हंस पत्रिका का ढोंग: हिंसा के आरोपी संजय राजौरा को मंच क्यों?

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दिल्ली। यह मुद्दा जटिल और संवेदनशील है, जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सामाजिक जवाबदेही, #MeToo आंदोलन, और सार्वजनिक मंचों पर व्यक्तियों के चयन से जुड़े नैतिक प्रश्न शामिल हैं। मीनाक्षी झा द्वारा संजय राजौरा के संदर्भ में उठाए गए मुद्दों पर बात होनी चाहिए, साथ ही हंस पत्रिका को संजय को बुलाए जाने पर एक बार पुन: विचार करना चाहिए।

मीनाक्षी झा का आरोप है कि संजय राजौरा, जो साम्प्रदायिकता के खिलाफ बोलने के लिए जाने जाते हैं, वह आदमी निजी जीवन में अपरधी है। मीनाक्षी के अनुसार संजय ने उनकी जिंदगी में गंभीर अपराध किए, जिसमें उन पर हमले और कई महिलाओं के साथ एक साथ संबंध रखना शामिल है।

मीनाक्षी का दावा है कि वह संजय के घर से अपनी जान बचाकर भागीं, और उनके खिलाफ #MeToo के तहत 2021 में मामला भी दर्ज है। यह गंभीर आरोप संजय की सार्वजनिक छवि, जो एक प्रगतिशील और क्रांतिकारी व्यक्ति की है, के विपरीत है। हंस पत्रिका द्वारा उन्हें वक्ता के रूप में आमंत्रित करना मीनाक्षी को ‘अखरने वाली बात’ लगती है, क्योंकि यह एक ऐसे व्यक्ति को मंच देना है, जिसके खिलाफ गंभीर आरोप हैं।

साम्प्रदायिक शक्तियों से कथित तौर पर लड़ने वालों के बीच से आई यौन हिंसा की यह कहानी नई बात नहीं है। नया सिर्फ इतना है कि उसे मीनाक्षी दर्ज कराने का साहस जुटा रहीं हैं। कथित तौर पर साम्प्रदायिक शक्तियों से लड़ने वालों के बीच बहुत से मामले तो दबा दिए जाते हैं, साम्प्रदायिक शक्तियों का भय दिखाकर।

उमर राशिद के खिलाफ आरोप और साम्प्रदायिकता का भय

हाल के एक मामले में, एक महिला ने द वायर से जुड़े स्वतंत्र पत्रकार उमर राशिद पर बलात्कार, यौन उत्पीड़न, शारीरिक और मानसिक हिंसा, और जबरन गोमांस खाने जैसे गंभीर आरोप लगाए हैं। यह आरोप एक सोशल मीडिया पोस्ट के माध्यम से सामने आए, जिसमें पीड़िता ने विस्तार से बताया कि राशिद ने अपनी पत्रकारीय स्थिति का दुरुपयोग कर उसे रिश्ते में फंसाया और फिर हिंसा व अपमान का शिकार बनाया। विशेष रूप से, उसने यह भी उल्लेख किया कि राशिद ने उसकी हिंदू पहचान को निशाना बनाते हुए उसे गोमांस खाने के लिए मजबूर किया, जो उसके सांस्कृतिक और व्यक्तिगत विश्वासों के खिलाफ था।

पीड़िता ने अपनी पोस्ट में यह स्पष्ट किया कि वह नहीं चाहती कि उनके मामले को साम्प्रदायिक रंग दिया जाए, लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि राशिद ने उनकी गैर-मुस्लिम पहचान का बार-बार जिक्र करते हुए उन्हें चुप रहने के लिए दबाव डाला। उन्होंने यह भी बताया कि उन्हें साम्प्रदायिक शक्तियों, विशेष रूप से ‘हिंदुत्व ब्रिगेड’ के संभावित प्रतिक्रिया का भय दिखाया गया, ताकि वह चुप रहें। यह दबाव, जैसा कि आपने उल्लेख किया, साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ने वाली शक्तियों द्वारा बनाया गया, जिसने उन्हें यह विश्वास दिलाने की कोशिश की कि उनकी शिकायत से साम्प्रदायिक ताकतें मजबूत होंगी। यह एक गंभीर नैतिक और सामाजिक सवाल उठाता है: क्या साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई के नाम पर यौन हिंसा के पीड़ितों की आवाज को दबाना उचित है?

साम्प्रदायिकता और यौन हिंसा का अंतर्संबंध

उमर राशिद के मामले में, पीड़िता ने स्पष्ट रूप से कहा कि वह नहीं चाहती कि उनकी कहानी को साम्प्रदायिक रंग दिया जाए, लेकिन यह भी स्वीकार किया कि राशिद ने उनकी हिंदू पहचान का इस्तेमाल उन्हें डराने और चुप कराने के लिए किया। यह एक दोहरी मार है: एक ओर, पीड़िता को हिंसा का सामना करना पड़ता है, और दूसरी ओर, साम्प्रदायिकता का भय दिखाकर उनकी आवाज को दबाने की कोशिश की जाती है। यह दर्शाता है कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ने वाली कुछ शक्तियां, जो खुद को प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष कहती हैं, अनजाने में या जानबूझकर यौन हिंसा के पीड़ितों को चुप कराने में योगदान दे रहीं हैं।

हंस पत्रिका के आयोजन और नैतिक जवाबदेही

मीनाक्षी झा ने संजय राजौरा को हंस पत्रिका द्वारा उन्हें वक्ता के रूप में आमंत्रित करने पर आपत्ति जताई है। यह मामला भी उसी तरह की नैतिक जवाबदेही के सवाल उठाता है। संजय राजौरा, जो साम्प्रदायिकता के खिलाफ बोलने के लिए जाना जाता है, पर उस पर गंभीर व्यक्तिगत आरोप हैं, फिर भी उसे एक प्रतिष्ठित मंच पर स्थान दिया जा रहा है। यह सवाल उठता है कि क्या प्रगतिशील विचारधारा के नाम पर व्यक्तिगत अपराधों को नजरअंदाज किया जाना चाहिए?

क्या एक मंच को उन व्यक्तियों को आमंत्रित करना चाहिए, जिनके खिलाफ सार्वजनिक रूप से गंभीर आरोप लगे हैं, खासकर जब मामला अदालत में विचाराधीन हो? यह सवाल पत्रिका की विश्वसनीयता और जवाबदेही को प्रभावित करता है। हंस को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके मंच पर आने वाले व्यक्तियों का चरित्र और सार्वजनिक आचरण उनके मूल्यों के अनुरूप हो। संजय को मंच देना, बिना उनके खिलाफ आरोपों की जांच के, पीड़ितों की आवाज को कमजोर करने और #MeToo जैसे आंदोलनों की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाने का जोखिम उठाता है।

आनंद पटवर्धन, सीमा मुस्तफा, राजू रामचंद्रन, मृदुला गर्ग, और शीबा असलम फहमी की संजय राजौरा के बहिष्कार को लेकर कोई नैतिक जवाबदेही नहीं बनती? क्या ये सभी संजय के साथ मंच साझा करते हुए सहज रह पाएंगे? हंस पत्रिका को, जैसा कि मीनाक्षी ने मांग की है, संजय के खिलाफ आरोपों का संज्ञान लेना चाहिए और मामले की जांच करनी चाहिए।

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आशीष कुमार अंशु

आशीष कुमार अंशु

आशीष कुमार अंशु एक पत्रकार, लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता हैं। आम आदमी के सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों तथा भारत के दूरदराज में बसे नागरिकों की समस्याओं पर अंशु ने लम्बे समय तक लेखन व पत्रकारिता की है। अंशु मीडिया स्कैन ट्रस्ट के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं और दस वर्षों से मानवीय विकास से जुड़े विषयों की पत्रिका सोपान स्टेप से जुड़े हुए हैं

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