हिन्दी साहित्य के एक शतक का हुआ पटाक्षेप

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चिराग़ जैन

किसी कवि का शतायु होना साहित्य के लिए स्वास्थ्य के लिए शुभ है। अपनी जन्मशती के समारोह में स्वयं उपस्थित रहकर जिसने उद्बोधन दिया हो, उनकी सक्रियता अनुकरणीय है।

आज हिन्दी की एक स्वस्थ लेखनी विदा हुई है। जीवन की तमाम ‘तोड़ देनेवाले कष्टों से’ अक्षुण्ण रहते हुए अपने सुभाव की सरलता और सकारात्मकता को सींचने के एक लौकिक उदाहरण आज परलोक चला गया है।

मैंने डॉ रामदरश मिश्र जी की बहुत संगत तो नहीं की, किन्तु उनका पर्याप्त सान्निध्य प्राप्त करनेवाले लोगों से मैंने उनके जीवन की ऐसी अनेक पीड़ाओं के विषय में जाना जिनकी आह से आहत होने की बजाय ‘गान’ उलीचते हुए मिश्र जी ने अश्रु को स्याही बनाने की दक्षता प्राप्त की।

देश की राजधानी की धरती पर आज एक कवि की माटी धराशायी है। धरती से जुड़े रचनाकार को धरती रात भर अपनी गोद में रखेगी और फिर बालक जैसा वह वयोवृद्ध अपने अक्षर पीछे छोड़कर शेष अस्तित्व को पंचतत्व में विलीन कर लेगा।

यह किसी प्राण के मोक्ष सरीखा क्षण है। यह किसी जीवन के पूर्ण होने जैसी अनुभूति है। यह किसी कवि के कविता हो जाने का उदाहरण है।
एक पूर्ण कवि, अपने युग की धड़कन से अपनी साँसों के सुर मिलाता हुआ ‘सम’ पूर्ण हो गया है।

ईश्वर से आज कोई प्रार्थना नहीं करूंगा क्योंकि ईश्वर तो अभी मिश्र जी से कविताएँ सुनने में व्यस्त होगा।
जय राम जी की!

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