हम दो हमारे दो के नारे ने एक खामोश क्रांति को अंजाम दिया

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हैदराबाद : सुबह की गुलाबी रोशनी में महाराष्ट्र के सातारा ज़िले के एक छोटे से गाँव की रूटीन ज़िंदगी जगने लगती है, मुर्गों की बाँग, पीतल के बर्तनों की खनक, और बरगद के पेड़ के नीचे बैठी आशा वर्कर संगीता, जिसने अपनी नीली दवाई-बक्शा खोलकर सामने फैला दी है। गन्ने के खेतों पर पड़ती धूप में वह औरतों के एक घेरे को समझा रही है कि जन्मों में फ़ासला रखना कैसे माँ और बच्चे दोनों की ज़िंदगी बचाता है। कुछ औरतें बच्चों को गोद में लिए हैं, कुछ संकोच में ऐसे सवाल पूछ रही हैं जो शायद वे अपने शौहर के सामने कभी न पूछ पातीं। इस सादे से सुबह के दृश्य में भारत की असली आबादी-क्रांति दर्ज है, न फ़ाइलों में, न नारेबाज़ी में, बल्कि एक-एक आशा की सब्र, मोहब्बत, और इख़्तियार देने की कोशिश में।

आज़ादी के तुरंत बाद भारत एक बड़ी जनसंख्या चुनौती से घिरा था। तेज़ आबादी बढ़ोतरी ने अनाज, सरकारी सेवाओं, और विकास योजनाओं पर भारी दबाव डाला। 1952 में भारत ने दुनिया का पहला राष्ट्रीय परिवार नियोजन कार्यक्रम शुरू किया, एक बेहद दूरअंदेश कदम। मक़सद था: छोटे परिवार, बेहतर सेहत और बेहतर ज़िंदगी।

शुरुआती कोशिशों में उम्मीद थी, पर रफ़्तार धीमी। अनपढ़ी, परंपराएँ, और कमज़ोर स्वास्थ्य सेवाओं ने प्रयासों को सीमित रखा।
1960 के दशक के आख़िरी तक सरकार पर बढ़ती जनसंख्या का ख़ौफ़ हावी होने लगा। नसबंदी कैंप बढ़ाए गए; कई जगह दबाव और लक्ष्य थोपे जाने लगे। इमरजेंसी के दौरान (1975–77) यह अंधेरा चरम पर पहुँचा, संजय गांधी की बदनाम नसबंदी मुहिम में एक साल में 60 लाख से अधिक मर्दों की ज़बरन नसबंदी कराई गई। “फ़ैमिली प्लानिंग” एक डरावना जुमला बन गया।

सियासी प्रतिक्रिया भयंकर थी। सरकार को यह तीखा सच स्वीकारना पड़ा कि आबादी पर क़ाबू ज़बरदस्ती से नहीं, यक़ीन और भरोसे से होता है।
इमरजेंसी के बाद सरकार ने रास्ता बदला। 1977 में कार्यक्रम का नाम बदलकर ‘फ़ैमिली वेलफ़ेयर’ कर दिया गया, सारा ज़ोर सहमति, जागरूकता और भलाई पर रखा गया। औरतों को नीति की केन्द्र-बिंदु बनाया गया, क्योंकि सिर्फ़ उनके रुख से ही बदलाव संभव था।

1980 और 1990 के दशकों में धीरे-धीरे लक्ष्य-आधारित रवैया छोड़ा गया। 1994 की “टारगेट-फ्री” नीति ने पहली बार कमान समुदाय को सौंप दी। नारा बदला: “बच्चे हों पसंद से, मजबूरी से नहीं।”

2000 की राष्ट्रीय जनसंख्या नीति ने स्पष्ट दिशा दी, सबको गर्भनिरोधक उपलब्ध कराना, महिलाओं के प्रजनन अधिकार मजबूत करना, मर्दों की भागीदारी बढ़ाना, और कुल प्रजनन दर (TFR) को 2.1 तक लाना।

2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NRHM) सबसे बड़ा मोड़ साबित हुआ। माँ-बच्चे की सेहत, टीकाकरण और परिवार नियोजन को पहली बार एक ही ढाँचे में जोड़ा गया। इसके केंद्र में थीं आशा (ASHA) कार्यकर्ता, गाँव-गाँव की वह भरोसेमंद दूत, जो घर-घर जाकर न सिर्फ़ दवाइयाँ देती है बल्कि एक भरोसेमंद मित्र की तरह खुलकर बात करने का हौसला देती है। परिवार नियोजन अब ‘हुक्म’ नहीं, बल्कि ‘हक़’ बन गया।

2010 के बाद भारत में परिवर्तन साफ़ दिखने लगा। मिशन परिवार विकास, अंतरा इंजेक्शन, छाया गोली, प्रसवोत्तर IUD और नो-स्कैल्पल नसबंदी जैसी योजनाओं ने विकल्प बढ़ाए।

नतीजे हैरतअंगेज़ हैं। 1960 के दशक में 6 की TFR अब 2025 में 1.9—यानि replacement level से भी नीचे। आबादी की वृद्धि दर 1% से कम। अनुमान है कि 2047 तक जनसंख्या स्थिर हो जाएगी। मातृ मृत्यु आधी रह गई, शिशु मृत्यु दर 1950 के 146 से घटकर 27 (2020) पर पहुँच गई।

छोटे परिवारों ने सामाजिक ढाँचे को भी बदला, ज़्यादा पढ़े-लिखे बच्चे, महिलाओं की शिक्षा और रोज़गार में बढ़त, और घरेलू निर्णयों में उनकी मज़बूत भूमिका।

तस्वीर पूरी तरह चमकदार नहीं। बिहार (TFR 3.0) और उत्तर प्रदेश (2.4) अब भी पिछड़ रहे हैं, जबकि दक्षिण भारत का TFR 1.8 से भी नीचे है। लगभग 10% महिलाओं की परिवार नियोजन की ज़रूरतें अब भी अधूरी हैं। बाल विवाह आज भी कई जगह गर्भधारण और ग़रीबी के चक्र को बनाए रखता है।

साथ ही, “जनसंख्या momentum”—भारत की बड़ी युवा आबादी—2050 तक लगभग 30 करोड़ और लोग जोड़ देगी। दूसरी तरफ़ घटती प्रजनन दर बुढ़ापे की नई चुनौतियाँ भी लाएगी, देखभाल, पेंशन, और सामाजिक सुरक्षा।

भारत की आबादी की कहानी अब ज़बरदस्ती की नहीं, बल्कि यक़ीन, और बुनियादी इंसानी गरिमा की है। यह इंक़लाब सरकारी दफ़्तरों में नहीं, बल्कि गाँव की चौपालों में, चाय की दुकानों में, और छोटी क्लीनिकों में हुआ, एक-एक बातचीत के ज़रिए।

आज परिवार नियोजन सिर्फ़ आंकड़ों का मसला नहीं, बल्कि बराबरी, सेहत और सम्मान का पैमाना है। दुनिया के सबसे बड़े मुल्क ने साबित कर दिया कि जब नीति लोगों के अधिकारों से मेल खाए, तो बदलाव खामोशी से भी आ सकता है, खूबसूरती से, अमन के साथ।

यह निस्संदेह आज़ाद भारत की सबसे बड़ी और सबसे ख़ामोश क्रांतियों में से एक है, जो घर-घर में, एक-एक औरत के फ़ैसले से आगे बढ़ी।

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Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

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