राहुल चौधरी नील
संवेदना एक ऐसी भावना है जो हृदय की गहराइयों से उपजती है। यह किसी शब्द, प्रदर्शन या सार्वजनिक घोषणा की मोहताज नहीं। जब कोई अपना या अनजान दुख के साये में आता है, तब संवेदना मौन में, एक सच्चे स्पर्श में, या गहरी नजरों में व्यक्त होती है। यह चुप्पी शब्दों से अधिक कहती है। लेकिन आज, जब संवेदना सोशल मीडिया की चकाचौंध में सिमटने लगी है, उसका गहरापन खो रहा है।
ट्वीट, पोस्ट और स्टेटस के दौर में दुख एक प्रदर्शन बन गया है, खासकर भारतीय राजनीति में, जहां संवेदना अक्सर सच्ची भावना कम, छवि चमकाने का जरिया ज्यादा नजर आती है।
राजनीति में संवेदना कई बार औपचारिकता बनकर रह जाती है। नेताओं की पोस्ट, उनके शब्दों की सजावट, और टाइमिंग की जल्दबाजी—यह सब किसी गहरी पीड़ा का प्रतीक कम, बल्कि एक बनावटी छवि का हिस्सा ज्यादा लगता है। यह एक दौड़ है—कौन पहले शोक जताएगा, किसके शब्द सबसे मार्मिक होंगे। इसमें संवेदना की आत्मा गायब है; बाकी है तो बस दिखावा। आज दुख प्रकट करना एक सार्वजनिक जिम्मेदारी बन गया है। यदि इसमें देरी हो या शब्द कम पड़ जाएं, तो मानो अपराध हो गया।
यह विडंबना है कि इतनी अंतरंग भावना भी अब अपेक्षाओं के दबाव में कैद है। भारतीय परंपरा में दुख की साझेदारी मौन और आत्मीयता में होती थी। साथ बैठना, कंधे से कंधा मिलाना, उस दुख को जीना-यही संवेदना थी। न कैमरे थे, न शोर, फिर भी वह भावना पूरी तरह महसूस होती थी। लेकिन अब, जब सब कुछ स्क्रीन पर सिमट गया है, संवेदना भी उसी की वस्तु बन गई। हम एक-दूसरे के दुख के हिस्सेदार कम, दर्शक ज्यादा बन गए हैं।
यह सवाल परेशान करता है—क्या हम वास्तव में दुखी होते हैं, या बस दुखी दिखने की कोशिश करते हैं? अगर किसी के निधन पर हमारा पहला कदम कीबोर्ड या कैमरे की ओर जाता है, तो हमें सोचना होगा—क्या हमारी संवेदना जीवित है, या वह भी औपचारिक नकाब बन चुकी है? संवेदना कोई पोस्ट या घोषणा नहीं, बल्कि एक आत्मीय उपस्थिति है। वह चुपके से दुख में साथ देती है, बिना शब्दों के। बाकी सब शोर है। हमें फिर से सीखना होगा कि सच्ची संवेदना वही है जो हृदय से हृदय तक पहुंचे, न कि स्क्रीन से स्क्रीन तक।