अमेरिकी स्वपन का अंत निकट तो नहीं

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अमेरिका विश्व के लगभग समस्त देशों पर अपनी चौधराहट सफलतापूर्वक लागू करता रहा है। पूरे विश्व में, एक तरह से लगभग समस्त क्षेत्रों में, विभिन्न प्रकार की नीतियों को प्रभावित करने में अमेरिका सफल रहा है एवं इस प्रकार अपनी प्रसारवादी नीतियों को भी लागू करता रहा है। परंतु, हाल ही के वर्षों में अमेरिका की आंतरिक स्थिति, लगभग समस्त क्षेत्रों यथा आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आदि, में लगातार बिगड़ती जा रही है। अमेरिका सहित विकसित देशों की, आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्र में, आंतरिक स्थिति को देखते हुए अब तो पश्चिमी सभ्यता पर ही प्रश्न चिन्ह लगने लगे हैं। अमेरिका सहित अन्य विकसित देशों में आर्थिक विपन्नता एवं परिवार तथा समाज के खंड खंड होने के बाद पश्चिमी सभ्यता को पतित सभ्यता कहा जाने लगा है और इसे अब अमेरिकी स्वपन के अंत की शुरुआत भी माना जाने लगा है। अमेरिका में तो राष्ट्रीय ऋण 35 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर के आंकड़े को पार कर गया है जबकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था का आकार, सकल घरेलू उत्पाद के आधार पर, लगभग 25 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का है। इसका आश्य यह है कि आय की तुलना में ऋण अधिक ले लिया गया है। अमेरिकी वित्त व्यवस्था पर दबाव इतना अधिक बढ़ गया है कि अमेरिकी सरकार को अपने सामान्य खर्चों को चलाने के लिए भी बाजार से और अधिक ऋण लेने की आवश्यकता पड़ती है और इस उद्देश्य से प्रति वर्ष अमेरिकी संसद में स्वीकृति प्राप्त करने हेतु पहुंचना होता है। यह स्थिति है विश्व के सबसे अधिक शक्तिशाली देश अमेरिका की।

वर्ष 1776 में जब पूंजीवाद के जनक कहे जाने वाले एडम स्मिथ ने अपनी कृति “द वेल्थ आफ नेशनस” नामक किताब जारी की थी उस समय पूंजीवाद अपने शैशावस्था में ही था। उनका महत्वपूर्ण मुख्य सिद्धांत था कि व्यवसायी, जो अपनी लाभप्रदता को अधिकतम करना चाहते हैं, वे अपने व्यवसाय को बहुत ही कुशलता के साथ चलाना चाहते हैं। इस तरह ये व्यवसायी न केवल अपने आप को धनाडय बनाएंगे बल्कि वह देश इन धनाडयों के संसाधनों को जोड़कर स्वयं भी एक धनी देश बन जाएगा। पूरी 19वीं शताब्दी एवं 20वीं शताब्दी में अमेरिका इसी सिद्धांत पर कार्य करता रहा है एवं अपने देश में धनाडयों की संख्या में अपार वृद्धि करता रहा है। इससे अमेरिकी नागरिकों में व्यक्तिवाद पनपा एवं वे परिवार एवं समाज के भले को भूलकर केवल अपने बारे में ही सोचने लगे एवं अपने व्यापार को पूरे विश्व में फैलाने लगे। इससे अमेरिका में गरीबों की संख्या में लगातार वृद्धि होती रही।

अमेरिका की 1940 के दशक में पूरे विश्व के विनिर्माण क्षेत्र में 50 प्रतिशत की हिस्सेदारी हो गई थी, परंतु अब यह घटकर 17 प्रतिशत से भी कम हो गई है। कई उद्योगों के मामले में उत्पादन का जो एकाधिकार अमेरिका के पास होता था वह एकाधिकार अब अन्य देशों के पास चला गया है। अमेरिकी कम्पनियों ने कुशल कर्मचारियों को आकर्षित करने के उद्देश्य से कर्मचारियों के स्वास्थ्य खर्चे की पूरी लागत स्वयं वहन करना प्रारम्भ किया था। अमेरिका में श्रम लागत भी बहुत अधिक बढ़ चुकी थी, अन्य देशों में श्रमिक, अमेरिकी श्रम लागत की तुलना में, आधी से भी कम राशि में ही काम करने को तैयार हो रहे थे। इस बीच अमेरिकी सरकार ने आय कर की दरें भी बढ़ाकर 35 प्रतिशत से अधिक कर दी थीं। जबकि अन्य देशों में आय कर की दरें 20/25 प्रतिशत थीं। इससे अमेरिका में विभिन्न उत्पादों की उत्पादन लागत बढ़ने लगी। अतः धीरे धीरे अमेरिका में विनिर्माण इकाईयां बंद होने लगीं। वर्ष 1979 में अमेरिका में 20 प्रतिशत श्रमिक विनिर्माण इकाईयों में कार्यरत थे अब यह संख्या घटकर 10 प्रतिशत से भी कम हो गई है। अमेरिका में 2 करोड़ कर्मचारी विनिर्माण इकाईयों में कार्य कर रहे थे जो घटकर 1 करोड़ 20 लाख हो गए हैं। अमेरिका में जब प्रथम राष्ट्रपति ने शपथ ली थी उस समय 10 श्रमिकों में से 9 श्रमिक कृषि क्षेत्र में कार्यरत थे (छोटे कृषक) जबकि आज केवल 2 प्रतिशत श्रमिक ही कृषि क्षेत्र में कार्य करते हैं। इस प्रकार अमेरिका में रोजगार की दृष्टि से कृषि एवं उद्योग क्षेत्र में बहुत अधिक संकुचन हुआ है।

1950 के दशक से लेकर अमेरिका में स्टील उद्योग, कपड़ा उद्योग (वस्त्र, परिधान एवं टेक्सटाइल), उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग लगभग समाप्त से हो गए हैं। वाहन उद्योग के क्षेत्र की बड़ी बड़ी कम्पनियों ने अपनी विनिर्माण इकाईयां चीन आदि देशों में स्थापित की हैं। साथ ही, जापान की कई कम्पनियों ने वाहन के क्षेत्र में अमेरिका में आकर अपनी विनिर्माण इकाईयों की स्थापना की है। इस प्रकार, कुल मिलाकर उक्त उद्योगों में अमेरिकी मूल के नागरिकों के लिए रोजगार के अवसर बहुत कम हो गए हैं अथवा बिलकुल ही समाप्त हो गए हैं। अमेरिका में उपयोग हो रहे स्मार्ट सेल फोन के 50 प्रतिशत से अधिक उपकरण आयात किए जा रहे हैं एवं इनका उत्पादन अमेरिका में नहीं हो रहा है।

ब्यूरो आफ लेबर स्टेटिस्टिक्स – मासिक लेबर रिव्यू दिसम्बर 2016 के अनुसार, अमेरिका में प्रति घंटा वास्तविक मजदूरी दर – वर्ष 1947 में 5.35 अमेरिकी डॉलर थी जो वर्ष 1973 में बढ़कर 9.26 अमेरिकी डॉलर हो गई। परंतु, उसके बाद से लगभग उसी स्तर पर बनी हुई है जो वर्ष 2015 में 9.07 अमेरिकी डॉलर थी। वर्ष 1947 से 1973 के बीच प्रति घंटा वास्तविक मजदूरी दर 73 प्रतिशत से बढ़ी थी जबकि इसी दौरान उत्पादकता में 95 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। वहीं वर्ष 1973 से 2015 के बीच प्रति घंटा वास्तविक मजदूरी दर 3 प्रतिशत कम हुई है और उत्पादकता 109 प्रतिशत बढ़ी है। इस बीच रोजगार के नए अधिकतम अवसर उच्च मजदूरी वाले क्षेत्रों से घटकर कम मजदूरी वाले क्षेत्रों में बढ़े हैं। जैसे विनिर्माण इकाईयों के बंद होने से भारी संख्या में श्रमिक वर्ग को सेवा क्षेत्र में कम मजदूरी के रोजगार स्वीकार करने पड़े है। वर्ष 1979 के बाद से 40 प्रतिशत से अधिक रोजगार के अवसर विनिर्माण क्षेत्र में कम हुए हैं। साथ ही, तकनीकी विकास ने भी उत्पादकता तो बढ़ाई है परंतु मजदूरी की दरें नहीं बढ़ पाई हैं।

अमेरिका में समय के साथ साथ विनिर्माण इकाईयां बंद होती गईं एवं उच्च तकनीकी, सूचना आधारित सेवा क्षेत्र में, सूचना प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्र में, रोजगार के अधिक अवसर उभरते गए। अब तो बहि:स्त्रोतन (आउट्सॉर्सिंग) के चलते सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में भी रोजगार के अवसरों पर विपरीत प्रभाव पड़ता दिखाई दे रहा है। अतः अमेरिका में आने वाले समय में विनिर्माण इकाईयों के साथ साथ सेवा क्षेत्र में भी रोजगार के अवसरों में कमी आ सकती है।

उक्त कारणों के चलते अमेरिका में गरीबी की चपेट में आने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। गरीबी के चलते इस वर्ग के बच्चों को शिक्षा नहीं मिल पाती है, यह वर्ग बहुत ही तंग हालत में रहता है एवं अंततः सामाजिक अपराधी गतिविधियों में संलग्न हो जाता है। इनके मकानों में बहुत कम सुविधाएं उपलब्ध रहती हैं। अमेरिका में गरीबी रेखा का निर्धारण अमेरिका के कृषि विभाग द्वारा प्रति वर्ष किया जाता है। वर्ष 2015 में गरीबी आंकलन के लिए प्रत्येक चार व्यक्तियों के परिवार के लिए प्रतिवर्ष 24,300 अमेरिकी डॉलर की आय तय की गई थी। इससे कम आय वाले परिवार गरीबी रेखा के नीचे माने जाते हैं। आय की उक्त गणना के आधार पर अमेरिका में 13.5 प्रतिशत परिवार (4.31 करोड़ अमेरिकी नागरिक) गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे थे।

गरीब वर्ग के नागरिकों के आपराधिक गतिविधियों में लिप्त रहने के चलते अमेरिका में 22 लाख अमेरिकी गरीब नागरिक जेलों में बंद थे एवं 50 लाख गरीब नागरिक पैरोल अथवा परीक्षण पर थे एवं अन्य 10 लाख नागरिक जो जेलों से छूट गए थे, वे न तो पेरोल पर थे और न ही परीक्षण पर थे, परंतु वे कभी भी पुनः जेलों में भेजे जा सकते हैं।

आपराधिक गतिविधियों में लिप्त नागरिकों के अतिरिक्त 20 लाख से 30 लाख नागरिक ऐसे भी हैं जिनके पास रहने के लिए अपना घर नहीं है जिन्हें यहां “होमलेस” कहा जाता है। 50 लाख अमेरिकी नागरिक कल्याणकारी योजनाओं का लाभ ले रहे हैं एवं 80 लाख नागरिक सामाजिक सुरक्षा एवं विकलांग योजना का लाभ ले रहे हैं।

एक अनुमान के अनुसार, अमेरिका में तीन से साढ़े तीन करोड़ नागरिक स्थायी निम्नवर्ग की श्रेणी में आते हैं, जो अमेरिका की कुल 32.5 करोड़ जनसंख्या का 10 प्रतिशत है। प्रत्येक 5 अमेरिकी बच्चों में से एक बच्चा गरीब वर्ग का है। इतना अधिक खर्च करने के बाद भी अमेरिका में सामाजिक सहायता व्यवस्था अन्य अमीर एवं विकसित देशों की तुलना में कमतर ही मानी जाती है। करोड़ों अमेरिकी नागरिकों को प्राथमिक केयर डॉक्टर की सुविधा उपलब्ध नहीं है। यदि यह सुविधा उपलब्ध भी है तो चार में से केवल एक नागरिक को ही डॉक्टर से उसी दिन का मिलने का समय मिल पाता है।

अमेरिका एवं अन्य विकसित देशों में इस प्रकार के हालात देख कर अब तो कई अर्थशास्त्रियों द्वारा आर्थिक विकास के पूंजीवादी मॉडल पर ही प्रश्नचिन्ह लगाया जाने लगा है एवं यह कहा जा रहा है कि कहीं अमेरिकी स्वपन का अंत निकट तो नहीं है।

राष्ट्रीय छात्र पर्यावरण प्रतियोगिता(NSPC) 2024 में 7 लाख से अधिक प्रतिभागियों की सहभागिता

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राजीव

शिक्षा मंत्रालयf और पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा समर्थित पर्यावरण संरक्षण गतिविधि के तहत राष्ट्रीय स्कूल पर्यावरण प्रतियोगिता का परिणाम 30 अगस्त को एक आभासी कार्यक्रम में किया गया। यह प्रतियोगिता विशेष रूप से छात्रों के बीच पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ाने और उनकी सक्रिय भागीदारी के उद्देश्य से आयोजित की गई ।

पर्यावरण संरक्षण की दिशा में चलाए जा रहे अभियान में एक नया कीर्तिमान स्थापित हुआ है। इस अभियान में 7,91,173 से अधिक प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया ।
इस अभियान के अंतर्गत 107 देशों के साथ-साथ भारत के 11 क्षेत्र और 46 प्रांतों के प्रतिभागियों ने भाग लिया। देश के 681 जिलों में यह अभियान चलाया गया, जिससे इसकी भौगोलिक पहुंच और भी प्रभावशाली हो गई ।

इस अभियान में 45022 संस्थानों के प्रतिभागियों ने सक्रिय भूमिका निभाई , जिससे पर्यावरण संरक्षण की दिशा में जागरूकता और सक्रियता में काफी वृद्धि देखी जा सकती है। इस कार्यक्रम में अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद के निदेशक श्री अमित दत्ता,डिप्टी डायरेक्टर एजुकेशन( दिल्ली सरकार) श्री अशोक त्यागी,भारत स्काउट & गाइड की निदेशिका दर्शना जी,विद्या भारती उत्तर क्षेत्र सह संगठन मंत्री श्री बालकृष्ण जी के साथ साथ पर्यावरण संरक्षण गतिविधि के कार्यकर्ताओं की सहभागिता रही।

श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको साहित्य सम्मान चंद्रकिशोर जायसवाल, साहित्य सम्मान सुश्री रेनू यादव को

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नई दिल्लीः उर्वरक क्षेत्र की अग्रणी सहकारी संस्था इंडियन फारमर्स फर्टिलाइजर कोआपरेटिव लिमिटेड (इफको) द्वारा वर्ष 2024 के श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको साहित्य सम्मान’ के लिए कथाकार श्री चंद्रकिशोर जायसवाल एवं प्रथम ‘श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको युवा साहित्य सम्मान’ के लिए सुश्री रेनू यादव के नाम की घोषणा की गई है। रचनाकारों का चयन वरिष्ठ साहित्यकार श्री असग़र वजाहत की अध्यक्षता वाली चयन समिति ने किया है। इस वर्ष की सम्‍मान चयन समिति में डॉ. अनामिका, श्री प्रियदर्शन, श्री यतीन्‍द्र मिश्र, श्री उत्‍कर्ष शुक्‍ल एवं डॉ. नलिन विकास शामिल थे।

श्री चन्द्रकिशोर जायसवाल का जन्म 15 फरवरी, 1940 को बिहार के मधेपुरा जिले के बिहारीगंज में हुआ। आपने पटना विश्वविद्यालय, पटना से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर शिक्षा हासिल की और अरसे तक अध्यापन करने के बाद भागलपुर अभियंत्रणा महाविद्यालय, भागलपुर से प्राध्यापक के रूप में सेवानिवृत्त हुए।

आपकी प्रमुख कृतियाँ हैं—‘गवाह गैरहाजिर’, ‘जीबछ का बेटा बुद्ध’, ‘शीर्षक’, ‘चिरंजीव’, ‘माँ’, ‘दाह’ ‘पलटनिया’, ‘सात फेरे’, ‘मणिग्राम’, ‘भट्ठा’, ‘दुखग्राम’ (उपन्यास); ‘मैं नहिं माखन खायो’, ‘मर गया दीपनाथ’, ‘हिंगवा घाट में पानी रे!’, ‘जंग’, ‘नकबेसर कागा ले भागा’, ‘दुखिया दास कबीर’, ‘किताब में लिखा है’, ‘आघातपुष्प’, ‘तर्पण’, ‘जमीन’, ‘खट्टे नहीं अंगूर’, ‘हम आजाद हो गए!’, ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ (कहानी-संग्रह); ‘शृंगार’, ‘सिंहासन’, ‘चीर-हरण’, ‘रतजगा’, ‘गृह-प्रवेश’, ‘रंग-भंग’ (नाटक); ‘आज कौन दिन है?’, ‘त्राहिमाम’, ‘शिकस्त’, ‘जबान की बन्दिश’ (एकांकी)।
आप ‘रामवृक्ष बेनीपुरी सम्मान’ (हजारीबाग), ‘बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान’ (आरा), ‘आनन्द सागर कथाक्रम सम्मान’ (लखनऊ), बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का ‘साहित्य साधना सम्मान’ (पटना) और बिहार सरकार का जननायक ‘कर्पूरी ठाकुरी सम्मान’ (पटना) से सम्मानित हैं।
आपके उपन्यास ‘गवाह गैरहाजिर’ पर राष्ट्रीय फ़िल्म विकास निगम द्वारा निर्मित फ़िल्म ‘रूई का बोझ’ और कहानी ‘हिंगवा घाट में पानी रे!’ पर दूरदर्शन द्वारा निर्मित फ़िल्में काफी चर्चित रही हैं। ‘रूई का बोझ’ नेशनल फ़िल्म फेस्टिवल पैनोरमा (1998) के लिए चयनित हुई थी और अनेक अन्तराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सवों में प्रदर्शित हो चुकी है।

सुश्री रेनू यादव का जन्म 16 सितम्बर, 1984 को गोरखपुर में हुआ। शिक्षा- एम.ए., एम.फिल., पीएच.डी., यू.जी.सी-नेट संप्रति- असिस्टेंट प्रोफेसर, भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग (हिन्दी), गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा
आपकी प्रमुख कृतियां है- ‘महादेवी वर्मा के काव्य में वेदना का मनोविश्लेषण’ (आलोचनात्मक पुस्तक), ‘मैं मुक्त हूँ’ (काव्य-संग्रह), साक्षात्कारों के आईने में – सुधा ओम ढींगरा (संपादित पुस्तक)। शोध-पत्र – स्त्री विमर्श के आईने में राधा का प्रेम और अस्तित्व, पद्मावत और पूर्वराग, प्रवास में स्त्री-विमर्श टहल रहा है। मासिक पत्रिका साहित्य नंदिनी में ‘चर्चा के बहाने’ स्तम्भ (कॉलम) प्रकाशित होता है तथा इससे पहले कैनेडा से निकलने वाली पत्रिका हिन्दी चेतना में ‘ओरियानी के नीचे’ नामक स्तम्भ प्रकाशित होता था। स्त्री-विमर्श पर केन्द्रित कहानियाँ, कविताएँ एवं शोधात्मक आलेख आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित ।
सम्मान / पुरस्कार – ‘सृजन श्री’ सम्मान सृजन-सम्मान बहुआयामी सांस्कृतिक संस्था एवं प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, रायपुर (छत्तीसगढ़)। ‘विरांगना सावित्रीबाई फूले नेशनल फेलोशिप अवार्ड’ भारतीय दलित साहित्य अकादमी, दिल्ली।

मूर्धन्य कथाशिल्पी श्रीलाल शुक्ल की स्मृति में वर्ष 2011 में शुरू किया गया यह सम्मान प्रत्येक वर्ष ऐसे हिन्दी लेखक को दिया जाता है जिसकी रचनाओं में मुख्यतः ग्रामीण व कृषि जीवन का चित्रण किया गया हो। इससे पहले यह सम्मान विद्यासागर नौटियाल, शेखर जोशी, संजीव, मिथिलेश्वर, अष्टभुजा शुक्ल, कमलाकांत त्रिपाठी, रामदेव धुरंधर, रामधारी सिंह दिवाकर, महेश कटारे, रणेंद्र, शिवमूर्ति, जयनंदन और मधु कांकरिया को प्रदान किया गया है। इस पुरस्कार के अन्तर्गत सम्मानित साहित्यकार को एक प्रतीक चिह्न, प्रशस्ति पत्र तथा ग्यारह लाख रुपये की राशि का चैक प्रदान किया जाता है।

इफको निदेशक मंडल के अनुमोदन से इस वर्ष से शुरू हुए ‘श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको युवा साहित्य सम्मान’ के अंतर्गत सम्मानित साहित्यकार को एक प्रतीक चिह्न, प्रशस्ति-पत्र और ढाई लाख रुपये का चैक प्रदान किया जाएगा।

श्री चंद्रकिशोर जायसवाल एवं सुश्री रेनू यादव को यह सम्मान 30 सितंबर, 2024 को नई दिल्‍ली में आयोजित कार्यक्रम में प्रदान किया जाएगा।

राजनीति में तथाकथित समाजवाद का दुष्प्रभाव

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एस. के. सिंह

भारतीय संस्कृति में “समाज” (समम अंजंति इति समाज) अर्थात् सबको साथ लेकर चलने की प्रक्रिया है। पुनः सबको साथ लेकर चलने में ऊर्जा शक्ति ‘संबंधों’ से मिलती है। लाखों वर्ष पूर्व उपनिषद्कारों ने समाज शब्द का का वृहत् उपयोग किया है। अतः इस दृष्टिकोण से देखें तो ‘समाजवाद’ शब्द जो हाल के समय से प्रयोग में लाया जाता है प्रयोग में वृहत् नहीं है बल्कि यह संकीर्ण है। ‘वाद’ पर आधारित व्यवस्था और सोच हीं आधुनिक विश्व की सबसे बड़ी समस्या है। जहां भी वाद आया, वहाँ समस्या बढ़ती चली गयी। उल्लेखनीय है कि ‘वाद’ का हीं विस्तार समाजवाद, साम्यवाद , आतंकवाद, पूंजीवाद आदि है। यूरोप ने पहले समाजवाद नामक व्यवस्था लाया , जब यह असफल हो गया तो पूंजीवाद लाया। यह व्यवस्था भी वहाँ क़रीब-क़रीब धँसने के कगार पर है। हमारे नीति-निर्माताओं ने बिना सोचे-समझे एक असफल व्यवस्था को अपनाया पुनः जो व्यवस्थ पतित हो गई उसे हम अभी भी लेकर चल रहे हैं।

आज पुरे देश में सबको साथ लेकर नहीं, तुष्टीकरण के माध्यम से “कुछ को साथ लेकर चलने की प्रक्रिया” ही समाजवाद के रूप में उभरी है। इसके कारण राजनितिक तुष्टिकरण ने समाजवाद का स्थान ले लिया है। माना जाता है कि समाजवाद न केवल विभिन्न क्षेत्रों में, बल्कि सभी सामाजिक रैंकों और वर्गों में भी धन की असमानता को कम करेगा। इसके विपरीत राजनीति में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर एक नया वर्ग उभरा है, जो समाजवाद के नाम पर असमानता पैदा कर रहा है और धन इकट्ठा कर रहा है। भारत में समाजवाद के नाम पर परिवार के नेतृत्व वाले राजनीतिक दलों द्वारा जमा की गई शक्ति और संपत्ति को उजागर करने की जरूरत है।

भारत में समाजवाद एक राजनीतिक आंदोलन है जिसकी स्थापना 20वीं सदी की शुरुआत में औपनिवेशिक शासन से भारतीय स्वतंत्रता हासिल करने के व्यापक आंदोलन के एक हिस्से के रूप में की गई थी। इस आंदोलन की लोकप्रियता तेजी से बढ़ी क्योंकि इसने जमींदारों, राजसी वर्ग और जमींदारों के खिलाफ भारत के किसानों और मजदूरों के हितों का समर्थन किया। आजादी के बाद और 1990 के दशक की शुरुआत तक समाजवाद ने भारत सरकार की कुछ आर्थिक और सामाजिक नीतियों को आकार दिया।

आपातकाल के दौरान 1976 के 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी शब्द जोड़ा गया था। इसका तात्पर्य सामाजिक और आर्थिक समानता से है। इस संदर्भ में सामाजिक समानता का अर्थ केवल जाति, रंग, पंथ, लिंग, धर्म या भाषा के आधार पर भेदभाव का अभाव है। सामाजिक समानता के तहत सभी को समान दर्जा और अवसर प्राप्त हैं। इस संदर्भ में आर्थिक समानता का अर्थ है कि सरकार धन के वितरण को अधिक समान बनाने और सभी के लिए एक सभ्य जीवन स्तर प्रदान करने का प्रयास करेगी।

कांग्रेस और वाम मोर्चे के अलावा, भारत में अन्य तथाकथित समाजवादी और धर्मनिरपेक्षपार्टियाँ सक्रिय हैं, विशेष रूप से समाजवादी पार्टी, जो उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव द्वारा गठित जनता दल से निकली थी और अब उनके बेटे अखिलेश यादव के नेतृत्व में है। बिहार ने कर्पूरी ठाकुर, लालू-राबड़ी शासन और उसके बाद समाजवाद के नारे पर नीतीश कुमार का शासन देखा है। वाम दलों ने खुद को प्रासंगिक बनाने के लिए जब भी जरूरत पड़ी, उनका समर्थन किया है। चिराग पासवान जैसी परिवार संचालित पार्टियाँ, जिन्हें अपने पिता स्वर्गीय राम विलास पासवान से कमान मिली थी, भी समाजवादी राजनीति का अनुसरण करने का दावा करती हैं। भारतीय जनता पार्टी अपनी जरुरत के अनुसार समय – समय पर मुलायम और नीतीश को समाजवादी मानती है।

इन सभी तथाकथित समाजवादी पार्टियों में एक बात आम है कि वे जाति को जीवित रखने और मुस्लिम समुदायों के वोट हासिल करने के लिए तुष्टीकरण की कार्रवाई करके सत्ता हासिल करने की कोशिश करते हैं। एक समय था जब बिहार में स्वर्गीय रामविलास पासवान मुस्लिम समुदाय का वोट हासिल करने के लिए ओसामा बिन लादेन जैसे दिखने वाले एक मुस्लिम व्यक्ति के साथ हवाई यात्राएं कर रहे थे। अब उनके बेटे का दावा है कि उनके पिता सच्चे समाजवादी और उदारवादी थे। स्थिति का विरोधाभास यह है कि बिहार के तथाकथित बुद्धिजीवी चिराग पासवान के साथ फोटो शूट कराने और उन्हें प्रगतिशील गिनने के लिए एक-दूसरे से होड़ करते हैं।

इन सभी तथाकथित समाजवादी पार्टियों के एजेंडे में एक बात छिपी हुई है कि ये वोट के लिए पिछड़ेपन और तुष्टीकरण को बढ़ावा देना चाहते हैं। हकीकत यह है की मुस्लिमों के वास्तविक प्रोग्रेस करने के लिए उनके शिक्षा और बेहतर जीवन शैली पर किसी को कोई दिचस्पी नहीं है। भारतीय जनता पार्टी अपनी सुविधा के अनुसार चिराग पासवान और नीतीश कुमार जैसे छोटे दलों के साथ भी गठबंधन कर लेती है।

भारतीय जनता पार्टी बिहार के वास्तविक विकास के प्रति उदासीन है और इसका प्रमाण है – कुछ साल पहले केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने बिहार में एक तथाकथित अति पिछड़ी जाति से राज्यपाल सह चांसलर नियुक्त किया था, जिसने उत्तर प्रदेश से लगभग आधा दर्जन कुलपति नियुक्त किए थे, जो पहले से ही भ्रष्टाचार और गबन के आरोपों का सामना कर रहे थे। राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार बिहार के उप मुख्यमंत्री के रूप में तार किशोर प्रसाद और रेनू देवी का चयन और नियुक्ति प्रशासनिक कौशल की कीमत पर अति पिछड़ी जातियों को खुश करने का एक राजनीतिक कदम था। यह तथाकथित समाजवाद के दुष्परिणामों को दर्शाता है।

बिहार में कांग्रेस लालू यादव के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल जैसे भ्रष्ट राजनीतिक दलों का समर्थन करती है, जिन पर आपराधिक आरोप लगाए गए हैं और अदालत द्वारा आपराधिक रूप से दोषी पाया गया है। विडम्बना यह है कि इस देश के बुद्धिजीवी और वामपंथी दार्शनिक सामाजिक न्याय के नाम पर इन तथाकथित परिवार संचालित समाजवादी पार्टियों के राजनीतिक एजेंडे की वकालत करते नहीं थकते। जबकि सच्चाई यह है कि लगभाग इन सभी तथाकथित समाजवादी और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों ने सार्वजनिक धन का दुरुपयोग किया है और वंचितों के हितों की कीमत पर राज किया है, जो सामाजिक और राजनीतिक रूप से बेहतर व्यवहार के हकदार थे। जननायक कर्पोरि ठाकुर के शिष्य होने का दावा करने वाले लालू और नीतीश ने बिहार की राजनीति का मजाक बना दिया है। सत्ता हासिल करने के लिए लालू कर्पूरी ठाकुर को कभी “कपटी ठाकुर” कहते थे और सार्वजानिक रूप से उनकी बेइज्जती करते थे।

बिहार में वामपंथी दल लगभग अलोकतांत्रिक हो गए हैं और समाजवाद तथा इंकलाब के नाम पर एक ही व्यक्ति दशकों से शीर्ष पद पर काबिज है। भारतीय जनता पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व वोट पाने के लिए जरूरत पड़ने पर अपना रंग बदलता रहता है। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने उत्तर प्रदेश में खास वर्ग तथा जाति के वोट पाने के लिए मुलायम सिंह यादव जैसे व्यक्ति को पद्म विभूषण से सम्मानित किया और हाल ही में कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न से सम्मानित किया। कांग्रेस पार्टी ने अपना समाजवादी चरित्र खो दिया है और वे अस्तित्व के लिए क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की शरण में चले गए हैं।

कार्ल मार्क्स ने बताया है कि जाति व्यवस्था की तुलना में वर्ग व्यवस्था अधिक प्रभावशाली है और यह बात भारतीय राजनीति और विशेष रूप से बिहार में साबित हुई है। पिछडे वर्ग की राजनीति पार्टी से निकले परिवार के कुलीन नेता व्यवसाय चलाते हैं, जैसे तेजस्वी यादव, चिराग पासवान आदि समाजवाद के नाम पर शाही जीवन जीते हैं और अब वे ज्यादातर उच्च जाति के अमीर और प्रभावशाली लोगों से घिरे हुए हैं क्योंकि उनके वर्ग को समृद्धि की आड़ में बदल दिया गया है।

समाजवाद के नाम पर बिहार में हाल ही में हुई जाति जनगणना ने देश में सत्ता के खेल के लिए लोगों को विभाजित करने का एक नया खतरा पैदा कर दिया है और दिलचस्प बात यह है कि भाजपा सहित सभी राजनीतिक पार्टियों ने इसका समर्थन किया है। समाजवाद के नाम पर सभी राजनीतिक दलों द्वारा समर्थित बिहार की जाति जनगणना बिहार सरकार द्वारा एक राजनीतिक और सामाजिक धोखाधड़ी है। जाति सर्वेक्षण का उपयोग जानबूझकर कुछ जातियों की जनसंख्या को उनकी वास्तविक जनसंख्या से अधिक दिखाने और कुछ जातियों की जनसंख्या को कम दिखाने के लिए किया गया था। इस तथ्य का प्रमाण यह है कि अत्यंत पिछड़ी जाति और अगड़ी जाति के कई समूहों ने सार्वजनिक प्रदर्शन के माध्यम से जाति सर्वेक्षण के खिलाफ नाराजगी जताई। अयोध्या में राम मंदिर की लहर के लिए धन्यवाद, यह जाति सर्वेक्षण निहितार्थ कम हो गया है, अन्यथा यह भारत के अन्य राज्यों में सामाजिक उथल-पुथल पैदा कर सकता था।

लालू और कांग्रेस नेताओं का नारा – “जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी” भारत को लबनान जैसी स्थिति में पहुंचा देगा। बिहार के सीमांचल की जनसांख्यिकी पहले से ही काफी बदल गई है और बहुत जल्द यह एक गंभीर समस्या पैदा करने वाली है। बिहार पीएफआई का केंद्र बन गया है और यह बिहार की सभी सरकारों की तुष्टीकरण नीति का परिणाम रहा है।

९१७१ तक लेबनान भारत की ही तरह एक विभिन धर्मों के समूहों का एक देश था जहाँ पर क्रिस्चियन बहुल आबादी थी और मुस्लिम अल्पसंख्यक थे। लेबननन कि राजधानी बेरुत को किसी समय पेरिस ऑफ़ डी ईस्ट कहा जाता था। अच्छे सोच वाले लोग वहां रहते थे। सिनेमा की शूटिंग करने के लिए लोग वहां जाते थे। 60 के दशक की मशहूर हिंदी सिनेमा ‘आँखे’ की शूटिंग के कुछ दृश्य बेरुत के हैं। लोग अन्य जगहों से वहां पर छुटियाँ मनाने जाते थे। इसको एक तरह से सांस्कृतिक रूप से यूरोप के एक्सटेंशन के तौर पर देखा जाता था।

20 वर्षो में लेबनान की जनसांख्यिकी बदल गयी। मुस्लिम अल्पसंख्यक से बहुसंख्यको गए। उसके बाद जनसँख्या के प्रतिनिधित्व के आधार पर लेबनान में राजनितिक भागीदारी सुनिश्चित होने लगी। परिणाम यह हुआ कि वहां के क्रिस्चियन समाज के लोग लेबनान छोड़ कर भागने लगा। गृह युद्ध होने लगा। हिजबुल्लाह जैसे आतंकी संगठन अपनी पैठ बनाने लगे। इन आतंकी संगठनों को पडोसी मुस्लिम देशो से फंडिंग होने लगी और आज लेबनान कि गिनती आतंकवादी देश के रूप में शुमार है।

दरअसल बिहार में राजनीतिक उथल-पुथल और अस्थिरता समाजवाद के नाम पर राजनीतिक और सरकारी संस्थाओं के पक्षपातपूर्ण रवैये का परिणाम है। सत्ता में बने रहने के लिए भारतीय जनता पार्टी साहित सभी राजनीतिक दलों के छद्म समाजवादी दृष्टिकोण को जनता के सामने बेनकाब करने का समय आ गया है। चूंकि बिहार समाजवादी राजनीति की प्रयोगशाला के रूप में उभरा है, इसलिए सभी राजनीतिक दलों के छद्म सामाजिक एजेंडे को बिहार में सुधारना उचित है। बिहार के 2025 विधानसभा चुनाव से पहले समर्थ बिहार इस मुद्दे को एक राजनीतिक मुद्दे के रूप में उठाएगा।

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