्ते को खूबसूरत बनते देखना वाकई एक बेहतरीन अनुभव है. यह फिल्म यकीनन अरविंद स्वामी के करियर में सबसे उम्दा अभिनय के लिए जानी जाएगी.
कार्ति का किरदार—जिसका कोई नाम नहीं—उसके मासूम, शरारती व्यवहार में एक निरंतरता है, जबकि अरुल के किरदार में अपने रिश्तेदार को ख़तरा मानने से लेकर धीरे-धीरे उसके स्नेही स्वभाव को अपनाने तक का इमोशनल आर्क है.
तो अगर आप हिंदी फिल्मों में दोहराव भरे कथानकों (कथा तो खैर होती ही नहीं) से ऊब गए हैं, तो साउथ का रुख करिए. आप निराश नहीं होंगे.