मालती जोशी जी का जाना…

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– प्रशांत पोळ

मालती जोशी जी हिंदी मे भी उतनी ही सशक्तता से लिखती हैं, यह बात मुझे बहुत बाद मे पता चली. कुछ वर्षों पहले, प्रवास के दौरान मुझे उनका ‘समर्पण का सुख’ यह पुस्तक मिला. कहानी संग्रह था. बडा ही जबरदस्त..! पहले मुझे लगा, ये मालती जोशी जी कोई दुसरी होंगी. एक ही महिला, इतनी जिवंत शैली मै, इतनी सटीक और यथार्थ भाषा का प्रयोग करते हुए, मराठी – हिंदी, दोनों मे कैसी लिख लेती हैं? किंतू बाद मे पुष्टी हुई, दोनो भाषाओं मे, उसी सहजता से लिखने वाली मालती जोशी जी एक ही हैं..!

मालती जोशी जी को कब पहली बार पढा, ये अच्छे से स्मरण मे हैं. मैं इंजिनिअरिंग के व्दितीय वर्ष मे था. ‘किर्लोस्कर’ मासिक के सन १९८२ के दिपावली अंक मे मालती जोशी जी की एक दीर्घ कथा आई थी. मराठी मासिक था. स्वाभाविकतः कथा भी मराठी मे ही थी. उनके लेखनी का कमाल देखिए, आज बयालीस वर्षों के बाद भी, मुझे वह कथा पूरी याद हैं. अत्यंत प्रवाही शैली मे, संयुक्त परिवार पर आधारित वह कथा, गहरी छाप छोड रही थी. परिवार मे लडकी का विवाह होने जा रहा हैं. उसका बडा भाई विवाह की तैयारियों मे व्यस्त हैं, और इन भाई – बहनों के वार्तालाप से पता चलता हैं कि उनके कुटुंब मे रहने वाली स्त्री का उनके पिताजी से संबंध था..! सरल भाषा मे लिखी गई, बडी पेचीदा और जटिल कहानी थी यह.

इस जबरदस्त कहानी ने, कहानी की रोचक शैली ने, सशक्त कथावस्तू ने मुझे ऐसे जकड लिया, कि मालती जोशी जी की कहानी, जहां मुझे दिख जाती, मैं पढ लेता. मैं तो उन्हे मराठी कथा लेखिका ही समझता था. उन दिनों, वे मराठी मे बहुत कम लिखती थी. शायद तब तक उनका मराठी मे कथासंग्रह भी नही आया था.

वे बहुत सोशल नही थी. मराठी साहित्य संमेलन मे उन्हे आमंत्रित किया जाता था. किंतू वे किसी संमेलन मे सम्मिलित हुई, ऐसा मेरी जानकारी मे तो नही. *किंतू आश्चर्य ये, कि व्यक्तिगत जीवन सिमटा हुआ होने के बाद भी, उनके लेखनी का कॅनव्हास विशाल था. उनके विषयों मे विविधता रहती थी. मराठी मे जब अधिकांश मराठी स्त्री लेखिका, अपने छोटे से परिवार के इर्द-गिर्द ही अपनी लेखनी का विचरण करती थी, तब मालती जोशी जी ने पारिवारिक मूल्यों को केंद्रीत रखते हुए, आधुनिक परिवार का, आधुनिक जीवनशैली से निर्माण हुई समस्याओं का, युवा विचारधारा का, बडा प्रभावी चित्रण किया हैं. यह अपने आप मे अद्भुत हैं.*

नोकरी लगने के बाद जब मैं पुस्तकों का संग्रह करने लगा, तो मालती जोशी जी के कथासंग्रह, मेरे पुस्तकालय की शान बढाने लगे.

मालती जोशी जी हिंदी मे भी उतनी ही सशक्तता से लिखती हैं, यह बात मुझे बहुत बाद मे पता चली. कुछ वर्षों पहले, प्रवास के दौरान मुझे उनका ‘समर्पण का सुख’ यह पुस्तक मिला. कहानी संग्रह था. बडा ही जबरदस्त..! पहले मुझे लगा, ये मालती जोशी जी कोई दुसरी होंगी. एक ही महिला, इतनी जिवंत शैली मै, इतनी सटीक और यथार्थ भाषा का प्रयोग करते हुए, मराठी – हिंदी, दोनों मे कैसी लिख लेती हैं? किंतू बाद मे पुष्टी हुई, दोनो भाषाओं मे, उसी सहजता से लिखने वाली मालती जोशी जी एक ही हैं..!

उनके हिंदी भाषा मे लिखे कहानी संग्रह भी मेरे पुस्तकालय मे हैं. दुर्भाग्य से उनका कोई उपन्यास मै नही पढ सका. सन २०१८ मे जब उन्हे ‘पद्मश्री’ उपाधी से सम्मानित किया गया, तब लगा कि हिंदी – मराठी भाषा को उचित सम्मान मिला हैं.

उनके सुपुत्र, डाॅ. सच्चिदानंद जोशी जी को मै कई वर्षों से जानता हूं. कई बैठकों मे उनसे भेंट होती रहती हैं. बातचीत – गपशप होती हैं. किंतू मैं अभागा, तीन – चार महिने पहले तक, मेरी जानकारी मे नही था, कि सच्चिदानंद जी, मालती जोशी जी के सुपुत्र हैं. मेरी पसंदीदा लेखिका को मिलने की मेरी बहुत इच्छा थी. मिलकर उनसे उनकी हिंदी – मराठी कहानियों के बारे मे बाते करने की इच्छा थी. उनको इन कहानियों का ‘जर्म’ कहां से मिलता हैं, यह भी पूंछने की भी इच्छा थी. कुछ वर्ष पहले, भोपाल मे उनसे मिलने का प्रयास भी किया था, किंतू संभव न हो सका.

परसो (१५ मई को) उनके जाने का दु:खद समाचार पढा और बडा खराब लगा. हिंदी – मराठी साहित्य के लिए उनके जैसे सशक्त हस्ताक्षर का जाना, यह अपूरणीय क्षति हैं. कथा लेखन को उन्होने नया आयाम दिया था. नई ताकत दी थी.

पद्मश्री मालती जोशी जी को मेरी भावपूर्ण श्रध्दांजली.
ॐ शांति.

कोई क्यों होता है दिलीप मंडल

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ऐसे में जब दिलीप ने देखा कि भाजपा और आरएसएस जाति के औजारों का बेहतर इस्तेमाल कर रही है, तब वह उन्हें पसंद करने लगे, तो इसमें दोष उनका नहीं,उनलोगों का है,जो उन्हें लालू-मुलायम या कांग्रेस का जरखरीद गुलाम बनाए रखने की तमन्ना पाले बैठे थे. ऐसे लोगों को खुद अपना दामन देखना चाहिए.

दिलीप मंडल पत्रकार हैं और सोशल मीडिया एक्टिविस्ट भी. उनकी अपनी एक दुनिया है. वह मुझ से भी पिछले बीस वर्षों से जुड़े हैं. उनमें जोश है, लड़ने-भिड़ने का साहस भी, और लगातार सक्रिय रहने की क्षमता भी. उनके इन गुणों का मैं प्रशंसक रहा हूँ. लेकिन वैचारिक तौर पर असहमत भी रहा हूँ. उन्होंने एक लाइन पकड़ी हुई है और वह है मंडल आंदोलन से उभरे पिछड़ावाद की वैचारिकी का. कभी आरक्षण, तो कभी सत्ता में भागीदारी या फिर द्विजवादी वर्चस्व का विरोध उनके प्रिय विषय रहे हैं. इसी आधार पर उन्होंने फॉलोवर्स की फ़ौज इकट्ठी की हुई है.

अव्वल तो मुझे भीड़ की भाषा से परहेज है. क्योंकि जब आप भीड़-प्रिय होते हैं, तब आप अपनी नहीं, भीड़ की जुबान बोलने लग जाते हैं. इसलिए ईसा की पहली सदी के रोमन कवि होरेस ने कहा था – ” भीड़ के लिए मत लिखो या बोलो.” भीड़ के लिए लिखना किसी को लोकप्रिय जरूर बनाता है, लेकिन बौद्धिक रूप से दिवालिया भी बनाता है. इसीलिए मैं किसी को बहुत लोकप्रिय देखता हूँ, तो उस व्यक्ति से सतर्क हो जाता हूँ.

इधर हाल के दिनों में जब से सोशल मीडिया का जमाना आया है, ऐसे लोगों की जमात उभरी है,जो भीड़ की भाषा लिखते हैं. उन्हें भीड़ की वाह-वाही चाहिए. दिलीप उनमें गर्दन ऊँची किये दीखते हैं. यानी इस जमात में उनकी साख कुछ अधिक है. लेकिन वह अकेले नहीं हैं. मैंने बताया उनकी एक जमात बन चुकी है. अमूमन ऐसे लोग पहले एक वर्चस्व को झुठलाने या नकारने आये थे. उनकी मुद्रा प्रतिरोधी थी. लेकिन जैसा कि द्वंद्वात्मकता का नियम है,जल्दी ही ये अपना वर्चस्व स्थापित करने में लग गए. इन्हें वैज्ञानिक परिदृष्टि स्थापित करनी थी, किन्तु ये स्वयं नया पाखंड विकसित करने लगे. ब्राह्मणवाद का विरोध करने केलिए दलित या पिछड़ावाद का भोड़ा व्याकरण गढ़ने लगे. विवेक की जगह जिद्द और तर्क की जगह थेथरोलॉजी इनके उपकरण बनते चले गए.

दिलीप से अब उन लोगों की शिकायत है, जो उनके जातिवादी व्याकरण के कल तक प्रशंसक थे. हर चीज को जाति के चश्मे से देखना कुछ लोगों का प्रिय शगल है. राजनीति से बढ़ते हुए यह विमर्श साहित्य तक आया है. गनीमत है विज्ञान तक अभी नहीं आया है. मैं इसे स्वीकार करता हूँ और हमेशा यह बात कहता रहा हूँ कि भारतीय समाज में वर्चस्ववादी संस्कृति है,यह जातिवाद और वर्णवाद के रूप में है, और इस से संघर्ष करने की जरूरत है. कुछ लोग कहते हैं सामाजिक गैरबराबरी की ऐसी व्यवस्था केवल भारत में है. जी नहीं, संसार के दूसरे हिस्सों में भी रही है. सभी मुल्कों में किसी न किसी स्तर पर वर्चस्व की संस्कृति थी और वहां के सामाजिक क्रांतिकारियों ने इसे अपने प्रतिरोध से दूर किया. मसलन फ़्रांसिसी समाज नोबल (सामंत ), क्लर्गी (पुरोहित )और सर्फ(भूमिहीन किसान) में विभाजित था. नोबलऔर क्लर्गी मिहनत नहीं करते थे. बैठे-बिठाए खाने का जुगाड़ बनाए हुए थे. भारतीय समाज में वर्णवादी व्यवस्था में यही था और है. फ्रांस में सबसे ऊपर सामंत, तब पुरोहित और उन दोनों के नीचे उनका भार वहन करने केलिए सर्फ थे. कमोबेस पूरे यूरोपीय समाज में यह व्यवस्था थी. भारतीय समाज में पुरोहित सब से ऊपर, सामंत उस के नीचे और कारीगर, व्यापारी, किसान मजदूर आदि उससे नीचे ( वैश्य और शूद्र रूप में ) थे. मनु ने अपनी संहिता में जातियों को वर्णों में विभाजित किया और उनके लिए मर्यादा तय कर दी. इनका उलंघन सामाजिक अपराध था.

जाति और वर्ण के रिश्तों को समझने की कोशिश कम लोगों ने की. जाति को जमात या वर्ण को वर्ग रूप में देखने की सलाहीयत तो गिने-चुने लोगों में ही रही. मंडल आयोग ने भी सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े सामाजिक समूहों, जिन्हे जाति से अभिहित किया जाता है, का एक वर्ग बनाया. लेकिन इसे भी समझा नहीं गया. जाति के नाम पर उन्माद खड़ा करना आसान होता है. इसलिए लोग इसे आधार बनाते रहे हैं. दिलीप कोई अकेले नहीं हैं.

इधर दिलीप पर आरोप है कि वह समाजवादी खेमे से खफा हैं. यह भी कि वह आरएसएस और भाजपा की तरफ लुढ़क गए हैं ?

यह सच है कि हिंदी क्षेत्र में समाजवादी खेमे के अलग-अलग दल मंडलवादी राजनीति से जुड़े रहे हैं. जब से मंडल दौर आया समाजवादी भूमि सुधार, शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन, दाम बांधो, रोजगार, जाति तोड़ो और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन के नारे भूल गए. बिहार में लालू प्रसाद, तो उत्तरप्रदेश में मुलायम यादव और मायावती की पार्टियां जातिवार कोटा पॉलिटिक्स करती रही हैं. स्वाभाविक है दिलीप उनकी तरफदारी करते रहे. लेकिन जब उन्हें यह लगा कि आरएसएस -भाजपा की राजनीति पिछड़ावादी गणित को अधिक प्रश्रय दे रही है, तो इसे उन्होंने रेखांकित किया. इस में देखने की बात यह होनी चाहिए कि दिलीप की बातों में दम है या नहीं. नहीं है तो उसे ख़ारिज होना चाहिए और यदि है, तो उनकी बातें सुनी जानी चाहिए.

दिलीप ने इस बीच देखा कि सामाजिकन्याय का शाइन-बोर्ड लगाए हुए दलों के नेताओं ने क्या किया है. उत्तरप्रदेश में मुलायम और मायावती ने एक दूसरे को अपमानित करने की भरपूर कोशिशें की. मुलायम सिंह की राजनीति के एक तरफ अमर सिंह होते थे, दूसरी तरफ जनेश्वर मिश्र. बीच में उनके अपने परिवार के लोग होते थे. मायावती का आम्बेडकरवाद सतीशचंद्र मिश्रा संभालते रहे. बिहार में लालू प्रसाद की राजनीति में उनके परिवार के अलावे केवल ऊँची जाति के सिपहसलार होते रहे. जनता को मूर्ख बनाने केलिए ये नेता जाति का जिन्न उकसाते रहे. सामाजिकन्याय के एक नए सितारे राहुल गांधी बनना चाहते हैं. उन्हें केंद्रीय हुकूमत में केवल तीन ओबीसी सचिव देख कर खूब गुस्सा आया, लेकिन और कहीं का नहीं, बिहार में ही इस लोक सभा चुनाव में उनकी पार्टी उम्मीदवारों का चयन उदाहरण के तौर पर पर रख सकता हूँ. इनके कुल नौ उम्मीदवारों में दो अनुसूचित संवर्ग से आरक्षित सीटों पर हैं, लेकिन सात सामान्य में पांच ऊँची जातियों से आते हैं. यह क्या है ?

और ऐसे में जब दिलीप ने देखा कि भाजपा और आरएसएस जाति के औजारों का बेहतर इस्तेमाल कर रही है, तब वह उन्हें पसंद करने लगे, तो इसमें दोष उनका नहीं,उनलोगों का है,जो उन्हें लालू-मुलायम या कांग्रेस का जरखरीद गुलाम बनाए रखने की तमन्ना पाले बैठे थे. ऐसे लोगों को खुद अपना दामन देखना चाहिए.

दिलीप ने कभी दावा नहीं किया कि वह मार्क्सवादी हैं, या समाजवादी हैं. उनका दावा केवल पिछड़ावादी होने का ही था या है. और उनका उदाहरण केवल इस बात का सबूत है कि जातिवादी राजनीति की परिणति समान्यतया ऐसी ही होती है. यदि दिलीप मंडल भी यादव या कुर्मी जैसे दबंग पिछड़ी जाति से आते तो बहुत संभव है अपमानित हो कर भी समाजवादी झोंपड़े में ही अपनी धुनी रमाए होते. लेकिन वह खाड़कू तबियत के हैं. चुप नहीं बैठेंगे.

*जो जख्म हुए उजड़ी बगिया जो गीत दिलों में क़त्ल हुए*
*हम हर कतरे हर गुंचे का हर गीत का बदला मांगेगे*

फैज़

वाराणसी बना प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता का साक्षी

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी भी अवसर को हाथ से नहीं जाने देते हैं और इस बार तो उनका नया रूप ही दिखाई पड़ रहा है क्योंकि अभी तक यह कहा जाता था कि प्रधानमंत्री मोदी मीडिया के सामने क्यों नहीं आते हैं किंतु अबकी बार वह लगातार मीडिया को साक्षात्कार दे रहे हैं

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाराणसी से लगातार तीसरी बार सांसद बनने के लिए भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा सहित केंद्रीय मंत्रियों, राज्यों के मुख्यमंत्रियों व राजग गठबंधन के सभी बड़े नेताओं की उपस्थिति में, अत्यंत शुभ मुहूर्त में अपना नामांकन पत्र दाखिल कर दिया है। इसके एक दिन पूर्व वाराणसी में उनके रोड शो के दौरान जिस प्रकार सड़कों पर जनसमुद्र उमड़ पड़ा वह काशी के चुनावी इतिहास में अद्भुत व अकल्पनीय रहा।

वाराणसी के पूर्व ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से लेकर बिहार की राजधानी पटना तक जिस प्रकार की जन भावनाएं मोदी जी के प्रति देखने को मिली हैं उनसे यह साफ संकेत मिलता है कि अबकी बार फिर मोदी सरकार ही बनने जा रही है । अलग अलग राज्यों के अलग अलग स्थानों पर प्रधानमंत्री जी के रोड शो समाजिक समरसता दिखाते हैं, इनमें नारी शक्ति का वंदन भी हो रहा है और एक भारत श्रेष्ठ भारत के दर्शन भी हो रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी के रोड शो में उनके समाज सेवा व भक्ति भाव के विविध रूपों के दर्शन भी हो रहे हैं।रोड शो के दौरान वह भीड़ में ही बच्चो को भी दुलार कर अनेक सामाजिक व राजनैतिक संदेश तो दे ही रहे हैं साथ ही यह भी बताने का प्रयास कर रहे हैं कि आने वाले दिनों में वे बच्चों के भविष्य के लिए बहुत कुछ करने जा रहे हैं।

जहां कहीं भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रोड शो निकलता है वहां से एक नया समीकरण सामने आ जाता है और विपक्ष हतप्रभ रह जाता है, उसे समझ में नहीं आता कि वह करे तो क्या करे। जब पटना में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रोड शो निकल रहा था, उस समय उनके साथ बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार थे और लोगों के आश्चर्यचकित होने का ठिकाना उस समय नहीं रहा जब उन्होंने नितीश कुमार जी के हाथों में कमल का फूल देखा अर्थात पटना के रोड शो में बिहार के मुख्यमंत्री के हाथ में उनकी अपनी पार्टी का चुनाव चिह्न न होकर कमल का फूल था जिसे लेकर अब बिहार की राजनीति में तरह तरह के कयास लगने आरम्भ हो गये है कि लोकसभा चुनावों और उनके परिणामों के बाद बिहार का राजनीति भी किधर की ओर जाएगी।

वाराणसी का रोड शो तो स्वाभाविक रूप से ही अद्भुत होना था, वाराणसी के लाडले बेटे का रोड शो जो था। वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक झलक पाने के लिए, उन्हें देखने के लिए हर कोई बेताब था । अपने सांसद के लिए पूरा बनारसी जनसमुद्र उमड़ पड़ा। उनके स्वागत में पूरे भाव से झांकियां सजायीं, पुष्प वर्षा की, आरती की, भगवा और तिरंगे लहराये, हर हर महादेच और जय श्रीराम से पूरे नगर को गुंजायमान कर दिया, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सनातन का सूर्योदय हो चुका है बस उसका तिलक ही शेष रह गया है और यह तिलक मां गांगा का बेटा नरेंद्र मोदी ही लगाने जा रहा है । रोड शो के दौरान उपस्थित उत्साहित जनमानस मीडिया के माध्यम से अपनी आवाज उन नेताओं तक पहुंचा रहा था जो मोदी के विरुद्ध चुनाव लड़ना चाहते हैं कि यदि वो अपना सम्मान व जमानत बचाना चाहते हैं तो वह अभी भी समय है अपना पर्चा वापस ले लें। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पांच किमी लंबे रोड शो के माध्यम से सामाजिक, आध्यात्मिक व जातीय गुणा -गणित पूरी तरह से साध लिया है। वाराणसी की धरती पर एक लहर नहीं ,सुनामी नहीं अपितु उससे भी बड़ा तूफान आ रहा था और वह था प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का जिसे देखकर हर कोई अचरज में था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नामांकन पत्र दाखिल करने के समय राज गठबंधन के सभी बड़े नेताओं की उपस्थिति रही, जिसमें उत्तर से लेकर दक्षिण और पश्चिम से लेकर पूर्वोतर राज्यों के सभी बड़े नेता थे। इनमें उल्लेखनीय रही बिहार की चर्चित चाचा भतीजे की जोड़ी अर्थात चिराग पासवान व पशुपति पारस की उपस्थिति। वाराणसी में दोनों की उपस्थिति व आपसी केमेस्ट्री को देखकर बिहार की सियासत में विरोधी दलों के नेताओं को तनाव हो गया है क्योंकि अभी तक बिहार के चाचा भतीजे की इस जोड़ी को लेकर मोदी विरोधी मीडिया में जो कयास लगाये जा रहे थे वे ध्वस्त हो गए हैं। वाराणसी में राजग नेताओं ने यह सिद्ध कर दिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए गठबंधन पूरी मजबूती से अपने नेता के साथ खड़ा है और उन्हें ही 400 पार सीटों के साथ तीसरी बार देश का प्रधानमंत्री बनाना है जबकि इंडी गठबंधन पूरी तरह से फ्यूज गठबंधन है जिसके पास न तो नेता है और न ही विचार है और नही विकास का कोई रोडमैप।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चार प्रस्तावकों के माध्यम से भी सबका साथ का परिचय दिया। राम मंदिर का शुभमुहूर्त में उद्घाटन कराने वाले ज्योतिषाचार्य पंडित गणेश्वर शास्त्री, ओबीसी समाज के बैजनाथ पटेल और लालचंद कुशवाहा तथा दलित समाज के संजय सोनकर को प्रस्तावक बनाकर मंडल व कमंडल की राजनीति को बखूबी साधने का प्रयास किया है। वाराणसी में पर्चा दाखिल करने के पूर्व प्रधानमंत्री जी ने अपना एक भावुक कर देने वाला वीडियो भी जारी किया और मां गंगा के प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुए एक संदेश दिया। प्रधानमंत्री ने कहा कि मुझे परमात्मा ने भेजा है। परमात्मा ने मेरे से काम लेना तय किया है। ये सब कुछ ऊपर वाले की कृपा है। हम 400 पार के लक्ष्य को लेकर चल रहे हैं। देश ने ही हमें 400 पार के लक्ष्य को पूरा करने के लिए कहा है।

अब वाराणसी पूरे देश की राजनीति का मुख्य केंद्र बिंदु बन चुकी है। यहां से प्रधानमंत्री ने काशी व उत्तर प्रदेश का ही नहीं अपितु पूरे भारत का समीकरण साधा है।देश के सभी महापुरुषों के कट आउट रोड शो में थे। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने शो के माध्यम से जहां देश के सामाजिक समीकरण के अंतर्गत जैन सन्यासी व शैव दक्षिण को समेटा वहीं दूसरी ओर वाराणसी के कोर वोटर 3 लाख ब्राह्मण मतदाता, 2.5 लाख से अधिक गैर यादव ओबीसी, 2 लाख कुर्मी, 2 लाख वैश्य, 1.5 लाख से अधिक भूमिहार और 1.5 लाख यादव सहित अनुसूचित जाति के मतदाताओं को भी साध लिया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी भी अवसर को हाथ से नहीं जाने देते हैं और इस बार तो उनका नया रूप ही दिखाई पड़ रहा है क्योंकि अभी तक यह कहा जाता था कि प्रधानमंत्री मोदी मीडिया के सामने क्यों नहीं आते हैं किंतु अबकी बार वह लगातार मीडिया को साक्षात्कार दे रहे हैं, वह चाहे छोटा हो या फिर बहुत बड़ा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने साक्षात्कारों के माध्यम से मनौवैज्ञानिक रूप से विरोधी दलों का मनोबल तीव्रता के साथ ध्वस्त कर रहे हैं। विरोधियों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने में भी मोदी आगे निकल चुके हैं और विपक्ष के सारे नैरेटिव विफल हो रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर साक्षात्कार में स्पष्ट रूप से बार -बार कह रहे हैं कि अबकी बार 400 पार का नारा एक नारा भर नहीं हे अपितु यह एक हकीकत बन चुका है, जिसे भारत की जनता ने करने का मन भी बना लिया है।
हताश विपक्ष प्रधानमंत्री मोदी के वाराणसी दौरे पर लगातर तंज कसने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहा है। प्रियंका गांधी कह रही हैं कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाराणसी में कभी किसी के घर गये हैं । बिहार के नेता प्रधानमंत्री मोदी के रोड शो व साक्षात्कार आदि को एक इवेंट मात्र बता रहे हैं। सच तो ये है कि प्रधानमंत्री मोदी के रोड शो में उमड़े जनसमुद्र ने विरोधी दलों के नेताओं के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं।

हिंदुओं की घटती जनसँख्या, खतरे का संकेत है!

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कांग्रेस सहित इंडी गठबंधन दलों का कहना है कि जनमानस के असली मुददों से ध्यान भटकाने के लिए यह झूठी रिपोर्ट जारी की गई है

लोकसभा चुनावों के चौथे चरण के पूर्व प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की, भारत में जनसँख्या वितरण पर आयी एक रिपोर्ट ने राजनैतिक वातावरण को मानों आग पर रख दिया है, जनसँख्या वितरण पर राजनैतिक बयानबाजी तेज हो गई है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1950 से 2015 के बीच कुल जनसँख्या में हिंदुओं की जनसँख्या 7.82 प्रतिशत घट गई है जबकि मुस्लिम आबादी 43.15 प्रतिशत बढ़ गई है। हिन्दुओं के लिए ये अत्यंत चिंताजनक है।

रिपोर्ट के अनुसार हिंदू जनसँख्या के तीव्रता से घटने का सिलसिला पड़ोसी इस्लामिक देशों पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश में तो चल ही रहा है, पूर्व के एकमात्र हिंदू राष्ट्र नेपाल में भी हिन्दुओं की जनसँख्या उसी तीव्रता के साथ कम हो रही हे जो अत्यंत चिंताजनक है। रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया के अधिकतर मुस्लिम बाहुल्य देशों में भी मुस्लिम हिस्सेदारी में बढ़ोत्तरी हुई हैव हीं हिंदू, ईसाई और अन्य धर्म बहुल देशों में बहुसंख्यक हिससेदारी में कमी आई है। परिषद ने दुनिया के 167 देशों में 1950 से 2015 के बीच आए जनसांख्यिकीय बदलाव का अध्ययन किया है। इन देशों में बहुसंख्यक उन्हें माना गया है जिनकी आबादी 75 प्रतिशत से अधिक है।रिपोर्ट के अनुसार इन देशों में 65 वर्षों में बहुसंख्यकों की हिस्सेदारी में 22 प्रतिशत की कमी आई है लेकिन यह मुस्लिम बहुसंख्यक देशों पर लागू नहीं होता। मुस्लिम बहुल 38 देशों में भी मुस्लिम आबादी बढ़ी है। पड़ोसी राष्ट्र म्यांमार में बहुसंख्यक बौद्ध आबादी भी 78.53 प्रतिशत से घटकर 70.80 प्रतिशत रह गई है। श्रीलंका में बौद्ध आबादी बढ़ी है जहां बौद्धों की आबादी 64.28 प्रतिशत से बढ़कर 67.65 प्रतिशत हो गई है। भूटान में भी बौद्धों की हिस्सेदारी में वृद्धि हुई है। प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद की यह रिपोर्ट हिन्दुओं के लिए बहुत ही चौकाने वाली तथा चिंताजनक तथा दुखद है।

स्वतंत्रता के बाद हिन्दुओं की घटती आबादी के लिए ,आखिर कौन जिम्मेदार है? निश्चय ही इसके लिए कांग्रेस व उसके गर्भ से निकलने वाले प्रधानमंत्रियों का शासनकाल व उनकी एकपक्षीय मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियों को ही सवार्धिक दोषी माना जाएगा। विकृत राजनैतिक कारणों से भारत में बांग्लादेशी घुसपैठियों की बाढ़ आ गई है, सुदूर पूर्व से लेकर उत्तर के कठिन क्षेत्रों तक बड़ी संख्या में अवैध बांग्लादेशी और रोहिंग्या बस्तियां हैं। तुष्टिकरण की घृणित राजनीति के कारण भारत के पूर्वोत्तर सहित नौ राज्यों में हिन्दू अल्पसंख्यक हो गये हैं जबकि एक दर्जन से अधिक जिले ऐसे हैं जहां हिन्दू अल्पसंख्यक हो गये हैं। बंगाल के मुर्शिदाबाद में हिंदू आबादी तो मात्र 30 प्रतिशत ही रह गई है और केरल का हाल तो सर्वविदित है। पाकिस्ताऩ़, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में भी हिन्दुओं की घटती आबादी के लिए भी कांग्रेस शासनकाल की लचर नीतियां ही जिम्मेदार हैं क्योंकि जब इन देशों में हिन्दू व अन्य अल्पसंखक समाज के लोगों पर अत्याचार हो रहे थे और उन पर जघन्य अपराध करके उनका धर्मान्तरण किया जा रहा था तब भारत में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकारें मुस्लिम तुष्टीकरण के कारण अपना मुंह बंद कर लेती थीं।

कांग्रेस सहित इंडी गठबंधन दलों का कहना है कि जनमानस के असली मुददों से ध्यान भटकाने के लिए यह झूठी रिपोर्ट जारी की गई है। इन लोगों का यह भी कहना है कि भाजपा के हाथ से यह चुनाव फिसलता जा रहा है जिसके कारण यह रिपोर्ट जारी की गई है । वास्तविकता यह है कोई भी सचेत और सतर्क व्यक्ति स्वयं अनुभव कर सकता है कि हिन्दू आबादी कम हो रही है और मुस्लिम आबादी तीव्रता के साथ बढ़ रही है।

सच तो यह है कि ये रिपार्ट लोकसभा चुनावों में के मध्य विपक्ष और उसकी सहयोगी विदेशी ताकतों द्वारा चलाये जा रहे उस झूठे विमर्श को ध्वस्त कर रही है जिसमें जोर देकर कहा जा रहा था कि भारत में मुसलमान खतरे मे हैं और भारत में मुसलमानों पर अत्याचार हो रहा है। अभी हाल ही में अमेरिका से जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव हो रहा है इस रिपोर्ट ने उस झूठ की धज्जियाँ उड़ा दी हैं ।आजकल लोकसभा चुनावों को लेकर हर संसदीय क्षेत्र की विभिन्न कोणों से रिपोर्टिंग की जा रही है जिनमें यह भी बताया जा रहा है कि कहां पर कितने मुस्लिम मतदाता हैं अगर इन रिपोर्ट्स को ही आधार मान लिया जाये तो स्थिति कुछ हद तक स्पष्ट हो रही है कि जमीनी सच्चाई कितनी बदल चुकी है और हिन्दू जनसंख्या को लेकर स्थितियां कितनी भयावह हो गई हैं। अधिकांश संसदीय सीटों पर मुसलमान मतदाताओं की संख्या 14 प्रतिशत से ऊपर जा चुकी है। कुछ इलाके जैसे बिहार का किशनंगज तो पूरी तरह से मुस्लिम बहुल हो चुके हैं।

मुस्लिम आबादी के तीव्रता से बढ़ने पर कांग्रेस, सपा, बसपा सहित भारत के अन्य क्षेत्रीय व परिवारवादी दलों का वोट बैंक भी बढ़ता है यही कारण है कि वे हिन्दू समाज से सम्बंधित सभी मुद्दों की अवहेलना करते हैं और मुस्लिम माफियाओं को सर पे बैठाते हैं । थोक मुस्लिम वोट के लिए राम को काल्पनिक बताना, ज्ञानवापी में मिले शिवलिंग को फव्वारा बताना, कांवड़ियों को गुंडा कहना, सनातन की तुलना डेंगू से करना इनके लिए सामान्य बात है । थोक मुस्लिम वोट पाने के लिए उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक मतदान जैसे पवित्र कार्य के लिए “वोट जिहाद” का नारा दिया जा रहा है । मस्जिदों से मुसलमानों को बताया जा रहा है कि उन्हें किस सीट पर किस विरोधी दल के उम्मीदवार को जिताना है । कांग्रेस, सपा, बसपा सहित इंडी गठबंधन आजकल जो संविधान बचाओ संविधान बचाओ का हल्ला कर रहा है वह असल में मुस्लिम तुष्टिकरण की विकृत राजनीति ही है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी बांग्लादेशी घुसठियों व रोहिंग्याओं की सुरक्षा कवच बन गई हैं । मुस्लिम वोटबैंक के कारण विपक्ष इस ताजा रिपोर्ट को भी झूठा व ध्यान भटकाने वाला मुद्दा बता रहा है।

इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल लगाया और जनसँख्या नियोजन के नाम पर हिन्दुओं की जबरदस्ती नसबंदी की गई। परिवार नियोजन कार्यक्रम को हिन्दुओं पर थोप दिया गया और मुसलमानों को उससे दूर रखा गया। ”हम दो, हमारे दो“ के नारे के तहत हिन्दुओं को ही टारगेट किया गया और विदेशों से धन लेकर इसके लिए कार्यक्रम चलाए गए जिसका कुप्रभाव अब दिखाई पड़ रहा है।

बढ़ती आबादी केवल धार्मिक आधार पर ही चिंता का विषय नहीं है अपितु प्राकृतिक, भौगोलिक और सामाजिक संतुलन के लिए भी चिंताजनक है। जनसंख्या वृद्धि के कारण ही बेरोजागारी की समस्या में भी तेजी से वृद्धि हो रही है जिसके कारण आपराधिक घटनाओं में वृद्धि हो रही है।

कांग्रेस, सपा, बसपा व अन्य इंडी गठबंधन में शामिल सभी भाजपा विरोधी दलों को भले ही घटती हुई हिन्दू आबादी की चिंता न हो किंतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद व बजरंग दल सहित तमाम हिंदू संगठन इसको लेकर चिंतित हैं । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ हिन्दुओं की घटती आबादी पर अपनी चिंता व्यक्त करता रहा है और सरकार से धर्मांतरण की रोकथाम के लिए कड़े कानून, जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू करने की बात करता रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी कार्यकारिणी में भी कई बार प्रस्ताव पारित कर चुका है जिसमें उसने सरकारों और देश वासियों से जानना चाहा है कि अगले 30 -40 वर्षों में भारत कितने लोगों का भार सह सकता है। वर्तमान समय में हमारी जनसंख्या नीति कैसी हो हम इसे कैसे लागू करें। घुसपैठियों के कारण बढ़ रहे सामाजिक व सांस्कृतिक परिवर्तनों से समाज को कैसे बचाया जाये। संघ सभी सरकारों से जनसंख्या नियंत्रण कानून व समान नागरिक संहिता कानून लागू करने की मांग करता रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी लाल किले से अपने सम्बोधन में जनसंख्या नियंत्रण कानून की एक बार बात कर चुके हैं।

भारत के कट्टरपंथी मुसलमान, देश का विभाजन करा लेने के बाद भी उसी मानसिकता से चल रहे हैं जोव औरंगजेब के समय में थी और कांग्रेस सहित इंडी गठबंधन के दल इन्हीं मुसलमानों के विचारों का अनुपालन कर रहे हैं। कांग्रेस चुनाव में प्रतिबंधित पीएफआई का सहयेग लेती है और मुस्लिम लीग की छाप वाला घोषणापत्र बनाती है।

यह बहत ही चिंताजनक है कि भारत जो हिन्दुओं तथा सनातन की धरती है वही कम होती हिन्दू जनसँख्या की समस्या से जूझ रहा है। यदि जनसांख्यिकी परिवर्तन ऐसा ही चला तो 2050 में भारत का क्या होगा यह चिचार करने का समय आ चुका है। वामपंथी विचारधारा के वशीभूत पड़ोसी राष्ट्र नेपाल अपना हिन्दू स्वरूप को खो चुका है। हिन्दू जनसँख्या को कम करने के लिए अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र चलाये जा रहे हैं जिसमें चर्च व इस्लामिक राष्ट्र दोनों शामिल हैं। जनसँख्या असंतुलन के तीनों प्रमुख कारकों – धर्मान्तरण, घुसपैठ और जनसँख्या नियंत्रण के लिए परिवार नियोजन का पूरा बोझ हिन्दुओं पर डालना तीनों के लिए ही भारत के अन्दर बैठी और भारत के बाहर कार्यरत हिन्दू विरोधी शक्तियां जी जान से लगी हैं।

बढ़ती मुस्लिम आबादी के प्रति हिन्दू जनमानस में जागृति लानी होगी तथा गम्भीरता पूर्वक विचार करना होगा कि आने वाले समय में यदि हिन्दू समाज को सुरक्षित रखना है तो क्या करना होगा क्योकि लोकतंत्र में जनसँख्या ही महत्वपूर्ण होगी । इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि जब -जब हिन्दू घटा है, बंटा है और कमजोर हुआ है तब तब देश विभाजित हुआ है ।

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