गांधी हत्या और आरएसएस: तथ्य, जांच और वैचारिक विवाद

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कैलाश चंद्र
कारवां पत्रिका का दावा और ऐतिहासिक तथ्य

कारवां पत्रिका ने हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर गांधी हत्या से संबंधित अपने इतिहास को छुपाने का आरोप लगाया है। लेख में दावा किया गया कि आरएसएस ने गांधी हत्या में भूमिका निभाई और NCERT ने पाठ्यपुस्तकों से संबंधित हिस्से हटाए। हालांकि, ऐतिहासिक तथ्य और आधिकारिक जांच इस दावे का खंडन करते हैं। नाथूराम गोडसे, जो 1930 के दशक में कुछ समय तक आरएसएस से जुड़ा था, ने बाद में हिंदू महासभा के साथ सक्रिय राजनीति की। गांधी हत्या के समय वह हिंदू महासभा का कार्यकर्ता था, न कि आरएसएस का। आधिकारिक जांचों ने आरएसएस को इस हत्या में प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया।

गांधी हत्या की जांच: रेड फोर्ट ट्रायल और कपूर आयोगगांधी हत्या की जांच दो प्रमुख प्रक्रियाओं से हुई। पहली थी रेड फोर्ट ट्रायल (1948), जिसमें नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को दोषी ठहराया गया और उन्हें फांसी की सजा दी गई। दूसरी थी जस्टिस जे.एल. कपूर आयोग (1966–1969), जिसने तीन साल की गहन जांच के बाद स्पष्ट किया कि गांधी हत्या की साजिश में गोडसे और आप्टे का हाथ था, लेकिन आरएसएस एक संगठन के रूप में इसमें शामिल नहीं था। कपूर आयोग ने कानूनी सबूतों के आधार पर अपनी राय दी, जो कारवां जैसे लेखों के वैचारिक दावों से बिल्कुल भिन्न है।
वैचारिक नैरेटिव बनाम तथ्य

कारवां का लेख इस कथ्य को बढ़ावा देता है कि आरएसएस ने गांधी हत्या से अपने कथित जुड़ाव को छुपाया और यह ब्राह्मणवादी प्रभुत्व का हिस्सा था। हालांकि, दोनों आधिकारिक जांचों ने आरएसएस को निर्दोष पाया। 1948-49 में आरएसएस पर लगे प्रतिबंध को बाद में हटा लिया गया, और संगठन ने कानूनी मान्यता प्राप्त की। लेख में वामपंथी-मार्क्सवादी दृष्टिकोण से प्रेरित होकर आरएसएस को नकारात्मक रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है। इसके विपरीत, ऐतिहासिक दस्तावेज और जांच सत्य को स्पष्ट करते हैं।

गांधी हत्या की पृष्ठभूमि और गोडसे का विचार

नाथूराम गोडसे ने गांधी की नीतियों, विशेष रूप से विभाजन, पाकिस्तान को आर्थिक सहायता और कथित मुस्लिम तुष्टिकरण के खिलाफ असंतोष के चलते हत्या की। उनके बयानों और कोर्ट रिकॉर्ड में यह स्पष्ट है कि उनकी प्रेरणा व्यक्तिगत और वैचारिक थी। कपूर आयोग ने भी गोडसे और आप्टे के विचारात्मक संबंध को स्वीकार किया, लेकिन आरएसएस की संगठनात्मक भूमिका को खारिज किया।

बालाजी हुद्दार: एक असाधारण जीवन

लेख में आरएसएस के शुरुआती कार्यकर्ता गोपाल मुकुंद हुद्दार (बालाजी हुद्दार) का भी जिक्र है, जिन्हें वैचारिक भ्रम का हिस्सा बनाया गया। 1902 में जन्मे हुद्दार 1925 में आरएसएस के शुरुआती सदस्य थे और 1929-30 में इसके पहले सरकार्यवाह रहे। 1931 में बालाघाट डकैती कांड में उनकी गिरफ्तारी हुई, जिससे आरएसएस को झटका लगा। बाद में, वे पत्रकारिता के लिए लंदन गए और 1937 में स्पेनिश गृहयुद्ध में अंतरराष्ट्रीय ब्रिगेड के साथ लड़े, जहां उन्होंने ‘जॉन स्मिथ’ के नाम से अपनी पहचान छिपाई। 1938 में रिहा होने के बाद वे भारत लौटे और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया में शामिल हुए। 1952 में उन्होंने राजनीति छोड़कर आध्यात्मिकता को अपनाया। उनकी कहानी दक्षिणपंथ से वामपंथ और फिर आध्यात्मिकता तक की यात्रा को दर्शाती है।
प्रोपेगंडा बनाम सत्य

कारवां और द वायर जैसे मंचों पर वामपंथी नैरेटिव के जरिए आरएसएस और इसके संस्थापकों, जैसे डॉ. हेडगेवार, के खिलाफ भ्रामक दावे किए जाते हैं। प्रोफेसर राकेश सिन्हा की पुस्तक Builders of Modern India में हेडगेवार के क्रांतिकारी जीवन के ठोस सबूत दिए गए हैं। इसी तरह, गांधी हत्या से संबंधित आधिकारिक दस्तावेज, जैसे रेड फोर्ट ट्रायल और कपूर आयोग की रिपोर्ट, सत्य को सामने लाते हैं। National Archives of India से और दस्तावेज सामने आने पर यह भ्रम और स्पष्ट होगा।

सत्य का अधिकार

गांधी हत्या के मामले में आरएसएस को बदनाम करने की कोशिशें वैचारिक प्रोपेगंडा का हिस्सा हैं। रेड फोर्ट ट्रायल और कपूर आयोग जैसे प्रामाणिक स्रोत साफ कहते हैं कि आरएसएस का संगठनात्मक स्तर पर कोई दोष नहीं था। बालाजी हुद्दार जैसे व्यक्तियों की कहानी भी दिखाती है कि आरएसएस के शुरुआती कार्यकर्ता स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थे। देश को सत्य जानने का अधिकार है, और आधिकारिक दस्तावेज इस सत्य को उजागर करते हैं। वैचारिक लेखन के बजाय तथ्यों पर आधारित इतिहास ही न्याय करेगा।

(श्री कैलाश चन्द्रजी से उनके ई मेल पर संपर्क किया जा सकता है: Kailashchander74@gmail.com)

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