गुरु की गर्जना, सभ्यता की शपथ: सवा लाख से एक लड़ाने वाला महासंत..

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प्रणय विक्रम सिंह

दिल्ली । इतिहास के कुछ क्षण ऐसे होते हैं, जब कोई व्यक्ति नहीं, पूरी सभ्यता बोलती है। गुरु श्री गोबिन्द सिंह जी महाराज ऐसे ही क्षणों की आवाज हैं।

वे किसी युग के साधु नहीं, सभ्यता के सेनापति थे। वे उस समय खड़े हुए, जब सनातन संस्कृति को मिटाने की योजनाएं तलवार से कम और विश्वासघात से अधिक रची जा रही थीं। उस समय गुरु ने समझौता नहीं किया, संघर्ष का शंखनाद किया।उस अंधकार में गुरु का जीवन दीपशिखा बनकर जला, न केवल सिख पंथ के लिए, बल्कि सम्पूर्ण भारतीय चेतना के लिए।

गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज ने धर्म को पूजा की परिधि से निकालकर जीवन का साहस बनाया। उनके लिए स्वधर्म का अर्थ आत्मरक्षा भर नहीं था, बल्कि समाज और संस्कृति की रक्षा था। वे जानते थे कि जब अन्याय संगठित हो जाए, तो सत्य को भी संगठित होना पड़ता है। ऐसे समय पर धर्म का मौन अपराध बन जाता है। यही कारण है कि गुरु ने शास्त्र से शील और शस्त्र से शौर्य दोनों को एक ही श्वास में साधा। यही संत-सैनिक परंपरा है। यही खालसा है। और यही सनातन की वह चेतना है, जो संकट में तपकर और तेजस्वी होती है।

इसी कारण इतिहास में वह गर्जना गूंजती है कि…
*”सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊं, तबै गुरु गोबिंद सिंह नाम कहाऊं।”*

यह पंक्ति कविता नहीं, घोषणा है। यह अहंकार नहीं, आत्मविश्वास है। यह संख्या की चुनौती नहीं, चरित्र की कसौटी है। गुरु कहते हैं कि मैं तब ही गुरु कहलाऊंगा, जब भयभीत भी वीर बनें, जब कमज़ोर भी शेर बनें, जब दमन के आकाश में उड़ती चिड़िया भी बाज से भिड़ने का साहस करे। यही खालसा का संकल्प है… गिनती से नहीं, गुण से लड़ना।

सिख पंथ कोई पृथक मार्ग नहीं, सनातन चेतना का ओजस्वी, उज्ज्वल और निर्भीक विस्तार है।सनातन परंपरा के पुनरुत्थान की उद्घोषणा है। गुरु गोबिन्द सिंह जी की वाणी में वेदों का विवेक है, गीता का कर्मयोग है और शक्ति-उपासना का ओज है। चंडी चरित्र में वे महाशक्ति का आह्वाहन करते हैं, चौबीस अवतार में विष्णु परंपरा का विस्तार करते हैं और ‘शुभ करमन से कबहुँ न टरौं’ में उसी सनातन प्रतिज्ञा को स्वर देते हैं, जिसने भारत को कभी पराजित नहीं होने दिया। गुरु के लिए राम, कृष्ण, दुर्गा प्रतीक नहीं संस्कार हैं। युद्धभूमि की प्रेरणा हैं।

उनका जीवन सुविधाओं का नहीं, संघर्षों का सिंहनाद है। बलिदानों की बरछी है।

आनंदपुर की घेराबंदी, चमकौर का रण, सरहिंद का रक्तरंजित अध्याय ये सब बताते हैं कि गुरु ने धर्म के लिए केवल प्रवचन नहीं दिए, वंश अर्पित कर दिया। ‘जफरनामा’ कोई शिकायत नहीं, बल्कि विजय–पत्र है। उस सत्य की विजय, जो सत्ता के सिंहासन से भी ऊंचा होता है। जब गुरु कहते हैं कि अब झूठी कसमों पर भरोसा नहीं, तो वह केवल औरंगज़ेब को नहीं, पूरी इस्लामी छल-परंपरा को ललकार रहे होते हैं।

चार साहिबजादों का बलिदान भारतीय इतिहास का वह शिखर है, जहां काल भी नतमस्तक हो जाता है। जहां शब्द थम जाते हैं। रण में अजीत सिंह और जुझार सिंह का शौर्य और सरहिंद में जोरावर सिंह व फतेह सिंह की अडिग आस्था, यह सिद्ध करती है कि धर्म उम्र नहीं पूछता, धैर्य पहचानता है। दीवारों में चुने गए वे बालक भारत की आत्मा में आज भी जीवित हैं। यह संदेश है कि सनातन चेतना को मिटाने के लिए केवल सेना नहीं, समूची सभ्यता को मारना पड़ेगा और यह असंभव है।

जो लोग आज इन बलिदानों को तोड़–मरोड़कर प्रस्तुत करते हैं, जो गुरु को मूर्तिभंजक बताने का दुस्साहस करते हैं, वे केवल अज्ञानी नहीं-वैचारिक अपराधी हैं। जो चंडी चरित्र रचता है, जो माता की मूर्ति को शब्दों में प्राण देता है *”भाल निपट विशाल… सकल विध्न विमोचनी”*… उसे मूर्तिपूजा का विरोधी कहना षड्यंत्र की चरम सीमा है।

गुरु गोबिन्द सिंह जी का संघर्ष किसी समुदाय से नहीं था, उनका युद्ध अधर्म की मानसिकता से था। उनका खड्ग मनुष्य पर नहीं, अन्याय पर उठता था। इसलिए उनकी साधना मानवता-केंद्रित है, लेकिन निर्भीक और निर्णायक है।

गुरु के संघर्षों ने समाज की धमनियों में नया रक्त प्रवाहित किया। भय की जगह स्वाभिमान, मौन की जगह प्रतिकार, और बिखराव की जगह संगठन आया। धर्म कर्मकांड नहीं रहा, कर्तव्य बना। खालसा ने यह उद्घोष किया कि आस्था शर्म नहीं, शक्ति है और सत्य अकेला नहीं, वह संगठित होकर इतिहास रचता है।

आज, जब पहचान छुपाने की सलाह दी जाती है, जब कायरता को बुद्धिमत्ता कहा जाता है, तब गुरु की वही गर्जना फिर सुनाई देती है *”सवा लाख से एक लड़ाऊं…”* अर्थ साफ़ है… डरो मत, झुको मत, बिको मत। वे सिखाते हैं कि शांति भय से नहीं, न्याय से आती है और सुरक्षा केवल शस्त्र से नहीं, शास्त्र-संवेदना से मिलकर बनती है। और धर्म चाहिए तो त्याग के लिए तैयार रहो।

गुरु श्री गोबिन्द सिंह जी महाराज स्मृति नहीं, संघर्ष की जीवित चेतना हैं। वे इतिहास नहीं सनातन की हुंकार हैं। वे आज भी पूछ रहे हैं कि… तुम किस ओर हो? धर्म के साथ या डर के साथ? खालसा के साथ या समझौते के साथ?
और याद रखो…
सवा लाख से एक लड़ने का साहस ही,
सभ्यताओं को बचाता है।

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