डॉ. मयंक चतुर्वेदी
भारत के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ढांचे के सामने आज जो चुनौती खड़ी है, वह राजनीतिक होने के साथ ही वैचारिक और सामाजिक भी है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस से निलंबित विधायक हुमायूं कबीर का ताजा बयान इसी चुनौती की एक तीखी अभिव्यक्ति कही जा सकती है। मुर्शिदाबाद में बनने वाली तथाकथित बाबरी मस्जिद को लेकर उनका यह कहना, “यह कोई अयोध्या नहीं है, जो बाबरी को कोई हाथ लगा दे”, वस्तुत: सिर्फ जुबान की फिसलन नहीं है। यह एक सोची समझी मानसिकता, एक उकसावे और टकराव की राजनीति का संकेत है जोकि बीते वर्षों में जिहाद के नाम पर पनप रही इस्लामिक कट्टर सोच, उम्मा और पॉलिटिकल इस्लाम से गहराई से जुड़ी हुई है।
अयोध्या विवाद भारत के संवैधानिक इतिहास का एक लंबा और पीड़ादायक अध्याय रहा है, जिसमें हिन्दुओं के अस्तित्व और स्वाभिमान को लगातार 500 वर्षों तक बार-बार चुनौती दी जाती रही, जिसे कि उच्चतम न्यायालय के फैसले ने कानूनी और लोकतांत्रिक तरीके से समाप्त किया। इसके बाद राम मंदिर निर्माण को लेकर देश ने एक कठिन लेकिन जरूरी मोड़ पार किया। ऐसे समय में अयोध्या का संदर्भ उठाकर बाबरी नाम को दोबारा सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में लाना यह दिखाता है कि कुछ लोग उस फैसले को स्वीकार नहीं कर पाए हैं और वे भारतीय समाज को फिर से उसी खाई की ओर धकेलना चाहते हैं, जिससे निकलने में दशकों लगे हैं।
हुमायूं कबीर द्वारा मुर्शिदाबाद में बाबरी मस्जिद के निर्माण की विस्तृत योजना बताना, उसकी फंडिंग, ईंटों की व्यवस्था और साप्ताहिक नमाज की तैयारियों का सार्वजनिक ऐलान करना, ये सभी कृत्य महज धार्मिक गतिविधि का विवरण नहीं हो सकते हैं । साफ तौर पर इस कर्मकाण्ड से राजनीतिक संदेश दिया जा रहा है। यह संदेश उन लोगों के लिए है जो बाबरी ढांचे के विध्वंस को आज भी बदले की भावना से देखते हैं, बाबर जैसे जिहादी, क्रूर आक्रमकारी, हिन्दू द्रोही को अपना आदर्श मानते हैं। दरअसल ऐसे लोग मस्जिद का नाम बाबरी रखकर उस सामूहिक आक्रोश को बढ़ाना चाहते हैं, जो भारत में मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं पर हिंसा करने का कारण बन सकता है!
पिछले एक दशक में भारत ने इस्लामिक कट्टरपंथ के कई रूप देखे हैं। यह सीमा पार से होने वाला इस्लामिक आतंकवाद नहीं रहा है, अनेक बार अब तक सामने आ चुका है कि देश के भीतर वैचारिक स्तर पर भी इसका विस्तार बहुत तेजी से हुआ है। सोशल मीडिया के जरिये युवाओं को कट्टर विचारधाराओं से जोड़ने की कोशिशें हुईं। आईएसआईएस और अल कायदा से जुड़े मॉड्यूलों का भंडाफोड़ हुआ। पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया, सिमि जैसे संगठनों पर कार्रवाई ने यह साफ किया कि कैसे मजहब और सामाजिक सेवा की आड़ में इस्लाम के उग्र नेटवर्क खड़े किए जा रहे थे। कश्मीर से लेकर केरल और बंगाल तक, जिहाद की भाषा अलग अलग रूपों में सामने आई है, जिसका कि मूल मकदस एक ही है। गैर मुसलमानों पर हिंसा।
कहना होगा कि इस पूरे परिदृश्य में गजवा-ए-हिंद की सोच एक बेहद खतरनाक वैचारिक हथियार बनकर उभरी है। यह कोई मासूम मजहबी कल्पना नहीं है; एक आक्रामक राजनीतिक और सैन्य कल्पना है, जो भारत को एक लक्ष्य के रूप में देखती है। जांच एजेंसियों की रिपोर्टों और गिरफ्तार आतंकियों के बयानों में बार-बार इस विचार का उल्लेख हुआ है। भले ही भारत के अधिकांश मुसलमान इस सोच को नकारते हों, लेकिन कुछ कट्टर तत्व इसे अपनी पहचान और उद्देश्य बना चुके हैं। यही वजह है कि हर ऐसा बयान, हर ऐसा प्रतीकात्मक कदम जो इस सोच को बल देता है, उसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।
हुमायूं कबीर का यह तर्क कि चुनाव में जय श्रीराम बोलना सही है तो अल्लाह हू अकबर कहना भी उतना ही सही है, सतही समानता का उदाहरण है। यह तर्क इस सच्चाई को नजरअंदाज करता है कि नारों का राजनीतिक इस्तेमाल किस संदर्भ में किया जा रहा है। ऐसे में पश्चिम बंगाल का संदर्भ यहां विशेष महत्व रखता है। सीमावर्ती जिले, अवैध घुसपैठ, जनसांख्यिकीय बदलाव और कट्टरपंथी गतिविधियों को लेकर राज्य पहले ही सवालों के घेरे में है। मुर्शिदाबाद जैसे मुस्लिम बहुल और सीमा से सटे इलाके में, छह दिसंबर को बाबरी मस्जिद की नींव रखना महज संयोग नहीं माना जा सकता। इसे चुनना यह दिखाता है कि संदेश किसे और क्यों दिया जा रहा है।यही वह बिंदु है जहां जिहादी सोच और अवसरवादी राजनीति एक दूसरे से हाथ मिला लेती हैं।
भारत को आज जिस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत है, वह है राजनीतिक जिम्मेदारी और वैचारिक स्पष्टता। मजहबी स्वतंत्रता का अर्थ उकसावे की छूट नहीं हो सकता। आस्था का सम्मान बदले की भावना से नहीं किया जा सकता। हुमायूं कबीर का बयान और उससे जुड़ा पूरा घटनाक्रम आज बता रहा है कि अगर समय रहते जिहादी और कट्टर सोच को वैचारिक स्तर पर चुनौती नहीं दी गई, तो यह कानून व्यवस्था से कहीं अधिक राष्ट्रीय एकता के लिए घातक होगा। वस्तुत: जो लोग देश को बार-बार अतीत के अंधेरे में खींचना चाहते हैं, आज जरूरत है उनसे सख्ती से, लोकतांत्रिक तरीके से निपटा जाए । वास्तव में यही समय की मांग है।



