सहारनपुर की हरी-भरी वादियों में, जेएनयू के प्रोफेसर प्रवेश चौधरी के साथ मेरी यात्रा एक अनोखा अनुभव बन गई। मुझे नहीं पता था कि प्रवेश, जो किताबों और कक्षाओं के लिए जाने जाते थे, पशुओं की देखभाल में भी इतने निपुण थे। यह बात तब खुली जब हम एक गाँव से गुजर रहे थे।
रास्ते में एक घर के सामने भीड़ जमा थी। एक किसान परिवार शोर मचा रहा था। उनकी गाय की बछिया दरवाजे पर लेटी थी, बेजान-सी। लोग उसे मरा हुआ मान चुके थे। परिवार का रोना-धोना सुनकर मन भारी हो गया। तभी प्रवेश ने कदम बढ़ाए। यह पाँच-सात साल पुरानी बात है, पर आज भी आँखों के सामने ताजा है।

प्रवेश ने भीड़ को शांत किया और बछिया के पास पहुँचे। एक नजर में ही उन्होंने बीमारी समझ ली। न जाने कैसे, उन्होंने बिना हिचक अपना हाथ बछिया के मुँह में डाला और गले में फँसी चीज निकाल दी। “इसे पानी पिलाओ, आधे घंटे में ठीक हो जाएगी,” उन्होंने विश्वास से कहा। परिवार ने उनकी बात मानी। वापसी में उसी रास्ते से गुजरते वक्त हमने देखा—वह बछिया अपने पैरों पर खड़ी थी, चहलकदमी कर रही थी। किसान परिवार प्रवेश को आशीर्वाद दे रहा था, जैसे वे कोई चमत्कारी संत हों। मैं दंग रह गया। प्रवेश की इस कला ने मुझे हैरान कर दिया।
यह घटना मुझे हमेशा याद दिलाती है कि हमारे बीच कितने हुनरमंद लोग हैं, जिनके बारे में हम कम जानते हैं। प्रवेश जैसे लोग किताबों से परे, जीवन को जीवंत बनाते हैं। उनकी सादगी और ज्ञान ने उस दिन न सिर्फ एक बछिया को बचाया, बल्कि मेरे मन में उनके लिए सम्मान को और गहरा कर दिया।
