दिल्ली। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया जैसी संस्था, जो पत्रकारों के हितों की रक्षा करने का दावा करती है, अक्सर एक खास इको सिस्टम के पक्ष में खड़ी नजर आती है, जो सत्ता और कॉर्पोरेट हितों से जुड़ा हुआ लगता है। यह सवाल उठना लाजमी है कि क्यों यह गिल्ड अमन चोपड़ा, सुधीर चौधरी, अशोक श्रीवास्तव, प्रखर श्रीवास्तव, अजीत भारती, रचित कौशिक और मनीष कश्यप जैसे पत्रकारों व यूट्यूबर्स के उत्पीड़न के समय चादर ताने सोई रहती है? इन पत्रकारों को सरकारी दबाव, सेंसरशिप और कानूनी कार्रवाइयों का सामना करना पड़ता रहा है, लेकिन गिल्ड की ओर से कोई ठोस आवाज नहीं उठती।
हाल के अडानी मामले में यह पूर्वाग्रह और स्पष्ट हो गया है। दिल्ली की रोहिणी कोर्ट ने 6 सितंबर को अदानी एंटरप्राइजेज के पक्ष में एक एक्स पार्टे ‘जॉन डो’ इंजंक्शन जारी किया, जिसमें नौ पत्रकारों—परांजॉय गुहा ठाकुरता, अजीत अंजुम, रविश कुमार, आकाश बनर्जी सहित— अन्य यू ट्यूबर्स को ‘अमान्य, अपुष्ट और मानहानिकारक’ सामग्री प्रकाशित करने से रोका गया। कोर्ट ने अदानी को ऐसी सामग्री के यूआरएल इंटरमीडियरीज या सरकार को भेजने की अनुमति दी, जिसे 36 घंटे में हटाने का आदेश था। इसके बाद सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने यूट्यूब पर 138 लिंक्स और इंस्टाग्राम पर 83 पोस्ट हटवाए, जिसमें न्यूजलॉन्ड्री, द वायर और एचडब्ल्यू न्यूज जैसे आउटलेट्स शामिल थे।
एडिटर्स गिल्ड ने इस आदेश पर चिंता जताई, कहा कि यह ‘पूर्व सेंसरशिप’ की ओर ले जाता है और प्रेस स्वतंत्रता को खतरा है। गिल्ड ने बयान में चेतावनी दी, “कॉर्पोरेट इकाई को ऐसी व्यापक शक्तियां देना और मंत्रालयी टेकडाउन दिशा निर्देश सेंसरशिप की दिशा में कदम हैं, जो वैध रिपोर्टिंग, टिप्पणी और व्यंग्य को दबा सकते हैं।”
लेकिन यह चिंता चुनिंदा लगती है—क्योंकि जब सुधीर चौधरी, अशोक श्रीवास्तव, प्रखर श्रीवास्तव या अमन चोपड़ा जैसे वरिष्ठ पत्रकारों को एफआईआर और ब्लॉकिंग का सामना करना पड़ता है, गिल्ड चुप रहती है। यदि गिल्ड केवल एक खास इको सिस्टम के लिए खड़ी है, तो इसे अपना नाम बदलकर ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ कांग्रेस’ या ‘फॉर कांग्रेस’ रख लेना चाहिए। उसका दोहरा मापदंड लोकतंत्र की नब्ज पर सवाल उठाता है, जहां प्रेस की आजादी सबके लिए होनी चाहिए।
गिल्ड को सभी पत्रकारों के लिए समान रूप से खड़ा होना होगा, वरना इसकी विश्वसनीयता का भी उंगलबाज.कॉम हो जाएगा।