कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
भारतीय संस्कृति में गुरु की महत्ता सृष्टि के आरंभ से ही अपने चिरकालिक शाश्वत स्वरूप में दिखाई देती है। जो विभिन्न कालप्रवाहों में भी कभी बाधित नहीं हुई। भारतीय संस्कृति ही एक ऐसी विशिष्ट संस्कृति है कि यहां गुरु को ईश्वर के रूप में स्वीकार कर उनकी वंदना की जाती है। गुरु अर्थात् जो अज्ञान के अंधकार से दूर कर ज्ञान रुपी अक्षय प्रकाश पुञ्ज की ओर ले जाएं। गुरु भारतीय जीवन में ‘सत्व-तत्व-सत्य’ के रूप में मिलते हैं।जो मनुष्य के इहलोक ही नहीं बल्कि परलोक को भी अपनी कृपादृष्टि से सुधारते हैं।पुण्यता का पथ प्रशस्त करते हैं। इसीलिए भारत की सनातन परंपरा ने धार्मिक एवं आध्यात्मिक अर्थों में साकार और निराकार दोनों रुपों में गुरु को प्रतिष्ठित किया। कभी त्रिदेव के रुप में में आराधना करते हुए स्तुति की गई—
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरु साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
स्कन्द पुराण में गुरु के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए उनकी वंदना में कहा गया —
ध्यानमूलं गुरुर्मूर्तिः पूजामूलं गुरुर्पदम्।
मंत्रमूलं गुरुर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरुकृपा॥
उसी परंपरा को प्रति वर्ष अषाढ़ मास में आने वाली व्यास पूर्णिमा की तिथि को ‘गुरुपूर्णिमा’ के पावन अवसर के तौर पर मनाया जाता है। यह तिथि हमारी सांस्कृतिक चेतना और विरासत का जीवंत शाश्वत प्रवाह है।जो राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति के सर्वोच्च और सार्वभौमिक सत्य और आदर्श के प्रति श्रद्धा एवं मानवंदना की प्रतीक है।गुरु पूर्णिमा को गुरु पूजन कर हम नतशीश होते हैं और गुरुकृपा का पुण्य लाभ अर्जित करते हैं। भारत की इसी परंपरा ने ध्वज विशेषकर भगवा ध्वज को भी अपने गुरु और सर्वोच्च आदर्शों के रूप में माना है। भगवा ध्वज अर्थात् भगवान का ध्वज;इस रूप में हम अपने शाश्वत प्रतीकों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते आ रहे हैं।वैदिक युग से लेकर रामायण और महाभारत के कालखंड और भारतीय राजवंशों की परंपरा में ‘ध्वज’ का अपना विशिष्ट स्थान है। विशेषतया ‘भगवा ध्वज’ (केसरिया) त्याग, तप, तेज और बलिदान के प्रतीक के रूप में भारत की संस्कृति और आदर्शों में रचा बसा हुआ है।
भारतीय संस्कृति के समस्त मानबिंदुओं और सर्वोच्च आदर्शों के आधार पर गठित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 2025 की विजयादशमी की तिथि से सौ वर्ष की यात्रा पूर्ण कर लेगा। जोकि आधुनिक विश्व इतिहास में किसी भी सांस्कृतिक संगठन की तत्वनिष्ठ पद्धति के रूप में शोध का विषय है।संघ ने राष्ट्र सर्वोपरि और हिंदू समाज के संगठन का महान व्रत लिया। भारत माता को परम् वैभव संपन्न बनाने के लिए असंख्य स्वयंसेवकों की दीपमालिका तैयार की। जो समाज जीवन के समस्त क्षेत्रों में कार्यरत हैं। गुरु पूर्णिमा और भगवा ध्वज को लेकर संघ की मान्यता को लेकर प्रायः चिंतन-मनन होते ही रहते हैं। ऐसे में भगवा ध्वज, गुरु पूर्णिमा और गुरु दक्षिणा को लेकर संघ की पद्धति क्या है? संघ ने किस प्रकार ये संरचना विकसित की और इसके पीछे क्या कारण हैं? इनके विषय में जानने के लिए— हमें संघ संस्थापक डॉ हेडगेवार से लेकर द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी और वर्तमान तक संघ की कार्यपद्धति और दृष्टि का सिंहावलोकन करना होगा।
27 सितम्बर 1925 को विजयादशमी की तिथि को हिन्दू समाज को संगठित और सशक्त करने का ध्येय लेकर जन्मजात देशभक्त डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। 10 नवम्बर 1929 को संघ की औपचारिक संरचना के उद्देश्य से उन्हें सरसंघचालक चुना गया। इस प्रकार वे संघ के संस्थापक सरसंघचालक कहलाए। संघ की शुरुआत करने से पूर्व वे स्वतन्त्रता संग्राम के प्रखर क्रान्तिकारी नेता के रूप में भी बहुचर्चित रहे।कांग्रेस में रहने के दौरान क्रान्तिकारी गतिविधियों में शामिल होने के चलते उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। डॉ. हेडगेवार के सम्मुख भारत माता की सेवा का जो भी कार्य आया। उसे उन्होंने अपनी सम्पूर्ण निष्ठा से निभाया। वे उस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ – साथ स्वातंत्र्य समर के विभिन्न समूहों के साथ स्वतंत्रता आन्दोलन में अग्रणी भूमिका निभा रहे थे। गांधी जी के सत्याग्रह आन्दोलन के समय भी डॉ हेडगेवार को ‘राज्य समिति के सदस्य’ के रूप में क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लेने के चलते सन् 1917 में जेल भी जाना पड़ा था। इतना ही नहीं जब गांधी जी द्वारा शुरू किए गए असहयोग आंदोलन में भी उन्होंने सक्रिय रूप से अपनी भूमिका निभाई।आन्दोलन में सहभागिता निभाने के कारण अंग्रेज सरकार ने उन पर देशद्रोह मुकदमा दर्ज कर उन्हें कारावास में बंद कर दिया था। जहां उन्हें 19 अगस्त 1921 को 1 वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। लेकिन जेल की यातनाओं से भी क्रान्तिधर्मी डॉ. हेडगेवार किञ्चित मात्र भी विचलित नहीं हुए। बल्कि उनके अन्दर का राष्ट्रभक्त — राष्ट्रभक्ति की साधना में तपता ही चला गया।
आगे चलकर डॉ. हेडगेवार ने जब 1925 में संघ की शुरुआत की तब उन्होंने घोषणा की थी— “हमारा उद्देश्य हिन्दू राष्ट्र की पूर्ण स्वतंत्रता है, संघ का निर्माण इसी महान लक्ष्य को पूर्ण करने के लिए हुआ है।”
वैसे 1925 में संघ की विधिवत शुरुआत हो चुकी थी लेकिन स्थायित्व और संगठनात्मक सुव्यवस्था – दृढ़ीकरण को लेकर डॉ. हेडगेवार चिंतन करते रहते थे।चूंकि किसी भी संगठन को चलाने के लिए अर्थ ( धन ) की आवश्यकता होती है। अतएव संघ के लिए धन कहां से आएगा? आर्थिक अनुशासन के साथ आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए। इन समस्त बिन्दुओं पर उन्होंने स्वयंसेवकों से विचार विमर्श किया। किसी ने चंदा लेने, किसी ने दान, किसी ने सदस्यता शुल्क तो किसी ने निजी बचत से संघ कार्य के संचालन का सुझाव दिया। अन्ततः डॉ. हेडगेवार ने ‘गुरु पूजन और समर्पण’ की अपनी संकल्पना प्रस्तुत की। इसके लिए गुरु पूर्णिमा ( व्यास पूर्णिमा ) को चुना गया। तय किया गया कि इसी दिन गुरु के समक्ष सभी स्वयंसेवक गुरु दक्षिणा के रूप में समर्पण करेंगे। चूंकि डॉ. हेडगेवार ने उस समय स्वयंसेवकों के मध्य यह प्रकट नहीं किया था कि गुरु के रूप में वे किसे स्वीकार कर रहे हैं? इसलिए सभी स्वयंसेवकों के मन में भांति-भांति प्रकार की जिज्ञासा थी। गुरु को लेकर अपनी अपनी कल्पना – परिकल्पना थी। किन्तु जब 1928 में संघ के पहले गुरुपूजन, गुरु पूर्णिमा का अवसर आया तो डॉ . हेडगेवार के भाषण को सुन वहां उपस्थित स्वयंसेवक अचम्भित रह गए। उस दिन सर्वप्रथम उन्होंने कहा था — “गुरु के रूप में हम परम पवित्र भगवा ध्वज का पूजन करेंगे और उसके सामने ही समर्पण करेंगे।”
अर्थात् हेडगेवार ने स्पष्ट रूप से संघ के गुरु के रूप में ‘भगवा’ ध्वज की प्रतिष्ठा की घोषणा कर दी थी। उन्होंने संघ के लिए ‘भगवा ध्वज’ को ही गुरु के रूप में क्यों स्वीकार किया? इसके सम्बन्ध में गुरुपूजन के अवसर पर उन्होंने भगवा ध्वज की महत्ता और उसकी ऐतिहासिक सांस्कृतिक प्रतिष्ठा पर विस्तार से प्रकाश डाला था। उन्होंने कहा था कि— “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किसी भी व्यक्ति को गुरु न मानकर परम् पवित्र भगवा ध्वज को ही गुरु मानता है। व्यक्ति कितना भी महान हो फिर भी उसमें अपूर्णता रह सकती है। इसके अतिरिक्त यह नहीं कहा जा सकता कि व्यक्ति सदैव ही अडिग रहेगा। तत्व सदा अटल रहता है। उस तत्व का प्रतीक भगवा ध्वज भी अटल है। इस ध्वज को देखते ही राष्ट्र का सम्पूर्ण इतिहास, संस्कृति और परम्परा हमारी आँखों के सामने आ जाती है। जिस ध्वज को देखकर मन में स्फूर्ति का संचार होता है वह अपना भगवा ध्वज ही अपने तत्व के प्रतीक के नाते हमारे गुरु-स्थान पर है। संघ इसीलिए किसी भी व्यक्ति को गुरु-स्थान पर रखना नहीं चाहता।”
( डॉ. हेडगेवार चरित,सप्तम संस्करण 2020, लोकहित प्रकाशन, लखनऊ पृ. 191, लेखक ना.ह.पालकर )
अपने भाषण के उपरान्त सबसे पहले डॉ. हेडगेवार ने स्वयं गुरु पूजन किया। तत्पश्चात वहां उपस्थित स्वयंसेवकों ने भगवा ध्वज की गुरु के रूप में पूजा की और अपना- अपना समर्पण दिया। इस प्रकार वर्ष 1928 में नागपुर में संपन्न हुए गुरु पूर्णिमा- गुरुपूजन उत्सव में स्वयंसेवकों ने 84 रुपए और कुछ आने ही गुरु दक्षिणा के रूप में समर्पण किया। स्पष्टतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में संगठन की शुरुआत करते हुए डॉ. हेडगेवार ने संघ के लिए ‘व्यक्तिनिष्ठ’ के स्थान पर ‘तत्वनिष्ठ’ होने की पद्धति विकसित की। पद नहीं अपितु ‘दायित्व’ की पद्धति को अपनाया। उन्होंने संघ को लेकर जिन मूल संकल्पनाओं एवं व्यवस्थाओं का सूत्रपात किया वे वर्तमान तक अपने उसी स्वरुप में दिखाई देती हैं।
संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य ‘श्री गुरुजी’ से लेकर वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत तक ने गुरु के रूप में ‘भगवा ध्वज’ की महत्ता को बारम्बार उद्धाटित किया है। 23 अगस्त 1966 को पुणे में आयोजित गुरु पूर्णिमा के अवसर पर श्री गुरुजी ने स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए कहा था कि —“हम सब लोग जानते हैं कि हमारे संघ कार्य में हमने किसी व्यक्ति विशेष को गुरु नहीं माना है। शास्त्रों में गुरु की बड़ी महत्ता बतायी गई है। गुरु को ईश्वर से भी श्रेष्ठ माना गया है। हमारे ऋषियों ने गुरु के गुण विस्तार से बखाने हैं। अब इतने गुण किसी एक व्यक्ति में पाना कठिन है। किसी व्यक्ति में हम कुछ श्रेष्ठ बातें देख लेते हैं, तो हम उसका आदर करने लगते हैं । परन्तु थोड़े ही दिनों में जब उसके दोष ध्यान में आ जाते हैं तब हमारे मन में अनादर उत्पन्न होता है। कदाचित् हम उसका तिरस्कार ही करने लगते हैं । यह सब घोर अनुचित है।क्योंकि गुरु का त्याग अपने यहाँ बड़ा पाप माना गया है। परन्तु यह सब हो सकता है, क्योंकि मनुष्य मात्र स्खलनशील है । गायत्री मंत्र के निर्माता विश्वामित्र बड़े उग्र तपस्वी और महान द्रष्टा थे।परन्तु उनका भी तो आखिर पतन हुआ।अतः किसी भी व्यक्ति को ऐसा अहंकार नहीं करना चाहिए कि मैं निर्दोष हूँ और परिपूर्ण हूँ।मनुष्य – जीवन की कली खिलकर बड़ा सुंदर और सुगंधी पुष्प विकसित हो जाता है ।परन्तु पता नहीं कैसे और कहाँ से उसमें कीड़ा लग जाता है।अतः जब तक जीवन पूर्ण नहीं हो जाता, तब तक उसका मूल्यांकन नहीं किया जाता । इसलिये संघ कार्य में उचित समझा गया है कि हम भावना, चिन्ह, लक्षण या प्रतीक को गुरु मानें। हमने संघ कार्य के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र के पुनर्निर्माण का संकल्प किया है। समाज के सव व्यक्तियों के गुणों तथा शक्तियों को हमें एकत्र करना है।इस ध्येय की सतत् प्रेरणा देने वाले गुरु की हमें आवश्यकता थी।”
( गुरु दक्षिणा, मा.स. गोलवलकर , चतुर्थ संस्करण 1998, जागृति प्रकाशन, नोएडा, पृ. 4)
संघ के स्वयंसेवक वर्ष में एक बार भगवा ध्वज के समक्ष गुरु पूजन का ‘समर्पण’ करते हैं।संघ में यही गुरु दक्षिणा मानी जाती है। इसी से वर्ष भर संघ के कार्यों का संचालन होता है। गुरु दक्षिणा अर्थात् ‘समर्पण’ को लेकर श्री गुरुजी कहते थे कि — “गुरुदक्षिणा, याने निश्चित धनराशि देने का आग्रह अथवा नियमित रूप से इकठ्ठा किया जाने वाला चंदा नहीं है। यह कार्य केवल स्वेच्छा का है। जीवन कष्टमय हो गया है, कुटुंब का भरणपोषण ठीक से नहीं हो पाता अथवा मैंने कम धन दिया तो लोग क्या कहेंगे? इस कारण यह पूजन टालना नहीं चाहिए। यहाँ आकर अंतः करण की ओत-प्रोत श्रद्धा से ध्वज को प्रणाम कर केवल एक पुष्प अर्पण किया तो भी काफी है। इस प्रकार के भाव से दिया हुआ एक पैसा भी धनी व्यक्ति द्वारा अर्पित किए गए सहस्रों रुपयों से अधिक मूल्य का है।“
संघ के वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत भी गुरु दक्षिणा और भगवा ध्वज की महानता के सन्दर्भ में अपने उद्बोधनों के माध्यम से उन्हीं विचारों को प्रकट करते हैं। विज्ञान भवन नई दिल्ली में आयोजित ‘भविष्य का भारत ‘ व्याख्यानमाला कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था— “हमारा संघ स्वावलंबी है। जो खर्चा करना पड़ता है वो हम ही जुटाते हैं। हम संघ का काम चलाने के लिए एक पाई भी बाहर से नहीं लेते। किसी ने लाकर दी तो हम लौटा देते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वयंसेवकों की गुरुदक्षिणा पर चलता है। साल में एक बार भगवा ध्वज को गुरु मानकर उसकी पूजा में दक्षिणा समर्पित करते हैं। भगवा ध्वज गुरु क्यों, क्योंकि वह अपनी तब से आज तक की परम्परा का चिह्न है। जब-जब हमारे इतिहास का विषय आता है, ये भगवा झंडा कहीं न कहीं रहता है ।”
( ‘भविष्य का भारत’, विज्ञान भवन नई दिल्ली
17 – 19 सितंबर 2018 )
डॉ. हेडगेवार ने जब संघ के संचालन के लिए आदर्श और प्रतीक चुने तो व्यक्ति को नहीं बल्कि विचारों को चुना । इसके लिए उन्होंने भारत के स्वर्णिम अतीत को आत्मसात करने का दिग्दर्शन प्रस्तुत किया। उन्होंने भारतीय संस्कृति के शाश्वत प्रतीक द्वय — ‘भगवा ध्वज’ और ‘भारत माता की जय’ के घोष को केन्द्र में रखा और संघ कार्य प्रारम्भ किया। इस सम्बन्ध में संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर — ‘ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: स्वर्णिम भारत के दिशा सूत्र ‘ में लिखते हैं — “स्थायित्व, सुनिश्चितता तथा उन्नति व अवनति के समय में दरारों से बचने के लिए डॉक्टर जी ने दो प्रतिष्ठित व पवित्र प्रतीकों को प्रतिष्ठापित किया—’भगवा ध्वज’ और ‘भारत माता की जय’ का घोष। चिरकाल से भगवा ध्वज, त्याग, तपस्या, शौर्य और ज्ञान जैसे शाश्वत मूल्यों का पर्याय रहा है। महाराणा प्रताप से लेकर शिवाजी तक सभी महान् योद्धाओं ने इसकी छत्रछाया में ही युद्ध लड़े हैं, मनीषियों ने इसकी प्रतिष्ठा में गीत गाए हैं, तपस्वियों ने इसकी आराधना की है। ‘भारत माता की जय’ का घोष भारत को माता के रूप में प्रतिष्ठापित करता है। इन दो शाश्वत प्रेरणास्त्रोतों के साथ स्वयंसेवकों ने बहुत छोटे रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को स्थापित किया और उद्यमपूर्वक इसका विकास किया है।”
( पृ. 47 , प्रभात प्रकाशन, संस्करण 2022)
भगवा ध्वज की सनातनता और भारत के सांस्कृतिक जीवन में कैसी महत्ता रही है? भारत के लिए ‘भगवा ध्वज’ के निहितार्थ क्या हैं? इस संबंध में श्री गुरुजी के संबोधन का संक्षिप्तांश महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है —
“हमारे समाज की सांस्कृतिक जीवन धारा में यज्ञ का बड़ा महत्व रहा है। ‘यज्ञ’ शब्द के अनेक अर्थ हैं।व्यक्तिगत जीवन को समर्पित करते हुए समष्टि जीवन को परिपुष्ट करने के प्रयास को ही ‘यज्ञ’ कहा गया है।सद्गुणरूप ‘अग्नि में अयोग्य, अनिष्ट, अहितकर बातों का होम करना ही यज्ञ है ।श्रद्धामय, त्यागमय, सेवामय, तपस्यामय जीवन व्यतीत करना ही यज्ञ है। यज्ञ की अधिष्ठात्री देवता अग्नि है।अग्नि का प्रतीक है ज्वाला, और ज्वालाओं का प्रतिरूप है – हमारा परमपवित्र ‘भगवा ध्वज। हम श्रद्धा के उपासक हैं, अन्धविश्वास के नहीं। हम ज्ञान के उपासक हैं, अज्ञान के नहीं। जीवन के हर क्षेत्र में बिल्कुल विशुद्ध रूप में ज्ञान की प्रतिष्ठापना करना ही हमारी संस्कृति की विशेषता रही है।अज्ञान के नाश के लिए ही हमारे ऋषि-मुनियों ने उग्र तपश्चर्या की है। अज्ञान का प्रतीक है अंधकार, और ज्ञान का प्रतीक है सूर्य।पुराणों में कहा गया है कि सूर्य नारायण रथ में बैठ कर आते हैं । उनके रथ में सात घोड़े लगे हैं और उनके आगमन के बहुत पहले उनके रथ की सुनहरी गैरिक ध्वजा फड़कती हुई दिखायी देती है।इसी ध्वज को हमने हमारे समाज का परम आदरणीय प्रतीक माना है।वह भगवान का ध्वज है।इसीलिए उसे हम ‘भगवद् ध्वज’ कहते हैं। उसी से आगे चलकर शब्द बना है – ‘भगवा ध्वज’ । वही हमारा गुरु है।”
( गुरु दक्षिणा, मा.स. गोलवलकर , चतुर्थ संस्करण 1998, जागृति प्रकाशन, नोएडा, पृ. 4)
अभिप्रायत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारत की महान परंपरा और संस्कृति के महान आदर्शों को
आत्मसात किया।श्रेष्ठ मूल्यों और विचार दृष्टि के साथ संघ की कार्यपद्धति विकसित की। राष्ट्रीयता के मूल्यों के आलोक में समाज का संगठन करते हुए सर्जनात्मकता का वृहद वातावरण निर्मित किया। जो संजीवनी शक्ति के तौर पर स्वयंसेवकों के आचरणों और संघ कार्य में स्पष्ट दिखाई देता है। संघ में ‘गुरु’ के रूप में ‘भगवा ध्वज’ की प्रतिष्ठा — तत्व निष्ठा के सर्वश्रेष्ठ -सर्वोच्च प्रतिमान के रूप में दिखाई देती है। भगवा ध्वज को गुरु के रूप में स्वीकार करने की संकल्पना के पीछे – भगवा में समाहित सूर्य की अनंत शक्ति, संन्यासियों के वेश में त्याग, तपस्या, पुरुषार्थ और सेवा का महत् संकल्प है।भगवा में भारत के दिग्विजयी सम्राटों/ वीरों के ध्वज की गौरवपूर्ण झंकार एवं राष्ट्रीय एकता-एकात्मता की महान संकल्पना अन्तर्निहित है। जो सतत् शौर्य और साहस की असीम शक्ति का संचार कर रही है। इसी से प्रेरणा पाकर संघ के असंख्य स्वयंसेवक— समरसता की भावना के साथ संपूर्ण समाज को अपना मानकर राष्ट्रोत्थान और राष्ट्र निर्माण के कार्य में संलग्न हैं।डॉ. हेडगेवार द्वारा प्रणीत संकल्पना – पद्धति का अनुगमन करते हुए राष्ट्र निर्माण के पथ पर गतिमान हैं। यह डॉ. हेडगेवार की उसी दूरदृष्टि का सुफल है कि अपनी ‘तत्व निष्ठा’ के चलते ही संघ अपने विविध अनुषांगिक संगठनों के साथ वृहद स्वरूप ले पाया। साथ ही डॉ हेडगेवार और श्री गुरुजी का विशद् दृष्टि का अनुकरण करते हुए संघ के स्वयंसेवक समस्त क्षेत्रों में अपनी कर्त्तव्याहुति समर्पित कर रहे हैं।लेकिन कार्यों और विचारों में कहीं भी ‘अहं’ नहीं मिलेगा बल्कि ‘वयं’ और ‘मैं नहीं तू’ की उदात्त भावना दिखाई देगी। इसी ‘कर्ता भाव’ के साथ संघ और उसके स्वयंसेवक राष्ट्रीयता के संस्कारों की दिव्य ज्योति को घर-घर तक पहुंचाने के लिए कृतसंकल्पित हैं।
~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
( साहित्यकार, स्तम्भकार एवं पत्रकार)