यह घटना उन दिनों की है जब अंग्रेजों ने भारत से जाने की घोषणा कर दी थी और भारत विभाजन की प्रकिया भी आरंभ हो गई थी। लेकिन अंग्रेज जाते जाते कुछ ऐसा करके जाना चाहते थे चर्च की जमाशट पर कोई अंतर न आये और न उनकी कोई सांस्कृतिक परंपरा प्रभावित हो। इसके लिये उनके कुछ “स्लीपर सेल” सक्रिय थे जो देशभर में काम रहे थे। इसी षड्यंत्र में इस बालिका का बलिदान हुआ।
कालीबाई एक तेरह वर्षीय वनवासी बालिका थी। यह राजस्थान के डूंगरपुर जिले के वनाँचल की रहने वाली थी । कालीबाई का जन्म कब हुआ इसका इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता । अनुमानतः कालीबाई का जन्म जून 1934 माना गया। अंग्रेजीकाल में चर्च ने वनवासी अंचलों में चर्च ने अपने विद्यालय आरंभ करने का अभियान चलाया हुआ था। जिनका उद्देश्य वनवासी समाज को उनके मूल से दूर करना था। उनकी शिक्षा की शैली कुछ ऐसी थी कि वनवासी क्षेत्र में मतान्तरण तेजी से होने लगा था । उस समय के अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और सामाजिक साँस्कृतिक संगठन इसके लिये चिंतित थे। विशेषकर ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जो आर्यसमाज या राम-कृष्ण मिशन से जुड़े हुये थे उनमें यह भाव अधिक प्रबल था। राजस्थान में स्वामी दयानन्द सरस्वती और स्वामी विवेकानंद के बहुत प्रवास हुये थे इसलिये राजस्थान क्षेत्र में इन दोनों संस्थाओं का प्रभाव था । सुप्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी नानाभाई खांट आर्यसमाज से जुड़े थे उन्होंने डूंगरपुर जिले के रास्तापाल गाँव में एक विद्यालय आरंभ किया। विद्यालय में वनवासी बच्चों की शिक्षा का प्रबंध किया गया था । विद्यालय में उस समय की आधुनिक शिक्षा तो दी जाती थी पर भारतीय गुरु शिष्य परंपरा को भी जीवंत किया था। विद्यालय ने शाम को एक प्रार्थना सभा का आरंभ भी किया। जिसमें वनवासी परिवार भी आने लगे। इस विद्यालय में मुख्य शिक्षक सेंगाभाई थे। वनवासी बालिका कालीबाई भी यहाँ पढ़ने आती थी । यह भील समाज से संबंधित थी। उसकी आयु अनुमानित तेरह वर्ष थी। यह क्षेत्र डूंगरपुर रियासत के अंतर्गत आता था। आर्यसमाज ने विद्यालय आरंभ करने की अनुमति महारावल डूंगरपुर से ले ली थी। इस क्षेत्र में एक चर्च भी सक्रिय था। इस विद्यालय और उसकी गतिविधि से वनवासी समाज चर्च से दूर होने लगा। चर्च को आपत्ति हुई। चर्च ने कमिश्नर को शिकायत की। अंग्रेजों ने भले भारत से जाने की घोषणा कर दी थी पर उनकी पूरी प्रशासनिक व्यवस्था और रियासतों पर रुतबा कम न हुआ था।
शिकायत मिलते ही कमिश्नर ने डूंगरपुर के महारावल पर दबाब बनाया और विद्यालय बंद करने के आदेश हो गये। आदेश मिलते ही नानाभाई ने विद्यालय तो यथावत रखा और उन्होने महाराज से मिलने का प्रयास किया लेकिन अनुमति न मिली। मिलने का समय टाला गया। नानभाई को आशा थी महाराज से मिलने के बाद अनुमति यथावत हो जायेगी इसलिये विद्यालय बंद न हुआ । वे यह भी जानते थे कि अंग्रेज तो जाने वाले हैं। तब चर्च और अंग्रेज अधिकारियों के आगे क्यों झुकना। उनके इंकार करने से अधिकारी बौखला गये । एक भारी पुलिस बल के साथ अधिकारी विद्यालय पहुँचे। वे ताला लगाकर विद्यालय सील करना चाहते थे । किन्तु शिक्षक सेंगाभाई ने विद्यालय के द्वार पर खड़े होकर रास्ता रोकना चाहा। पुलिस ने पकड़ कर किनारे किया और विद्यालय पर ताला लगा दिया । शिक्षक सेंगाभाई को रस्सी से गाड़ी के पीछे बाँध दिया गया। गाड़ी रवाना हुई तो शिक्षक सेंगाभाई घसीटते हुये जा रहे थे । उनका पूरा शरीर लहूलुहान हो गया । रास्ते में कालीबाई खेत में काम कर रही थी ।
उसने देखा कि उनके गुरू को पुलिस गाड़ी में पीछे बाँधकर घसीटते हुये लेकर जा रही है। कालीबाई के हाथ में हँसिया था । वह हँसिया लेकर दौड़ी और रस्सी काट दी। पुलिस इससे और बौखला गई। पुलिस ने गोलियाँ चला दीं। पुलिस की गोली से कालीबाई का शरीर छलनी हो गया। गोली की आवाज सुनकर भील समाज एकत्र हो गया। सबने शिक्षक की दुर्दशा और अपनी बेटी का शव देखा। पूरा भील समाज आक्रोशित हो गया और पुलिस दोनों को छोड़कर भाग गई। कालीबाई का बलिदान मौके पर ही हो गया था । यह घटना 19 जून 1947 की है । सेंगाभाई इतने घायल हो गये थे कि रात में उनका भी प्राणांत हो गया । अगले दिन बीस जून को दोनों का अंतिम संस्कार किया गया । गुरु के प्राण बचाने केलिये बालिका कालीबाई का बलिदान इतिहास की पुस्तकें में आज भी लोकगीतों में है । स्वतंत्रता के बाद उस स्थान पर एक पार्क बनाया गया है इस पार्क में कालीबाई की प्रतिमा भी स्थापित है ।