शृंखला आलेख – 3: गुरिल्ला नहीं गिद्ध वारफेयर है माओवाद

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माओवादियों की युद्धनीति को गुरिल्ला वरफेयर कहना उचित उपमान नहीं है, यह शब्द शहरी नक्सलियों का नैरेटिव है जिसका उद्देश्य लाल-आतंकवादियों को महिमामण्डित करना। मेरा यह कथोपकथन अनायास नहीं है, इसे परिभाषा से समझते हैं। यह स्पैनिश भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है लघुयुद्ध, आम तौर पर गुरिल्ला शब्द छापामार के अर्थ में प्रयुक्त होता है। परम्परा से गुरिल्ला युद्ध अनियमित सैनिकों द्वारा शत्रुसेना पर पार्श्व से आक्रमण कर लड़े जाते हैं। योद्धा कम संख्या में होते हैं अत: बेहतर रणनीति के साथ, स्वयं की सामरिक बढ़त वाले स्थान चुन कर वे बड़ी सेना पर औचक आक्रमण करते हैं और संभालने का अवसर देने से पहले यथासंभव उद्देश्यपूर्ति के पश्चात भाग निकलते हैं। सबसे पहले ज्ञात छापामार अथवा गुरिल्ला युद्ध की जानकारी मिलती है जो चीन में 360 वर्ष ईसा पूर्व सम्राट् हुआंग और उनके शत्रु सी याओ के मध्य लड़ा गया था। भारत में महाराणा प्रताप ने अकबर के विरुद्ध और छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा औरंगजेब के विरुद्ध जिस शैली में लड़ाईया लड़ी गयीं, वह इसी श्रेणी में आती हैं।

इन उदाहरणों से माओवादी आतंकवादी क्यों अलग हैं इसे समझने के लिए हमें शैली पर एक दृष्टि डालनी होगी। छापामार योद्धा स्थान का चुनाव कर रहे थे, शत्रु पर अचानक हमला कर रहे थे लेकिन वह आमना-समाना था। ये सभी युद्ध वीरतापूर्ण थे, यहाँ योजना के साथ चिड़िया बाज से लड़ रही थी और जीत भी रही थी। इन युद्धों में बिना लड़े विजय पाने का दर्प नहीं था। माओवादी जिस तरह आईईडी लगा कर, एंबुश के माध्यम से विस्फोट कर ग्रामीणों और सुरक्षा बलों की लाशें बिछा रहे हैं, इसे गुरिल्ला कहना युद्ध और वीरता दोनों ही शब्दों का अपमान है, यह गिद्ध शैली है। गिद्ध लड़ता नहीं है लाश खाता है। माओवादी बिना सामना किये, लाशे ही चाहते हैं। सुरक्षा बलों ने यदि सौ अभियान किये तो सौ के सौ में उन्हें सतर्क, सटीक और सफल होना आवश्यक है लेकिन जाने-अनजाने की एक चूक वह होती है जिसकी अपनी निनानबे असफलताओं के बाद भी माओवादी प्रतीक्षा करते रहते हैं।

माओवादियों के गिद्ध वारफेर को दो उदाहरण से जानते हैं। पहला है, सुरक्षाबालों को मिल रही अनेक सफलताओं के बीच 6 जनवरी, 2025 की घटना। बीजापुर में नक्सल उन्मूलन की कार्रवाई में बड़ी सफलता अर्जित करते हुए जवानों ने पाँच माओवादियों को ढेर कर दिया था। पूरे क्षेत्र की सघन सर्चिंग करने के उपरांत जवान अपने कैंप की ओर लौट रहे थे। डीआरजी के जवानों को वापस लाने के लिए जो पिक-अप वाहन भेजी गई थी वह नक्सलियों का निशाना बन गयी। कुटरू क्षेत्र में अंबेली ग्राम के निकट नक्सलियों ने आईईडी ब्लास्ट किया। यह धमाका इतना अधिक शक्तिशाली था कि वाहन के परखच्चे उड़ गये। इस ब्लास्ट के कारण न केवल वाहन पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हुआ, बल्कि उसका एक हिस्सा निकट के पेड़ पर लटका हुआ देखा गया। सड़क के बीचोंबीच दस फुट से अधिक गहरा गड्ढ़ा हो गया। दंतेवाड़ा डीआरजी के आठ जवान और एक वाहन चालक इस घटना में शहीद हो गये। इसी तरह दूसरी घटना है 10 जून, 2025 की जब माओवादियों के भारत बंद के आह्वान के दृष्टिगत एक जलाए गए वाहन का निरीक्षण करने निकले अतिरिक्त एसपी आकाश राव गिरीपुंजे, लगायी गई आईईडी की चपेट में आ गए और शहीद हो गये, इस हादसे में अन्य अधिकारी एवं जवान भी घायल हुए हैं।

घात लगा कर लड़ना गुरिल्ला युद्ध नीति है जबकि एंबुश लगाना, आईईडी लगाना या स्पाईक होल लगा कर फिर छिप कर लाशे बिछ जाने की प्रतीक्षा करने वाले गिद्ध हैं और उनका तरीका गिद्ध वरफेयर कहा जाना चाहिए। देश भर से लाल आतंकवाद को समाप्त करने का समय आ गया है, लाशों के ढेर पर कथित क्रांति लाने के स्वप्नदृष्टा मिट्टी में मिला ही दिए जाएंगे। हमें लाल-आतंकवादियों के लिए सही सम्बोधन, उनकी युद्धनीति के लिए सही उपमान ही देने चाहिये। शहरी नक्सलियों के नैरेटिव उनके शब्दजाल में रचे-बुने हैं, समय है उनको भी ध्वस्त करने का।

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राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन एक पुरस्कार विजेता लेखक और पर्यावरणविद् हैं। जिन्हें यथार्थवादी मुद्दों पर लिखना पसंद है। कविता, कहानी, निबंध, आलोचना के अलावा उन्होंने मशहूर नाटकों का निर्देशन भी किया है।

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